जाति प्रथा के बचाव में
केवल कृष्ण सेठी
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उन्हें समूह में रहना ही पड़ता है। इस से वे सुरक्षा तथा आवश्यकता पड़ने पर परस्पर सहायता के बारे में आश्वस्त रहते हैं। जब समूह का आकार बढ़ता है, तो उस के भीतर उप समूह बनने आरम्भ हो जाते है। इन उप समूहों के सदस्यों में कुछ विशिष्टतायें आपस में मिलती है किन्तु यह पूरे समूह की विशिष्टत्ताओं के विरोध में नहीं होती। एक और स्वभाविक बात समूहों की आपस में होड़ होना है। यह किसी सम्पत्ति (शिकारगाह, कृषि भूमि, उत्पादित वस्तुओं के लिये बाज़ार) पर दोनों समूहों के दावे के कारण हो सकता है। परन्तु यह प्रतियोगिता या प्रतिस्पद्धा्र केवल किसी बात में उत्कृष्ट होने की भावना को ले कर भी हो सकती है। खेल इस पक्ष का ज्वलन्त उदहारण है।
समय के साथ समूह अधिक संगठित हो जाते हैं विशेषतः तब जब उन्हें किसी बाहरी समूह से खतरा महसूस होता है। ऐसी स्थिति में वह अपने बचाव साधन विकसित करते है। इस से वे यह प्रावधान भी सुनिश्चित करना चाहते हैं कि प्रतिपक्ष को समूह के किसी सदस्य से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष जैसे से कोई सहायता न मिले। इस के लिये सदस्यों पर आपसी रज़ामदी से कई कर्तव्य तथा प्रतिबन्ध आयद किये जाते हैं। कई बार इन समूहों में उप समूळ भी गठित हा्र जाते हैं जो उस के सछसयोंके हित में कार्य करते हैं किन्तु अधिक महत्वपूर्ण बातों में समूह का भाग रहते हैं।
स्वाभाविक रूप से हर समूह का एक नेता होता है जो उस समूह का दूसरे समूहों के साथ अन्तर्किया में प्रतिनिधित्व कर सके। यह अन्तर्किया मैत्रीपूर्ण भी हो सकती है तथा शत्रुवत भी। सामान्यतः समूह का अधिकतम दक्ष मुनष्य को समूह का प्रतिनिधित्व करने के लिये चुना जाता था। इसी प्रकार उप समूहों के भी नेता होता है जो दूसरे उप समूहों से अन्तक्रिया के लिये उत्तरदायी होते हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि समूह अथवा उप समूह का गठन सदैव किसी विशेष प्रयोजन के लिये किया जाये। यह गठन समूह के सदस्यों का सामान्य सामाजिक अन्तर्व्यवहार हेतु भी हो सकता है। दूसरी ओर - यह किसी विशेष कार्य के लिये भी हो सकता है जो एक बार में समाप्त होने वाला हो। यह कार्य लम्बी अवधि तक भी चल सकता है। ऐसा भी सम्भव है कि कार्य अपने आप को स्थायी रूप भी दे दे जैसे कि किसी सामान्य शत्रु के विरुद्ध प्रतिरक्षा की स्थिति हो समूह के नियम तथा सिद्धॉत इन परिस्थितियों में अलग रूप धारण कर लेते हैं।
समूह कुछ व्यक्तियों का भी हो सकता है तथा कुछ परिवारों का भी। इस का विस्तार भी अन्य व्यक्तियों को शामिल करने के लिये हो सकता है। किस आकार तक विस्तार हो गा, इस की कोई सीमा नहीं है। सम्भवतः यदि किसी बाहरी विष्व के व्यक्ति पृथ्वी पर आक्रमण करें गे तो सभी मानव जाति इस साझे शत्रु के विरुद्ध एक ही समूह में आ सकती है।
इतिहासा साक्षी है कि इस प्रकार का समूह निर्माण सभी स्थानों पर होता है। मध्यकालीन युरोप में व्यवसायिक संघ थे, भूदास थे, सामन्त थे, तथा और भी बहुत से समूह थे। धार्मिक समूहों की बात भी सभी स्थानों पर पाई जाती थी, चाहे वे कुल देवता को मानने वाले परिवार तकसीमित हों, अथवा इस्लाम, ईसाई, बौद्ध धर्मावलम्बी की भाूंम विराट समूह के सदस्य हों। स्वभाविक तौर पर हर धर्म आधारित समूह के ईश्वर, आत्मा तथा परलोक के बारे में अपने अपने विचार संकलित कर मान्य किये यये है।
समूह का आकार चाहे कितना भी हो, उन के साँझे विश्वास हो गे अथवा साँझे हित हो गे। यह साँझे विश्वास अथवा हित समूह में भौतिक रूप से कई रूप में प्रकट हों गे। इन्हें हम रीति रिवाज कहते हैं। यह रीति रिवाज समय के साथ दृढ़ होते जाते हैं तथा समूह के सदस्यों द्वारा प्रदत्त शक्ति के अतिरिक्त उन की अपनी ही बाँधे रखने की शक्ति उत्पन्न हो भिजाती है। और अधिक समय बीतने पर रीति रिवाज का प्रारम्भ कैसे हुआ, यह भी स्मरण नहीं रहता तथा यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिये जाते है। ऐसा भी अवसर आ सकता है जब यह रीति रिवाज ही समूह की पहचान बन जाते हैं। शेष साँझे हित तथा विश्वास या तो कमज़ोर हो जाते हैं या फिर समय के चक में खो जाते हैं। परन्तु तब भी रीति रिवाज का बन्धन उतना ही सुदृढ़ रहता है जितना आरम्भ में समूह का निमार्ण करने वाले साँझे हित का हुआ करता था।
समूह की एक और विषेषता समूह के भीतर श्रम का विभाजन है। इस की नींव सम्भवतः विशिष्ट कार्य करने की दक्षता में थी। समूह के नेतृत्व भी ऐसा ही एक विशिष्ट कार्य था जो किसी व्यक्ति को उस कार्य के लिये उपयुक्त मान कर दिया गया था। इसी प्रकार दूसरे कार्य भी विभिन्न व्यक्तियों को आबंटित किये गये।
समूह गठन एक नैसर्गिक घटना होने से यह संसार के सभी भागों से प्रतिवेदित है। विकीपीडिया का कथन है. ‘‘सासानिद समाज अत्यन्त जटिल था। साम्राज्य के अलग अलग सामाजिक संगठनों के लिये अलग अलग विधान थे। इतिहासकारों का मत है कि समाज चार वर्गों में बटा हुआ था। पुजारी (फारसी में अटोबनन), योद्धा (फारसी में आरटेशतरण), सचिवः (फारसी में दबीरान), तथा सामान्य जन, (फारसी में खास्टरयोशन-हूटखेशान)’’
प्रथम शताब्दी में रोमन साम्राज्य के बारे में बताया गया है कि विभिन्न श्रेणियों में सीमायें बहुत कठोर थीं। कानून बना कर ही अलग अलग श्रेणियों के सदस्यों को कपड़े भी अलग अलग ढंग के पहनाये जाते थे। केवल सम्राट ही बैंगनी रंग का बोगा पहन सकता था जब कि सेनिटर स्फेद चोगा पहन सकते थे जिस में लेटस क्लावस होता था जो कम चौड़ा बैंगनी रंग का पट्टट्टा होता था जिसे क्लेवस आगस्टस कहते थे। उच्च वर्ग को पैटरोनी कहा जाता था जब कि निम्न वर्ग वाले प्लेवियन थे। प्लेबियन को दैनिक रूप से अपने पैटरोनी को सलाम करना होता था।
