ज्ञान की बात
- पार्थ, तुम यह एक तरफ हट कर क्यों खड़े हो।ं क्यों संग्राम में भाग नहीं लेते।
- कन्हैया, मन उचाट हो गया है यह विभीषिका देख कर, किनारे पर रहना ही ठीक है।
- यह बात तो एक वीर, महावीर को शोभा नहीं देती है। अगर आये हैं तो जो हम से अपेक्षा है, जो समाज की मॉंग है, जो सभा का कायदा है, उन का पालन करना ही पड़ता है।
- पर हे मधुसूदन, अपना पूर्व का अनुभव बहुत कष्टदायक था।
- हे सूट बूट धारी, कष्ट सहने पर ही सफलता मिलती है। आगे बढ़ो और जूझ जाओ। तुम्हारा लक्ष्य अवश्य मिले गा।
- और घर पर जो डॉंट पड़े थी, उस का आप को ज्ञान नहीं है।
- क्या कृष्णा ने कुछ कहा। क्या हुआ, कैसे हुआ?
- नया सूट था, एक दम चौपट हो गया। ड्राईक्लीन करवाना पड़ा पर दाग फिर भी नहीं छूटे।
- संग्राम में तो इस प्रकार की घटनायें हो ही जाती हैं। रास्ता आसान नहीं है। पर धीरज खोना भी उचित नहीं है।
- आप का कहना सिर माथे पर, पर आज तो रहने ही दो।
- तो आज क्या इरादा है?
- मैं घर से ही खाना खा कर आया हूॅं। बस दूसरों को जूझते हुये देखूॅं गा। उछल कूद मचाते हुये, कुछ पाया, कुछ रह गया। जो पा लिया, वह अपना है, जो रह गया, वह दूसरों की प्लेट में गया।
संजयउवाच
हे कौरव श्रेष्ठ, यह कह कर वह कौरव वीर हाथ पर हाथ धर कर एक ओर खड़ा हो गया। शेष सभी लोग बूफे, यानि गिद्ध भोज, का मज़ा लूट रहे थे। शादी का अवसर था। जैसे ही वरमाला की रस्म पूरी हुई और भोजन की अनुमति मिली, सब उस पर टूट पड़े। कतारें लग गई और लम्बी होती गईं।
खाने की कमी न थी पर शायद समय की कमी थी या खड़े खड़े भूख सताने लगी थी। जो हो, संग्राम में सभी वीर अपनी अपनी किस्मत अज़मा रहे थे।
तब कृष्ण ने इस प्रकार अर्जुन को सम्बोधित किया।
कृष्ण उवाच
हे अर्जुन, मैं तुम्हारी व्यथा समझता हूॅं। तुम अभी तक अपने कीमती सूट के शोक में डूबे हुये हो। धीरवान पुरुष जो बीत गया, उस पर अपना समय नष्ट नही करते। वह सूट, जिस का तुम्हें अफसोस हो रहा है, पहले तम्हारे बड़े भाई का था, आज तुम्हारा है। कल किसी और का हो गा। तुम्हारी पत्नि उसे किसी बर्तन वाले को दे दे गी और बदले में चमचमाती कड़ाही या पतीला ले ले गी। मैं जानता हूॅं कि तुम घर पर अपना रूखा सूखा खा कर आये हो। आराम से खाने में अपना ही आनन्द है। मैं ने भी सुयोधन का मेवा त्याग कर साग विदुर घर चटाई पर बैठ कर खाया था पर वह केवल सन्देश था, सुयोधन को कि वह घमण्ड न करे। परन्तु यहॉं पर इस प्रकार का सन्देश देने की आवश्यकता नहीं है और न ही इस का अवसर है। यह समय अपना कर्तव्य निभाने का है। व्यर्थ में प्रतीक्षा अथवा उपेक्षा करने का नहीं।
अर्जुन उवाच
हे भगवन, आप का कथन पूर्णतः सत्य है। सभी अपने अपने तौर पर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। पर इस में इस बात की सम्भावना रहती है कि होड़ में आवश्यकता से अधिक ले लिया जाये जो बाद में नष्ट करना पड़ सकता है। समय में परिवर्तन हुआ है किन्तु मूल समस्या वहीं है। महाभारत के समय वर्णसंकट की बात थी, अब खाद्य संकट की बात है। पर दोनों ही स्थिति में समाज पतन की ओर अग्रसर होता है।
कृष्ण उवाच
हे वत्स, मुझे ज्ञात हैं कि तुम भविष्य को ले कर चिन्तित हो। परन्तु तुम भूलते हो कि वह बात यहॉं पर लागू नहीं होती है। वधु के पिता ने एक तुम्हें ही नहीं बुलाया है। जैसा तुम देख रहे हो, सब ओर पुरुष और महिलायें ही हैं और उन में कोई बेकार नहीं खड़ा है। सब अपनी अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। तुम्हारे संग्राम में भाग न लेेने से तुझे निमन्त्रण देने वाले पर कोई प्रभाव नहीं पड़े गा। उस ने तो अपना कर्तव्य निभा लिया है। अब समयोंचित कार्य करना तेरे स्वविवेक पर आधारित है।
अर्जुन उवाच
