जीव और आत्मा
वेदान्त का मुख्य आधार यह है कि जीव और परमात्मा एक ही हैं। श्री गीता के अध्याय क्षेत्र क्षेत्रज्ञ में इस का विश्लेषण किया गया है।
इस बात को कई भक्त स्वीकार करने में हिचकते हैं। उन का कहना है कि भक्त तथा ईश्वर एक कैसे हो सकते हैं।
श्री गीता का कथन है कि इस के लिये भेद भावना को दूर करना आवश्यक है। वेदान्त में कई बार आत्मा तथा अनात्मा की बात भी की जाती है। केवल आत्मा ही सत्य है। बाकी वस्तुयें अनात्मा की श्रेणी में आती है तथा मिथ्या हैं।
इस को समझने के लिये सागर तथा लहरों की उपमा दी जाती है। निश्चित रूप से दोनों की जल हैं। लहरें सागर से उठती है, कुछ दूर चलती है और फिर सागर में ही विलीन हो जाती हैं। उन का अपना कोई स्वतन्त्र आस्तित्व नहीं है। यह केवल दो रूप है तथा दो नाम से जाने जाते हैं पर वास्तव में एक ही हैं। आत्मा तथा परमात्मा की भी यही स्थिति है।
श्री गीता के ग्यारहवें अध्याय में ईश्वर के विराट स्वरूप का उल्लेख है। पूरा संसार का ही उस में समावेश है। प्रमा और आत्मा दोनों उपाधि से बंधे हैं। प्रमा ईश्वर उपाधि है तथा जीव शरीर उपाधि तथा इसी कारण वह अलग प्रतीत होते हैं। जव जीव की दृष्टि से देखा जाये तो वह अलग प्रतीत होते हैं किन्तु आत्मा की दृष्टि से देखें तो दोनों एक ही हैं।
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