अब हम देखें कि समूह के बारे में यह सिद्धांत भारत में जाति प्रथा पर कैसे लागू होते है। जाति प्रथा को आम तौर पर मनु से जोड़ा जाता है। उस पर अन्यायपूर्ण रूप से यह आरोप लगाया जाता है कि उस ने हिन्दु समाज पर जाति प्रथा थोप दी। वास्तव में वे मूल रूप से केवल उन बातों को संहिताबद्ध कर रहे थे जो उस के समय में विद्यमान थीं। उस ने इस प्रथा का आविष्कार नहीं किया, केवल उस का वर्णन दिया एवं प्रचलित वास्तविक व्यवस्था को लेखबद्ध किया जो काफी पूर्व, सम्भवतः दो एक हजार वर्ष पूर्व, आरम्भ हो चुकी थी।
समूह प्रथा का प्रथम प्रकटीकरण शिकारी तथा कृषकों के रूप में हुआ। शिकार के लिये अधिक योग्यता, अधिक हिम्मत, अधिक स्थिरता तथा समूह के रूप में कार्य करने की अधिक क्षमता चाहिये होती है। इसी प्रकार कृषि के लिये भी विषेष दक्षता आवष्यक थी। जैसे जैसे समय बीता, विशेषज्ञता के कई रूप भी बदलेे तथा इन की आवश्यकता बलवती होती गई। इस प्रकार कई समूह बन गये जो अपने अपने चुने गये कार्य में अधिक दक्ष थे। इस से आगे बढ़े तो इन व्यवसायों के लिये विशेष प्रकार के औजार बनाने की भी आवश्यकता बढ़ीं। इस से नये समूहों का निर्माण हुआ। परिधान, परिवहन इतयादि के लिये भी विषिष्ट समूह बने। चूंकि यह सब कार्य घर पर ही किये जाते थे (उस जमाने में कार्यशाला तो होती नहीं थी) अतः कार्य करने का तरीका बाप द्वारा बेटे को सिखाया जाता था। इस में असामान्य कुछ नहीं था। कृषि में भी तकनीक इसी प्रकार से परिवार के भीतर दी जाती रही। युवा वर्ग अपने वरिष्ठों की निर्माण में सहायता करते थे तथा वरिष्ठ उन के साथ श्रम तथा ज्ञान दोनों बाँटते थे। कुल मिला कर शुद्ध परिणाम यह हुआ कि हर कार्य के लिये उप समूह बन गये। ये अभी भी बृहत समूह के अंश थे। एक उप समूह से दूसरे उप समूह में अन्तरण कोई समस्या नहीं थी। यह सब व्यक्ति के काम के रुझान पर निर्भर करता था परन्तु जैसा कि पहले कहा गया है, प्रकृक्तिजन्य प्राथमिकता अपने समूह में बड़ों के व्यवसाय को ही अपनाने की थी। इस प्रकार यह समूह एक बड़े परिवार के समान ही थे।
भारत में यह उप समूह कब जाति के रूप में परिवर्तित हो गये, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यह एक धीमी प्रक्रिया थी। सम्भवतः जाति तथा उप जातियों का विकास उस समय हुआ जब उप समूह से बाहर शादी करने के संदर्भ में नियम बनाये गये। इस के पीछे प्रेरणा यह ती कि विशेषज्ञता उप समूह में ही रहे। यह स्मरण हो गा कि मनु स्मृति में भी उच्च जाति के पुरुष का निम्न जाति की लड़की से विवाह पर आपत्ति नहीं की गई थी। जैसी स्थिति थी, उस में विशेषज्ञता पुरुष वर्ग के ही पास थी। उन के उप समूह से बाहर विवाह करने पर यह विशेषज्ञता उस समूह से बाहर जा सकती थी। महिलाओं के बाहर विवाह करने में ऐसा कोई जोखिम नहीं था तथा इस कारण से समाज ने विरोध नहीं किया। इस समय समाज में समूह तथा उप समूहों के आस्तित्व के कारण कोई विवादास्पद स्थिति नहीं थी। निम्न समूह के पुरुष द्वारा उच्च रेणी के महिला से विवाह पर कभी कभी कुछ विवादात्मक स्थिति होती थीे जब जाति अतिरिक्त दूसरी बातें सम्बन्धित पुरुष अथवा सम्बन्धित महिला दूसरी बातें विचार में न हों। परन्तु आम तौर पर जीवन सौम्य गति से चल रहा था।
ठस प्रथा में समस्या कब प्रारम्भ हुई और क्यों? समस्या तब उत्पन्न हो सकती है जब एक उप समूह अपने को दूसरों से अधिक उच्च होने का दावा करता है तथा दूसरे उस को मान्य नहीं करते। इस से एक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है जिस का अंतिम परिणाम या तो उक्त समूह दूसरों से वरिष्ठ होने का दावा मनवा लेता है या फिर उसे हार का मुंह देखना पड़ता है तथा अपने दावे को वापस लेना पड़ता है। परन्तु चाहे जीत हो अथवा हार, आन्तिरिक सम्बन्धों में एक दरार तो पड़ ही जाती है। भारत में यह एक अलग तरीके से हआ। वह उप समूह जो बौद्धिक सम्पत्ति में व्यवहार करता था, के उच्च होने की बात दूसरे उप समूहों ने मान ली। दावा करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी। पहले मौखिक रूप से जानकारी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को बोले गये शब्दों से प्रदान की जाती थी। यह श्रृंखला कई षताब्दियों तक चली। बाद में इसे ताड़पत्र इत्यादि के माध्यम से लिखित रूप से भी दिया प्रया जब वह सुविधा उपलब्ध हो गई। इस से ज्ञान का एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को प्रदाय करने की प्रक्रिया में जटिलता आती गई। इस में काफी समय तथा ऊर्जा खर्च होती थी कामण्णार थी, इस कारण सीखने वालों की संख्या में उत्तरोत्तर कमी होती गई। दूसरी ओर ज्ञान का भण्डार में भी वृद्धि होती गई। परिणामस्वरूप जिन को ज्ञान था, उन का महत्व उसी अनुपात में बढ़ता गया। यह बौद्धिक उत्कृष्टता दूसरे समूहों द्वारा स्वीकार की गई। इन बुद्धिजीवियों को कार्रवाई के लिये नेतृत्व करने वालों को परामर्श देने का कार्य भी सौंप दिया गया। इस तरह राजा के पास कुलगुरू होते थे जिन्हें आदर के साथ सुना जाता था और जिन के विचार सामान्यतः मान्य किये जाते थे।
हिन्दु समाज में, अन्य समाजों की भाँति सर्वशक्तिमान ईष्वर को प्रसन्न करने के लिये कुछ रीति रिवाज अपनाना पड़े। आरम्भ में यह पद्धति सरल थी क्योंकि अध्किाकतर लोगों को पूर्ण अथवा ऑंषिक ज्ञान था। किन्तु समय के साथ साथ यह काफी जटिल होते गये। यह केवल कुछ इने गिने चुने व्यक्ति, जो वास्तव में अपने कार्य में दक्षता प्राप्त थे, द्वारा ही निभाई जा सकती थी। उन की दक्षता को स्वीकार किया गया तथा उस का आदर किया गया।
यह प्रष्न उठाया जा सकता है कि पूजा पद्धति को जटिल किस ने बनाया तथा क्यों बनाया। क्या इस के पीछे कोई्र सोची समझी बात अथवा कोई्र षडयंत्र था। आज इस का उत्तर अजीब लगे पर इस पर विचार करना आवष्यक है। वैदिक काल में संस्कृत ही सवग् साधारण की भाषा थी तथा पूजा भी उसी भाषा में थी जिसे समझनेे में कठिनाई नहीं थी। आज जिस प्रकार संस्कृत के ज्ञाता को आमंत्रित करने की आवष्यकता नहीं थी। स्वयं से ही अल्प समय में पूजा सम्पन्न हो जाती थी। स्मृधि की वृद्धि के साथ पूजा पद्धति में भी परिवर्तन आता रहा। वर्तमान में विवाह किस प्रकार आयोजित होते हहैं, यह सब को विदित है। मूल पूजा पद्धति पूर्ववत है किन्तु इस के साथ कई आयोजन जोड़ दिये गये हैं। लाखों नहीं वरन् करोउ़ों खच होते हैं। इन के लिये न कोई षडयन्त्र र्है न कोई आदेष। यह स्मृद्धि का चिन्ह है अथवा माना जाता है। सम्भवतः पूजा पद्धति भी इसी प्रकार किसी विषिष्ट पूव्र कल्पित रूप के विकल्प में जटिलता को प्राप्त होती गई। जब समय अधिक लगने लगा तो विषेषज्ञ, जो अपना समय दे सकते थे, का आवाहन किया गया। इसे आमंत्रित विषेषज्ञों का आग्रह नहीं, अनुकम्पा कहा गया।
