ज्ञान के प्रमाण
भारतीय दर्शन में इस बात पर गहण विचार किया गया है कि ज्ञान का आधार क्या है। ज्ञान कैसे प्राप्त होता है तथा सत् तथा असत् ज्ञान में क्या अन्तर है। इस में सब से अधिक गम्भीर चिंतन न्याय शास्त्र में किया गया है। इस में इस विषय की विस्तारपूर्वक विवेचना की गई है। वास्तव में इस को आधार मान कर हम दूसरे दर्शनों की इस बारे में विचारों की विवेचना कर सकते हैं।
न्याय में जैमिनि सूत्र को आधार माना जाता है परन्तु जैमिनि के विचारों में तथा बाद के न्यायशास्त्रियों के विचार में भी अन्तर है। जैमिनि के अनुसार किसी वस्तु का ज्ञान तीन प्रकार से अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द से प्राप्त हो सकता है। प्रत्यक्ष ज्ञान तो वह है जो हमें अपनी इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है। देखने, सुनने, छूने, सूँघने तथा स्वाद लेने से प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है। अनुमान का अर्थ है कि ज्ञात वस्तु से अज्ञात की ओर जाना। जैसे इस ज्ञान से कि जहाँ धुआँ होता है वहाँ आग होती है से पहाड़ में धुआँ देख कर आग का अनुमान लगाने की बात है। शब्द किसी के द्वारा बोले गये शब्द हैं जिन से किसी बात का ज्ञान हो सकता है। शब्द में लिखित शब्द भी समिमलित हैं। शब्द पौरुषेय अर्थात किसी व्यक्ति द्वारा बोले हुए भी हो सकते हैं तथा अपौरुषेय भी जैसे वेद इत्यादि। अपौरुषेय शब्द के गलत होने का प्रश्न ही उपसिथत नहीं होता।
बाद में न्यायशास्त्री प्रभाकर द्वारा इस में दो और प्रमाण उपमान तथा अर्थापत्ति जोड़ दिये गये। उपमान का अर्थ है किसी से तुलना कर ज्ञान प्राप्त करना। जैसे बाईसन भैंसे जैसा होता है, इस आधार पर बाईसन को देखने से उस का ज्ञान होना। अर्थापत्ति का अर्थ है एक से अधिक ज्ञात बातों से किसी अज्ञात के बारे में जान लेना जैसे पहाड़ पर काले बादल देख कर तथा बाद में नाले में मटियाले पानी का आना देख कर यह ज्ञान हो जाता है कि पहाड़ पर वर्षा हुई है।
न्यायशास्त्री कुमारिल अभाव को भी ज्ञान का एक स्वतन्त्र स्रोत मानते हैं। उन का कहना है कि किसी वस्तु का अभाव ज्ञात होने का कोई दूसरा प्रमाण नहीं है। न तो इस में प्रत्यक्ष ज्ञान है न ही यह अनुमान है। परन्तु प्रभाकर का कहना है कि वस्तु के आस्तित्व में ही उस के अभाव का ज्ञान भी छिपा है।
न्याय में इन बातों पर विस्तृत चर्चा की गई है पर दूसरे दर्शन वालों ने भी इस पर स्वतन्त्र रूप से विचार किया है। उन का अपना अलग मत है। उदाहरणतया चार्वाक के अनुसार प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है। जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जा सके वही सत्य है। शेष मानने योग्य नहीं है। बौद्ध मत का तो मानना है कि हर वस्तु क्षणिक है। उस में कोई स्थायीत्व ही नहीं है अत: किसी भी प्रमाण को वैध नहीं माना जा सकता। जो दिखता है वह केवल भ्रम है। अद्वैतवाद भी सभी बातों को भ्रम मानता है परन्तु उस में यह अवश्य कहा गया है कि जब तक ब्रह्रा का ज्ञान नहीं होता तब तक ज्ञान के साधन आवश्यक हैं तथा न्याय द्वारा बताये गये प्रमाण उचित हैं। ब्रह्रा का ज्ञान होने पर सभी संसारिक वस्तुयें भ्रम ही साबित होती हैं जैसे सपना समाप्त होने पर उस में विद्यमान वस्तुयें भी विलीन हो जाती हैं। जैन मत में प्रत्यक्ष तथा अनुमान के आधार पर मति, शब्द के आधार पर श्रुता ज्ञान के अंग माने गये हैं। परन्तु इन से परे अवधि ज्ञान है और उस से परे मन:प्रयाय तथा कैवल्य हैं। अवधि ज्ञान मन से जानना है। मन:प्रयाय स्वयंभू ज्ञान है तथा कैवल्य पूर्ण ज्ञान है जहाँ भूत भविष्य वर्तमान सब का सतत ज्ञान रहता है।
कहना न होगा कि इन सभी दर्शनों में भी विभिन्न विद्वानों का अलग अलग मत है। मौलिक रूप से वह एक समान सोचते हैं किन्तु कुछ बिन्दुओं पर छोटे छोटे भेद हैं। यही हमारे दर्शन पद्धति की विशेषता है कि हर विद्वान अपने लिये स्वयं सोच कर अपना मार्ग निर्धारित कर सकता है। अपौरुषेय ज्ञान भले ही गल्त न हो पर उस की व्याख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
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