हे सुदर्शनचक्रधारी, क्या आप को नहीं लगता कि इस प्रकार केवल अपना लक्ष्य देखने से कितनी अव्यवस्था हो रही है। इस अफरातफरी को आप एक क्षण में नियम बदल कर समाप्त कर सकते हैं। आप सर्वशक्तिमान है। आप यदि अधित्येयता को आदेश दें तो वह कुर्सियों का प्रबन्ध कर सकता है। इस से सभी को सुविधा हो गी और सम्भवतः भोजन भी बचे गा।
कृष्ण उवाच
हे करुवंशी, तू ज्ञानियों की भॉंति तर्क कर रहा है। किन्तु तू एक ही पक्ष देख रहा है। मैं समाज के नियमों में हस्तक्षेप नहीं करता। मेरे लिये कुछ करना शेष नहीं हैं किन्तु मैं ने मनुष्य को बौद्धिक शक्ति दी है ताकि वह अपना मार्ग स्वयं निश्चित करे। समाज कभी स्थिर नहीं रहता। वह प्रति क्षण बदलता रहता है। कल जो सही था, वह आज गल्त भी हो सकता है। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर करता है। पहले देखते रहे हो गे कि महिलाओं को पीछे रखा जाता था। पुरुष ही सारा पराक्रम दिखाते थे। किन्तु मैं ने इस में विश्वास नहीं किया, इसी कारण शिखण्डी को आगे कर दिया। परिणाम तुम्हारे समक्ष है। पर अब वैसा नहीं है। अब समानता की बात हो रही है।
अर्जुन उवाच
हे युदुवंशी, आप का कथन सही है परन्तु मन बड़ा चंचल है। वह ठहर नहीं ंपाता। परन्तु इस के विपरीत संस्कार हैं जो बदलने पर भी नहीं बदलते। आप उधर देखिये। उस महिला ने कतार के चक्रव्यूह को भेद कर प्लेट प्राप्त कर ली। पुरुष स्वयं ही पीछे हट गये तथा उसे आगे बढ़़ने दिया। पुराने संस्कार ही क्रियाशील रहे।
कृष्ण उवाच
हे धनुर्धर, तू ने सही देखा पर सदैव की भॉंति तुम्हारी दृष्टि पक्षी की ऑंख पर ही रही। यहीं तुम मार खा गये। यदि तुम ने गौर से देखा होता तो पाते कि महिला ने एक नहीं दो प्लेटें उठा ली थीं। जैसे शिखण्डी के पीछे तुम थे वैसे ही उस महिला के पीछे उस का पति था। एक प्लेट उस के लिये थी। लेकिन तुम ने शायद यह भी नहीं देखा कि जब महिला ने अपने पति को प्लेट सौंपने के लिये हाथ बढ़ाया तो बीच में अभिमन्यु ने आ कर उस के हाथ से प्लेट ले ली। महिला का पति देखता ही रह गया। चक्र व्यूह को तोड़ने के एक से अधिक रास्ते रहते हैं, और अभिमन्यु इस में सफल रहा है। अब देखना यह है कि वह प्लेट भरने के पश्चात क्या उसे चक्रव्यूह से बाहर लाने में सफल हो गा अथवा तुम्हारी तरह अपना सूट खराब कर ले गा। यह सब भविष्य में हैं जिसे मैं देख सकता हूॅं पर तुम नहीं देख सकते।
अर्जुन उवाच
हे त्रिकालदर्शी, आप के वचनों ने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिये हैं। अब मैं आप के निर्देश के अनुसार ही आगे बढ़ता हूॅ। कर्मण्येवाधिकारसते मा फलेषु कदाचन। अब चाहे जितना मिले और जैसा मिले और जिस प्रकार मिले, उसी का अपना फल मान कर ग्रहण करूॅं गा।
कृष्ण उवाच
हे महानुभाव, तुम्हारा विचार अति उतम है परन्तु युद्ध में तथा गिद्ध भोज में धैर्य से तथा कूटनीति से काम लेना चाहिये और अपना कार्यक्रम सोच समझ कर तय करना चाहिये। मेरे विचार में इस समय सब का ध्यान तरह तरह के स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों की ओर है। इस समय अभी मिठाई तथा आईसक्रीम के स्थान खाली है। अतः हमें अपना अभियान उधर से ही आरम्भ करना चाहिये। जैसे कि मैं ने पूर्व में कहा था, हमारा आतिध्येय अत्यन्त गरिमामय है अतः भोजन की कमी नहीं हो गी। जब लोग उधर से तृप्त हो कर इधर आये गे तब हमें उधर सुअवसर मिले गा। युद्ध में तथा गिद्ध भोज में सदैव सर्तक रह कर मौके का लाभ उठाना चाहिये जैसे घटोकच्च को कब मैंदान में उतारना है, यह महत्वपूर्ण है, उस की वीरता नहीं। हे महाबाहों, बढ़ो। विजयश्री तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।
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