क्या इस परिस्थिति का लाभ उठाने का प्रयास नहीं हुआ। इस का उत्तर हॉं में ही देना हो गा। स्थिति तब बिगड़ी जब इस का दुपर्याेग मूल भावना से हट कर ऐसे प्रावधान शामिल करने कर प्रयंास किया गया जिस से दूसरे समूहों की अपने पर निर्भरता को बढ़ाया जा सके। कुछ ऐसे प्रावधान जो आरम्भ में शुभेच्छावों से बनाये गये थे, की व्याख्या इस प्रकार की गई कि वह दूसरे समूहों के विरुद्ध जाती थी। नये रीति रिवाज शुरू किये गये जो पूर्व के सिद्धांतों से पूरी तरह मेल नहीं खाते थे। यद्यपि यह कई बार हुआ तथा इस से संघर्ष की स्थिति भी सामने आई किन्तु भारतीय समाज ने आत्म विश्लेषण का प्रावधान किया है। हर ओर नियन्त्रण एवं संतुलन का प्रावधान किया गया है। ऐसे सुधारक हुए है जो मूल स्थिति और सरल पद्धति की ओर लौटने का संदेश देते थे तथा परम्परा से उन्हें अपना संदेश देने की अनुमति प्रदान की जाती रही।
यहॉं पर यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि हिन्दु समाज में बौद्धिक उप समूह को श्रेष्ठ वर्ग मान्य किया गया किन्तु उन्हें अपनी इच्छा किसी पर थोपने का अधिकार नहीं दिया गया था। इस प्रकार एक बचाव मार्ग था जिस से बिना गम्भीर असमाधेय खण्डीकरण (जैसा कि ईसाईयों में कैजेलिक तथा प्रोटेस्टैण्ड मत में विभाजन के रूप में प्रकट हुआ) के सामाजिक गतिविधियों जारी रह सकती हीं।
यदि समूह को अपने गठन के प्रयोजन को पूरा करना था तो इस के लिये आवश्यक था कि विभिन्न मुद्दों पर, जो समय समय पर सामने आते हैं, के बारे में सदस्य एक मात से कार्य करें। समूह द्वारा ऐसा सुनिश्चित कैसे किया जाता था, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। आरम्भ में कोई औपचारिक व्यवस्था नहीं थी। नेता को विशेष प्रयोजन के लिये चुना जाता था तथा विभिन्न प्रयोजनों के लिये विभिन्न नेता भी चुने आ सकते थे। निर्णय आपस में तर्क वितर्क कर तथा आम राय बना कर लिये जाते थे। जैसे जैसे प्रतिद्वन्दी समूहों के होते हुए आस्तित्व में रहना महत्वपूर्ण प्रश्न हो गया जैसा कि किसी विशिष्ट भूखण्ड के लिये वैसे मतभेद एवं संघर्ष के समय ऐसा व्यक्ति जो प्रतिरक्षा में नेतृत्व दे सकता था, स्थायी नेता हो गया। एक बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर समूह के संरक्षण सम्बन्धी अन्य मुद्दे भी उसे प्रत्यावर्तित कर दिये गये। इस का विस्तार अन्य विषयों में भी होता गया। इस मेंसमूह के निर्धारित नियमों के उल्लंघन के लिये अनुशासन एवं दण्ड भी शामिल थे। उल्लेखनीय है कि अधिकांशतः वास्तविक शक्ति किसी एक व्यक्ति के पास होने के स्थान पर सदस्यों के समूह में थी (जिसे पंचायत कहा गया) यद्यपि निर्णय की घोषणा नेता द्वारा ही जाती थी। उप समूहों में भी इसी प्रकार की व्यवस्था स्थापित होती गईऔर इसे मान्यता दी गई्र यदि यह बृहत समूह के उद्देष्यों के विरुद्ध नहीं थी बल्कि उस की पूरक थी।
यह धारणा है कि हिन्दुओं का जीवन गृह सूत्रों द्वारा प्रचालित है। जन्म के पूर्व से ले कर मृत्यु उपरान्त तक के अपनाये जाने वाले सूत्र निर्धारित है। हर अवसर के लिये शाला गमन, विवाहः मृत्यु के समय कतिपय रीति रिवाज का पालन करना आवश्यक है। हिन्दु समाज में इन सुत्रों के साथ पूजा करने की विशेषज्ञता एक उप समूह को दी गई जिस को बारे में हम पहले बात कर चुके हैं। चूंकि यह पूजा पाठ कतिपय परिस्थितियों में तथा अवसरों पर ही आयोजित किये जाने थे, इस कारण इन का प्रभाव समूह के प्रशासन पर नहीं पड़ा तथा उप समूहों के बीच सम्बन्धों में भी हस्तक्षेप नहीं हुआ। कई उप समूहों द्वारा इन सूत्रों का पालन नहीं किया जाता था किन्तु इस कारण से उन्हें समूह से बाहर नहीं किया गया। तत्वतः समूह के सामजस्यपूर्ण व्यवस्था में इस से बाधा नहीं आई।
यह स्थिति शताब्दियों तक निरन्तर चलती रही। भारत ने बहुत से घमन्तु समुदायों को आकर्षित किया। उन का स्वागत किया गया, यह तो नहीं कहा जा सकतक यह स्वागत सदैव षांतिपूर्वक हुआ, यह तो नहीं कहा जा सकता। संघर्ष तो हुआ किन्तु अन्त क्या हुआ, यह महत्वूर्ण है। समय पर कर उन्हों ने इसी देष के नियम तथा सिद्धाू। अपना लिये तथा उन्हें व्यवस्था ने स्वीकार किया क्योंकि ऐसे करने के लिये समाज में लचीलापन था। नवआगुन्तकों के कई रीति रिवाज को भी अन्य समाज द्वारा अपना लिया गया। उन को इस प्रकार परिवर्तित किया गया कि वे समाज के सामान्य सिद्धांतों से एकरूप हो जायें। जब तक इस्लाम आया, तब तक यह व्यवस्था बहुत लम्बे समय से विद्यमान थी।
इस्लाम इस स्थिति में (सिवाये कुछ जबरन धर्म परिवर्तन तथा लालच (नौकरी इत्यादि) से होने वाले धर्म परिवर्तन क)े मूलतः पूर्ण समाज पूर्व पथ से विचलित नहीं कर पाया। हिन्दु समाज की विविधता में कई नये प्रकार के मतों की अनुमति थी तथा इस्लाम का दर्शन एक विशिष्ट रूप से स्वीकार्य था। वास्तव में एक मुस्लिम विद्वान अब्दुल करीम जिल्ली ने दसवीं षताब्दी में लिखा था कि ‘‘वह परमातमा की पूजा उस के समपूर्ण रूप में करतेे हैंतथा इस में पीर अथवा पीगम्बर का संदर्भ नहीं आता। पवित्र पुस्तकों का प्रकटीकरण परमात्मा द्वारा नहीं वरन् ब्रह्मा द्वारा किया गया है। इस में पाँच पुस्तकें हैं। पांचवीं पुस्तक इतनी प्रभूत है कि इस की प्रभूतता को अधिकतर विद्वान भी नहीं समझ पाते पर जिन्हों ने समझा है वह निश्चित ही मुस्लिम हैं’’।
ऐसे ही विचार स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक मित्र को लिखे पत्र में प्रकट किये थे। उन का कथन है, ‘‘अद्वैत मत, या जिस भी नाम से आप इसे जानना चाहें, धर्म तथा विचार में अन्तिम शब्द है। यदि किसी धर्म के अनुयायी इस समानता के पर्याप्त मात्रा में निकट पहुंचे हैं तो वह इस्लाम है तथा केवल इस्लाम है यद्यपि वे इस के गूढ़ अर्थ के तथा मूलभूत सिद्धांत के प्रति अनभिज्ञ थे। यह है वह मूलभूत समानता का सिद्धांत जो शताब्दियों तक भारतीय सामाजिक जीवन में प्रदर्शित होता रहा है’’। सम्भवतः इसी कारण हिन्दु समाज को इस्लाम में कोई ऐसी बात दृश्अिगोचर नहीं हुई जो उन्हें अपने पुराने पथ से विचलित होने के लिये प्रेरित करतीं
जातिवाद के इस स्थिति के होते हुए भी वर्तमान में जातिवाद हर संगठन में तथा हर अवसर पर आलोचना का शिकार है। इस बारे में विचार कैसे बदले तथा कब, इस के लिये गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।
पहले हम कुछ कल्पित विचारों के बारे में जाने। यह प्रश्न उठाना चाहिये कि यह किस आधार पर कहा जाता है कि आर्य बाहर से आये तथा उन्हों ने द्रविड़ लोगों को खदेड़ दिया (इस में यह स्पष्ट रूप से इंगित किया जाता है कि इस के लिये बल प्रयोग किया गया)। मेरे विचार में एक मात्र तर्क यह है कि आर्य लोगों की भाषा संस्कृत तथा युरोप की भाषाओं में एक रूपता है। इस कारण वह एक ही भाषा के परिवर्तित रूप हैं जो मध्य युरोप के किसी अच्छे क्षेत्र में किसी अच्छे समय में बोली जाती थी। परन्तु यह इस बात का प्रमाण क्यों होना चाहिये कि वह क्षेत्र मध्य युरोप में था या कोई और क्षेत्र था। यह क्यों मान लिया जाये कि आर्य भारत के बाहर से आये थे। यदि वह आरम्भ से ही भारत में होते तथा उन में से कुछ व्यक्ति युरोप चले गये होते तथा अपनी भाषा भी साथ ले गये होते, तब भी परिणाम तो वही होता। उस काल में कोई निश्चित सीमायें नहीं थीं जिस के बाहर जाने के लिये पासपोर्ट लेना पड़ता या बलपूर्वक ऐसा किया जाता। यह कोई मामूली बात नहीं है कि भारत के किसी भी पवित्र ग्रन्थ में इस प्रवास की बात नहीं कही गई है। क्या आर्य जिन्हों ने प्रकृति की शक्तियों का इतने विस्तार से तथा इतने मार्मिक शब्दों में गुण गाये हैं. इतने अकृतज्ञ थे कि अपनी जन्म भूमि की सुन्दरता (कोई भी भूखण्ड सुन्दर दृष्यों एवं वस्तुओं से महरूम नहीं होता) के बारे में वर्णन करना ही भूल गये।
वास्तव में इस कुतर्क के पीछे यह पूर्वाग्रह था कि पष्चिम सदैव पूर्व से आगे रहा है। यदि भारत में भौतिक तथा अध्यात्मिक स्तर पर इतना विकास किया तो इस के पीछे पाष्चात्य योगदान सिद्ध करना आवष्यक था। यह कोई ्रंयोग नहीं है कि जब सिकन्दर लूटमार के लिये पष्चिम से पूव्र की ओर आता है तो उसे महान कहा जाता है। वहीं जब चंगेज़ अथवा हलाकू पूर्व से पष्चिम की ओर उसी इरादे से जाता है तो उसे अत्याचारी कहा जाता है। इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया जाता कि सिकन्दर की मृत्यु के पॉंच वर्ष के भीतर ही उस का तथाकथित साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया जब कि मंगोल राज्य कई षताब्दियों तक चला।
सभी साक्ष्य यह इंगित करता है कि अधिकांश लोग प्रवासी थे तथा बेहतर चारागाहों की तलाश में (शब्दशः नहीं, लाक्षणिक अर्थ में) घूमते रहते थे। भूमि पर्याप्त थी तथा जनसंख्या सीमित। कुछ हज़ार और व्यक्ति आ जायें तो इस से कोई संघर्ष की स्थिति नहीं आती थी जब तक कि वह अपने आप में सीमित रहते थे। समुदाय, जिन को उपजाउ भूमि मिल गई, उन का मुख्य धन्धा कृषि बन गया। उन्हें फुरसत का समय भी मिल गया जिस में उन्हों ने सभ्यता का विकास किया तथा अपने जीवन को उच्च स्तर पर ले गये। उन्हों ने केवल आजीविका की चिन्ता छोड़ कर अपने आस्तत्वि के वास्तविक अर्थ डूढॅंने के प्रयास किये। कोई विकसित धर्म नहीं था जिस में रीति रिवाज तथा घृणा की गुंजाईश होती। न ही हर किसी दूसरे की आत्मा को बचाने, वह चाहे या न चाहे, की भावना थी। कोई भी प्रारम्भिक सभ्यता, चाहे वह सुमेरियन हो, चीनी हो अथवा मिस्र की हो, में दूसरों को अपने मत में परिवर्तित करने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। यह सब तो बाद में हुआ। वैदिक काल में अथवा इस से पूर्व सत्य को प्रचारित करना महत्वपूर्ण नहीं था. न ही इसे दूसरे पर थोपने की आवश्यकता थी। पूरा प्रयास सत्य की खोज पर ही केन्द्रित था। सत्य किसी एक ऋषि को ही प्रकट नहीं किया गया वरन् कई ऋषियों को सत्य के दर्शन हुए। सत्य जानने के कई मार्ग थे जिन्हें मान्यता की गई तथा जिन का आपस में संघर्ष नहीं था।
इस प्रकार के विकास में आदान प्रदान की भावना से आपसी सम्वन्ध बनाये रखना भी शामिल था। तथा यह केवल भौतिक सामग्री तक सीमित नहीं या तरन् विच्यारों में भी निहित था। अन्ततः कुछ विचारों को लगभग सार्वभौमिक मान्यता मिली क्योंकि वह अधिकतर अनुगीक्षित तथ्यों को स्पष्ट करते थे। यह है जो भारतीय संस्कृति आज है। यह कहना अर्थहीन है कि यह द्रविड़ है अभवा आर्य अनवा इस में यूनान का या इस्लाम का कितना प्रभाव है अमवा इस क्षेत्र अनता उस क्षेत्र का योगदान क्या है। चूंकि सिद्धांत देशी थे. अतः उन का प्रत्येक दर्शन सम्बन्धी सर्चा में समावेश है तत्ता उन्हें इस विषय पर के विशाल साहित्य में हर स्थान पर पाया जाता है।
चूंकि किसी केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा कोई मार्गदर्शक सिद्धांत नहीं बनाये गये, अत. हर एक के अपने अपने विचार में तथा इस स्थिति में संशोधन सरलतापूर्वक किये जा सकते थे। यह इंगित किया गया है कि वैदिक काल में जिन देवताओं के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती श्री. उन को पुराणों में उल्लेखित देवताओं से बदल दिया गया था। परन्तु इस का अर्थ यह नहीं था कि पुराने देवता गायय हो गये थे तथा उन का नाम लेना प्रतिबंधित कर दिया गया था। से विद्यमान वे पर नये देवताओं का भी स्वागत था तथा यदि वे अधिक महत्वपूर्ण हो गये तो कोई हर्ज नहीं। यह दृग्विषय आज भी विद्यमान है। नये अवतार आये हैं तथा उन के प्रति श्रद्धा भी उमड़ी है।
एक बात जिस के लिये भारतीय समाज की आलोचना की जाती है. यह है कि इस में बहुत अधिक देखता है। मुस्लिम, ईसाई, यहूदी जोर दे कर कहते है कि ईश्वर एक ही है (यद्यपि वह इन सब के लिये एक ही नहीं है)। यह आलोचना हिन्दु धर्म को केवल ऊपरी स्तर से जानने वालों की है। वास्तव में देवता देखने में अनेक है पर अन्ततः वह एक बहा ही है जो विभिन्न रूपों में प्रकट होता है। आम व्यक्ति भी यह विश्वास करता है तथा इस कारण कोई मतभेद नहीं कि दूसरा व्यक्ति दूसरे रूप को श्रद्धा अर्पित करता है। वैदिक मन्त्र जो सामान्यतः इन्द्र, अग्नि, वायु, ऊषा, वरुण त्था अन्य के बारे में है, ऋत की बात भी करते हैं. जो इन सब में निहित शक्ति है। उपनिषदों में इस विचार को आगे बढ़ाया गया है तथा ब्रह्म के मूल सत् को सामने लाया गया है। ऐसे भी सम्प्रदाय है जो इस अंतिम सत् के बारे में चुप है, न तो वह इस की घोषणा करते है तथा न ही इस से इंकार। पूर्व मीमांसा, जिस में पूजा अर्चना के विस्तृत अनुदेश दिये गये है, में मूलत ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा गया न ही सांख्य दर्शन में इस के बारे में उल्लेख है यद्यपि बाद के सांख्य के विद्वानों ने विभिन्न परमपराओं में रहते हुुये, बह्म को मान्यता दी है। उपनिषदों में एकात्मकवाद का सिद्धांत मान्य किया गया है तथा तब से वही मूल आधार रहा है। और वेदान्त के विभिन्न रूपों में वही मान्य किया गया है।
भारत भई समुदायों के लिये शिकारगाह रहा है। इसकी सम्पन्नता ने सदैव धनलोलुपुओं को आकर्षित किया है। जब वे आये तो उन का स्वागत नहीं किया गया परन्तु वे यही बस गये तो कुछ ही समय के बाद वे इसी का भाग हो गये। चूंकि लचीलापन था अतः उन के विश्वासों को, उन के रीति रिवजों को अपनाने में कोई समस्या नहीं थी। समय बीतने के साथ वह एक दूसरे से अभिन्न हो गये। यह कहना अर्थहीन है कि अमुक व्यक्ति इस कबीले से आया है अथवा उस कबीले से। समस्या तब उत्पन हुई जब आगुन्तकों का आधार किसी अन्य स्थान में देष के बाहर रहा। जब शिकन्दर या तिमूर या चंगेज़ या नादिर शाह आये तो वे केवल लूट का माल से जाने के लिये आये तथा यह एक चाय के प्याले में तूफान जैसा था जो शीघ्र ही शांत हो गया तथा जीवन पूर्ववत चलने लगा।
यहाँ पर यह उल्लेख करना उचित है कि तानाशाह हर काल में होते आये है। शक्तिमान की दूसरों के आधार पर अपने को धनवान बनाने की बात तो उन का आचरण रहा है। रोम, पेरिस, पैट्रोग्राड बंधुआ मजदूरों के खून से ही बनाये गये है। इसी प्रकार ताज महल, तख्त ताउस भी। शोषण तो चिरकाल से ही तथ्यात्मक घटना रही है। यदि भारत वासियों को उन के अर्जित धन से वचित किया गया तो रैड इण्डियन को भी (उन को तो अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा)। तथा अफ्रीकन को भी (उन को अपने शरीर से भी वंचित होना पड़ा जिसे सम्पत्ति की भांति विक्रय किया गया)। सुरीनाम या त्रिनिदाद या अपने घर के अधिक पास असम के कुली सभी लालच के शिकार थे। पर यह सब कहने के बाद उल्लेखनीय है कि जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है, कुछ व्यक्तियों का अन्य के श्रम पर धनवान होने की बात उस सीमा तक कभी नहीं पहुूंच पाई और इस ने समाज की मूल संरचना को प्रभावित नहीं किया।
विश्व को देखें तो समस्यायें तब उत्पन्न हुई जब कुछ व्यक्तियों ने अपने समूह को चयनित समूह मानना आरम्भ किया तथा सभी अन्य को अपना शत्रु। तब या तो पलायन ही रास्ता था यदि शत्रु अधिक बलवान वा या फिर धावे यदि शत्रु कमज़ोर था। यदि शत्रु शक्तिशाली हो तो कर्मकाण्ड को इतना बाध्यकारी नियम बना दो कि इस के उल्लंघन का दण्ड केवल मृत्यु हो। यदि शत्रु कमजोर हो तो उसे अपनी बात मानने के लिये मजबूर कर दो।
यदि धर्म आने से पहले गरीबी थी तो धन प्राप्ति आत्मा को बचाने से अधिक महत्वपूर्ण हो आती है। यदि शत्रु कमजोर है तो यह लूटमार आराम से हो सकती है तथा धर्म का प्रचार भी किया जा सकता है। यदि वह इतना कमजोर नहीं है तो उसे समाप्त करना हो गा यदि वह धर्म परिवर्तन नहीं करता। यदि शत्रु अधिक कमजोर नहीं है तथा लालच को संतुष्ट करने के लिये काफी सामग्री है तो आत्मा को बचाने की जल्दी नहीं रहती है। (इन में से हर विकल्प के इतिहास में उदाहरण मिल जायें गे पर इन्हें यहां नहीं बताया जा रहा क्योंकि यह इस लेख के प्रयोजन से अलग हो गा)। लालच से कई कार्रवाईयों क्रियारत होती है परन्तु कई कार्रवाईयाँ तो एक दम तर्कहीन थी जैसे कि इनक्वीसीशन (अमावनीय अत्याचार जिस के लिये हिन्दी में समानार्थी शब्द भी नहीं है।
परन्तु वापस अपने विषय की ओर लौटें। जब अन्य देषों में आधार रखने वालों ने तथा अपने धम्र को सवो्रपरि मानने का न केवल दावा यिा वरनृ इसे ज़बरदस्ती मनावाने का प्रयास भी किया तो उस के विरोध में समूह के रीति रिवाज की रक्षा के लिये कर्मकाण्ड को दृढ़ करने से कई समुदायों को ने अपने को विलुप्त होने से बचाया। जब यह कर्मकाण्ड जन्म से ही बन्धनकारी बना दिये जाते है तो उन का उल्लंघन हो पाना सम्भव नहीं होता भले ही इस में अपनी जान चली जाये। इस में ही जातिवाद का महत्व है। इस में सदस्यता ऐच्छिक नहीं थी। यह जन्म से ही थी। बाहर निकल जाना विकल्प नहीं था। बाहर निकलने का अर्थ यह हो गा कि जो कुछ भी जीवन का आवश्यक अंग बताया गया है उसे सब भुलाना पड़े गा। किसी एक व्यक्ति के लिये निकलने का अर्थ अपने समाज के सभी लोगों के साथ सम्बन्ध तोड़ने का हो गा। यह अधिकतर के लिये कल्पनातीत लागत थी।
विकल्प के रूप में पूरे का पूरा उप समूह ही धर्म परिवर्तन कर सकता था. किन्तु इस की सम्भावना कम थी क्योंकि नये धर्म में ऐसा कोई आकर्षण नहीं था जिस के लिये पुरानी जीवन पद्धति को तिलाुजलि दी जाये। पुराने रीति रिवाज बांधे रखते हैं। उन देशों में, जहाँ हिन्दु संस्कृति पहुंच चुकी थी किन्तु जातिवाद ने अभी जड़ें नहीं पकड़ी थी, धर्म परिवर्तन सरलता से हो गया। भारत में धर्म परिवर्तन केवल नगरों में हुआ जहाँ वित्तीय आकर्षण बहुत अधिक था या फिर दूर दराज के क्षेत्रों में परन्तु वहाँ नहीं जहाँ जातिवाद दृढ़ता से विद्यमान था। आदिवासी क्षेत्री में भी धर्म परिवर्तन को स्थानीय रीति रिवाज को स्वीकार करना पड़ा तथा यह कह सकते है कि धर्म परिवर्तन केवल नाम के वास्ते था। आत्माओं को बचाना इस में महत्वपूर्ण नहीं था. नाम नये धर्म्र का होना था। वहीं उपलब्धि मानी गई।
क्या जातिवाद से ही शोषण का आरम्भ हुआ? यह धारणा जागृत कराये जाने का प्रयास किया गया तथा बहुत से भारतीय इस बात को मानते भी हैं। परन्तु ऐसी स्थिति नहीं है। जैसा कि पूर्व में कहा गया है, यह संरबूना समान हित रखने वाले व्यक्तियों द्वारा अपने उप समूह बनाने की प्रकिया से उत्पन्न हुई। अभी कुछ दिन पूर्व यह बुलन्द आवाजें सुनी गईं कि बाबा रामदेव, जो योग गुरू है, राजनीति में क्यों आ रहे हैं। अन्ना हजारे ने कहा कि समाज सेवा बाबा रामदेव के लिये नहीं है। वे - बाबा रामदेव - वह बात कर रहे थे जिस की उन से अपेक्षा नहीं थी और इसी कारण इसे गलत माना गया। किसी राजनैतिज्ञ के बेटे, पत्नि अथवा बेटी (और बहन भी) की राजनीति में आना सही है परन्तु एक साधु, एक व्यापारी अथवा एक डाक्टर के लिये नहीं। यह भी जातिवाद का ही एक रूप है। नई जातियॉं - कई उप समूह - बनती रहती है।
एक प्रश्न उठता है। युरोप में व्यवसाय के आधार पर बनी गिल्ड जातियों में परिवर्तित क्यों नहीं हुए। वे वही प्रयोजन सिद्ध कर रहे थे जो भारत में व्यवसाय सम्बन्धी जातियॉं। इस का का समाधान सरल है। जैसा कि पूर्व में कहा गया है, समय के परिवर्तन के साथ नये समूह बनते रहते हैं। औद्योगिक क्रांति के पश्चात गिल्ड असंगत हो गये। उन का स्थान नये समूहों पूँजीपति तथा श्रम द्वारा ले लिया गया। इसी प्रकार उपनिवेशवाद की समाप्ति पर नये समूहों उद्यमी तथा कर्मी का गठन हुआ है। यह प्रक्रिया चलती रहती है। इन गिल्ड तथा समूहों के जाति न बनने के पीछे दो कारण थे। एक इन में कोई भी स्थिति बहुत समय तक निरन्तर नहीं रह पाई। दृढ़ीभूत होने का समय ही नहीं था। भारत में समय - शाश्वत समय - निरन्तरता के लिये प्रचुर था। पश्चिमी विद्वानों की अवधारणा के अनुसार भी जाति प्रथा तीन हजार वर्ष से ऊपर से विद्यमान है। केवल यहूदियों के विषय में, चाहे वे कहीं भी स्थित हो, उन्हें एक समान रीति रिवाज का अपनाना पड़ा ताकि वह समाप्त ही न हो जायें। उन्हें एक अपने में ही बन्द समाज बनाना पड़ा। अपने घर के निकट पारसियों की भी यही स्थिति है। दूसरा कारण था कि उन क्षेत्रों में व्यवसायिक सेवाओं के विस्तार की सम्भावना अत्यन्त सीमित थी। प्रतिकूल जलवायु, कच्चे माल की कमी, गृह उद्योग के लिये कच्चे माल की तलाश में नये स्थानों की खोज, ऐसे व्यवधान थे जिन से से पार नहीं पाया जा सका।
इस सम्बन्ध में सासियन तथा रोमन साम्राज्य की ओर भी ध्यान दिया जाये। इन दोनों क्षेत्रों में समूह जाति में नहीं बदल पाये। वे कई कारणों से नहीं बन पाये। दोनों को ही विस्तार के लिये अथवा बचाव के लिये लम्बे युद्ध लड़ने पड़े। सैनिक सेवा अनिवार्य शर्त हो गई। जय सैनिकों की सामान्य प्रदाय के रास्ते बन्द हो गये, जो समय समय पर हुआ, समूहों को तुरन्त आवश्यकता के कार्य के लिये भंग करना पड़ा। भारत को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। इस का अर्थ यह तो हुआ कि नव आगुन्तकों से हार का मुँह देखना पड़ा परन्तु चूंकि वह बसने के लिये आये थे, इस कारण देश की आन्तिरिक व्यवस्था में बाधा नहीं पड़ी। इस कारण समूह जातियों में बदल गये। गुणवत्ता की दृष्टि से मुस्लिम धावे अलग प्रकार के थे परन्तु जब तक मुस्लिम धावे प्रारम्भ हुए तब तक संरचना नींव पकड़ चुकी थी। यह संरचना धर्म परिवर्तन के विरोध में तथा मुस्लिम राजनैतिक शक्ति के उत्थान के विरुद्ध प्राचीर बन कर खड़ी हो गई। जातिवाद तो वहीं रहा परन्तु हिन्दु योद्धा मुस्लिम राजनैतिक उत्थान के सैलाव को नहीं रोक पायें। यद्यपि बीच बीच में पूरे समय इस के प्रयास होंते रहे (दक्षिण में विजयनगर राज्य, मेवाड़ में महाराना प्रताप, छतरपुर में छत्रसाल, दिल्ली के निकट सूरज मल जाट, मराठवाड़ा में शिवा जी)। परन्तु धर्म परिवर्तन के विरुद्ध प्रतिरक्षण में जातिवाद काफी हद तक सफल रहा।
एक और आलोचना है कि जातिवाद शोषण को पोषित करने के लिये आरम्भ किया गया था। यह बाह्मणों द्वारा थोपा गया ताकि वह अपनी स्थिति का लाभ उठा सकें। इस से अधिक कोई बात सत्य से परे नहीं हो सकती। प्रथमतः यह थोपी नहीं गई थी। ऐसा नहीं कि एक सुहानी प्रातः को किसी ने ऐसा सोचा तथा इस के बारे में आदेश जारी कर दिये। यह तो समय के साथ विकसित हुई। दूसरे भारत में जातिवाद का अर्थ शोषण नहीं था। यदि शोषण था तो वह शासक द्वारा शासित का था (इस में जाति या धर्म की भूमिका नहीं थी)। समूह के रूप में ब्राह्मण कभी भी उस स्थिति में नहीं थे। वह षासक के रूप में कभी रहे नहीं। उन्हें शोषण के लिये दोषी ठहराना अर्थहीन है। तथा जब कभी उन्हों ने परोक्ष रूप से भी इस को प्रयास किया, इस का विरोध हुआ। यह भारत की एक और विशेषता है। ऊपर इस बारे में कहा गया है कि हिन्दु घर्म में आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था का प्रावधान है। सुधारक सदैव जीवन का अंग रहे हैं। बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, चौतन्य महाप्रभु, नामदेव, रविदास, दयानन्द सभी इस संरचना के ही अंग थे। उन्हों ने उने सभी कर्मकाण्ड के प्राचुरता का विरोध किया जो कि अत्यन्त बोझिल हो चुके थे (पर उन्हों ने कर्मकाण्ड का सिद्धांतः विरोध नहीं किया। इस के स्थान उन्हों ने सरल कर्मकाण्ड बनाये पर बनाये अवश्य तथा यह बात सभी समूहों, सभी धर्मों के लिये सही है)।
इसे एक दूसरे दृष्टिकोण से देखें। चूंकि समूह अचवा जातियाँ व्यवसाय के आधार पर बनाये गये थे, इस कारण वे व्यवसाय दूसरे समूहों के लिये अवैध करार दिये गये। परन्तु जीवन के लिये सब की आवश्यकता थी। इस का अर्थ सह आस्तित्व तथा सहयोग था। रीवा क्षेत्र में भूमि ब्रह्माणों के पास है किन्तु उन को हल चलाने की अनुमति नहीं है। इस का मतलब दूसरे वर्ग के लिये काम हो गया - परस्पर निर्भरता का स्पष्ट उदाहरण। कोई भी जाति बेकार नहीं थी। हर एक के लिये कोई कार्य करने का दायित्व था। आरम्भ में व्यवसाय बदलने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। मौर्य वश का सैनापति ब्राह्मण पुष्यमित्र था जिस ने अंतिम मौर्य राजा की हत्या के बाद राज्य पर अधिकार किया। वर्तमान अफगानिस्तान का शाही वंश का राजा जयपाल ब्राह्मण था। यही स्थिति विन्धया शक्ति की थी (नन्दी वरमन में स्थित वाकाटाक वंश, काँची में पल्लव वंश)। यह परम्परा मराठा काल में पेश्वाओं के माध्यम से निरन्तर रही। दूसरी ओर वे जो अवतार मान्य किये गये राम, कृष्ण, बुद्ध सभी क्षत्रीय थे। उन्हें यह मान्यता देने वाले बाह्मण ही थे। तथा ऋषियों की श्रेणी में शामिल किये गये व्यक्ति सभी समुदायों से थे उदाहरण वाल्मीक। संस्कृत के सब से महान कवि, कालिदास, कुरुवा जाति के थे, जिसे शूद्र जाति बताया जाता है। दोनों को कोई समस्या संस्कृत में महान ग्रन्थ लिखने में नहीं हुई। यह बेपर की बात कि ब्राह्मण से इतर जातियों को संस्कृत सीखने की मनाई थी। यह केवल एक सफेद झूट है। पाम्पा तथा राष्णा जैन समुदाय से दो कवि थे जो कन्नड़ तथा संस्कृत दोनों में प्रचण्ड विद्वान थे। राण्णा का जन्म चूड़ी बेचने वालों के वंश में वर्ष 949 में हुआ था तथा वह चालुक्य राजसभा में कवि वक्रवर्ती के स्तर तक पहुंचे। संतों में रविदास, घासीदास, कबीर किस जाति के थे, यह ध्यान रखा जायें।
यह तर्क भी पूर्णतया असत्य है कि निम्न जातियों को शिक्षा से वंचित रखा गया था। वर्ष 1623 में इतालियन यात्री पीटरो डेल्ला वाल्ले ने ग्रामीण शालाओं का एक विस्तृत विवरण दिया है। इब्न बाटूटा (1333-45) अभिलिखित करते हैं, ‘‘मैं ने हनूर में बालिकाओं को शिक्षा देने के लिये 13 शालाये तथा बालकों के लिये 23 शालाये देखीं। राबर्ट डे नेल्ली अपने 1610 के एक पत्र में बताते है कि मदुरै में 10,000 छात्र थे जो अध्यात्म विद्या तथा दर्शन की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। भेद भाव तो था. इस में संदेह नहीं है। सुधारकों को प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा परन्तु चूंकि धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि थी जो एक सार्वभौमिक आत्मा की बात का प्रचार करती थी अतः यह (युरोपीय) अत्याचार इनक्वीजीशन की सीमा तक नहीं पहुंची। न तो कोई काफिर थे और न कोई विधर्मी जिन्हे समाप्त करना अनिवार्य था। न ही कोई मुनकर वे और न ही अपधर्मी जो दया के कतई पात्र नहीं थे।
जाति प्रथा अचानक इतनी घृणित क्यों बन गई तथा यह कब हुआ। अंग्रेजी शासकों में इस के बारे में जो भूमिका अदा की, उस के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है। संख्या में वे अत्याधिक कम थे अतः उन की प्रभुता षडयन्त्रों तथा शासित वर्ग के बीच बिखराव पर ही निर्भर थी। जब धर्म प्रचारक कतिपय सीमान्त क्षेत्र को छोड़ कर कुछ अधिक प्रभावित नहीं कर पाये तो बुद्धिपलट का आसरा लिया गया। मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि उसे ऐसे व्यक्ति चाहिये जो दिखने में तो हिन्दुस्तानी हो परन्तु सोचे अंग्रेजों की तरह। यह तर्क दिया गया है कि अग्रेजी शिक्षा इस कारण आरम्भ की गई कि उन्हें लिपिकीय पद भरने थे। यह भी केवल सघन दुष्प्रचार का भाग था। वास्तविक प्रयोजन तो हिन्दुस्तानियों के मन को भ्रष्ट करना था। पहले प्रयास किया गया कि धर्म के नाम पर विभाजन करवाया जाये। इस के बारे में काफी चर्चा हो चुकी है तथा यहां पर उस की पुनरावृति की आवश्यकता नहीं है। इस का परिणाम विभाजन में हुआ और लाखों ने जान गंवाई तथा अपना स्थान छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। । दूसरा आधार चुना गया तथा कथित आर्य तथा द्रविड में घृणा फैलाने का। आर्य आक्रमणकारी बना दिये गये तथा द्रविड दमन के शिकार। इस में इस तथ्य को जानबूझ कर अनदेखा किया गया कि महाकाव्य में तथाकथित द्रविड़ों की उच्च तथा विकसित सभ्यता की भूरी भूरी प्रशंसा की गई है। लका एक सम्पन्न राज्य था। रावण शिवभक्त था जो कैलाश पर्वत पर शिव जी को प्रसन्न करने के लिये गया। महा प्रतापी बाली दानवीर था।
राजगोपालाचारी में अपनी ‘रामायण’ में हनुमान के लंका प्रवेश का वर्णन करते हुए कहा कि ‘‘कुछ परों में मंत्रों का उच्चारण हो रहा थाः कुछ अन्य में वैदिक ऋचायें श्रवणित हो रही थी। गलियों में लोग अपने विशिष्ट धार्मिक कार्य कर रहे थे। ...... इस प्रकार हनुमान ने देखा कि जनता विभिन्न क्षेत्रों से आये हुए प्रतीत होते थे जहाँ की जलवायु भी अलग अलग थी।... ’’ं भारत में हमेशा से यह विविधता रही है और यह कहना सही नहीं है कि वैदिक काल में आक्रमणकारियों तथा रक्षात्मक बलों में संघर्ष की स्थिति थी। इन्द्र के नेतृत्व में आर्य का वृत्र के नेतृत्व में द्रविड़ों के युद्ध का जहाँ तक सम्बन्ध है, महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक ‘‘दी सीक्रेट आफ वेद’’ में दर्शाया है कि यह कथा वास्तविक युद्ध की नहीं है वरन् एक नीति कथा है जिस में अच्छाई तथा नैतिकता की शक्तियों की अंधेरे की शक्तियों पर विजय वर्णित है।
एक बार फिर बुद्धिपलट की बात पर लौटते हुए, उत्तर तथा दक्षिण में विभाजन का प्रयास किया गया जिस में एक को दमनकारी तथा दूसरे को उस का शिकार दिखाया गया। संस्कृत तथा तमिल भाषा में मतभेद उत्पन्न करने के लिये विशेष प्रयास किया गया, यह दावा करते हुए कि तमिल संस्कृत से अधिक प्राचीन है। जहाँ संस्कृत तथा युरोपीय भाषाओं में समरूपता का प्रयोग यह दशनि के लिये किया गया कि आर्य आक्रमणकारी (?) मूलतः युरोप के रहने वाले थे, वहीं उत्तर तथा दक्षिण की भाषाओं में समरूपता, जो कि साँझी शब्दावलि से कहीं अधिक है तथा वाक्य रचना, व्याकरण, कारक चिन्हो तथा ऐसी अन्य बातों तक जाती है, को जान बूझ कर अनदेखा किया गया क्योंकि इस से सिद्ध होता कि वे सब एक ही जननी भाषा से उत्पन हुई हैं।
चाहे जो हो, तथ्य यह है कि समय के बीतने के साथ संस्कृत को बौद्धिक कार्य के लिये सम्पर्क भाषा पूरे देश में मान लिया गया। इस ने स्थानीय भाषाओं का विस्थापन नहीं किया तथा न ही करने का प्रयास किया। जैन तथा बौद्ध मत ने अपना प्रचार अभियान कमशः प्राकृत तथा पाली से किया, पर उन्हों ने बाद के ग्रन्थों में संस्कृत को अपना लिया। आदिशंकर ने इस भाषा का प्रयोग पूरे देश में उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम के भ्रमण में किया। सामान्य तौर पर भाषायें अवधि पा कर परिवर्तित होती रहती है जैसा कि वैदिक संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में हुआ। पाणिनी को धन्यवाद है कि उस ने संस्कृत में इस परिवर्तन की संप्रवृति पर लगाम लगाई तथा संस्कृत उसी रूप में अभी भी चल रही है तथा पूर्व काल की पुस्तकें अभी भी समझी जा सकती हैं। यह आज भी भारत को एक सूत्र में पिरोहे हुए है तथा भूत काल से भी इस का सम्बन्ध बनाये हुए है।
इस के बाद विभाजन का एक और मुद्दा मैदानों तथा पहाड़ों एवं वनों में रहने वालो के बीच प्रयोग में लाया गया। यह दावा किया गया कि आर्य लोगों ने उन्हें अपनी भूमि से बेदखल कर दिया तथा उन्हें पर्वतों एवं वन में धकेल दिया। यह मान्य है कि यहाँ पर अधिक भार धर्म परिवर्तन पर था न कि संघर्ष आरम्भ करवाने का क्योंकि इस में उन्हीं को इसे काबू में करने के लिये भी प्रयास करना पड़ता क्योंकि क्षेत्र अक्षरशः चिन्हित नहीं थे।
आपस में विभाजन के प्रयास में तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा गया तथा दलित जातियों एवं कल्पित दबंग जातियों में संघर्ष आरम्भ करवाने का प्रयास किया गया। विभाजित निर्वाचक मण्डल का विचार इस अन्तर को स्थायी बनाने के लिये ही सोचा गया था। गाँधी तत्था अम्बेडकर की दूरदृष्टि को धन्यवाद है कि यह प्रयास सफल नहीं हो पाये। परन्तु जो अंग्रेज नहीं कर पाये, वह अब हमारे राजनैतिज्ञों द्वारा किये जाने का कुप्रयास किया जा रहा है। अगले चुनाव से आगे जिन की दृष्टि जाती ही नहीं है और इस बात के प्रति पूर्णतया उदासीन कि वे कितनी हानि देश तथा समाज की कर रहे हैं, वह जाति के आधार पर दावों का सर्मधन कर रहे है। आरक्षण जो कभी कुछ समूहों तक ही सीमित था तथा इरादा था कि यह सीमित समय के लिये हो गा, को अनिश्चित काल के लिये बढ़ा दिया गया है तथा इस का विस्तार नये समूहों में भी किया गया है।
जले पर नमक छिड़कने के माफिक निर्णय लिया गया है कि जाति के आधार पर जनगणना की जाये गी। यह उल्लेख करना उचित हो गा कि अंतिम जाति आधारित जनगणना वर्ष १९३१ में हुई थी। उस के पश्चात इसे सम्भवतः १९३२ में पूना पैक्ट के प्रकाश में चालू प्रजापतिक नहीं रखा गया। इसे समाप्त किया गया था क्योंकि इस का कोई संगठनात्मक, प्रषासनिक अथवा नैतिक आधार नहीं था तथा आज भी नहीं है।
इस कथानक का सब से दुर्भाग्यपूर्ण अंग यह है कि हमारे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इन कुविचारी राजनैतिज्ञों के साथ हाथ मिला लिया है। एक तरह से उन्हें इस के लिये दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता है क्योकि बुद्धिपलट की यह प्रकिया तो बचपन से ही आरम्भ कर दी जाती है। जातिवाद को ऊंची जाति वालों द्वारा नीची जाति वालों का शोषण करने के लिये ही बनाया गया बताया जाता है। सुनिश्चित व्यवस्था के अन्तर्गत गल्त बातो पर जोर दे कर ऊंची जाति वालो के मन में दोषभावना भर दी जाती हैं। उन को समझाया जाता है कि उन्हें भूत काल के इस पाप का परायष्चित करना है। उसी तरीके से तथा कथित नीची जाति के सदस्यों में ऊंची जाति के विरुद्ध क्रोध की भावना उत्पन्न की जाती है। मार्क्सवादी, जिन का पूरा सिद्धांत ही शोषण की अवधारणा पर आधारित है, इस दृष्टिकोण के प्रति अपना योगदान देते है।
दुर्भाग्यवश नेहरू तथा उन के उत्तराधिकारी इन्दिरा गाँधी के शासन काल में मार्क्सवादी इतिहासकार तथा षिक्षाविद् छाये रहे। सभी पुस्तकें, विशेषतः इतिहास तथा साहित्य की पुस्तकें एक पक्षीय ही रहीं। मार्क्सवादी इतिहासकार यह दावा करते हुए कि वे वस्तुनिष्ट अध्ययन कर रहे है, जान बूझ कर विद्यार्थियों के मन में यह शंका स्थापित करते है कि क्या वास्तव में हमारे भूतकाल में कुछ भी अच्छा था। यह वास्तव में वस्तुनिष्ट अध्ययन के अतिरिक्त सब कुछ है। किसी अवधारणा के सही होने का प्रमाण यह होता है कि क्या वह समय की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकती है। मार्क्सवादी सिद्धांत को समय ने एक तरफ उठा कर फेंक दिया है। दूसरी ओर जातिवाद प्रथा तीन हजार वर्ष बल्कि इस से भी अधिक समय से विद्यमान है। इसे समाप्त करने के प्रयास किये गये थे परन्तु समय ने उन को असफल कर दिया। जो धर्म दावा करता है कि वह विभिन्न समुदायों में भेद भाव नहीं करता, समुदायों का आपस में संघर्ष को रोक नहीं पाता। सैयद, शेख, पठान, मलिक, मोमिन, मन्सूर, रायीन, कसब, राकी, हज्जाम, धोबी तथा अन्य कई जातिवादी नाम मुसलमानों में पाये जाते हैं। हम दीवारों पर यह नारा पढ़ सकते हैं कि ष्दलित मुसलमान को रैजर्वेशन न देना संविधान के साथ धोका हैष्। दलित ईसाई अपने अधिकार चाहते हैं।
जातिवाद इन में भी प्रवेश कर चुका है क्योंकि यह जीवन का यथार्थ है। यह अपने में बुरा नहीं है। इस ने शताब्दियों तक समाज को स्थिरता प्रदान की है तथा आगे भी करता रहे गा। इस के दुर्पयोग के विरुद्ध आवाज़ उठाना हो गी, प्रथा के विरुद्ध नहीं। कहावत है कि गंदले पानी के साथ बच्चे को भी बाहर मत फैक दो। आवश्यकता इस बात की है कि इस स्थिति को भारतीय नज़र से देखा जाये न कि उन रंगीले चश्मों के माध्यम से जो हमारे भूतपूर्व शासकों ने हम को थमा दिये हैं। उन का निहित स्वार्थ था कि वे स्थिति को इस प्रकार दर्शायें कि हम निम्न कोटि के दिखें, तथा हम में भूतकाल के प्रति वितृष्णा एवं घृणा की भावना उत्पन्न हो। वामपंथी बुद्धिजीवियों का भी, अपने ही कारणों से, लक्ष्य वाही है - हमारे भूत काल को नीचा दिखाना। वह भी मार्क्सवादी चश्मे पहने हुए है। मार्क्सवादी सिद्धांत फ्राँस तथा जर्मनी की स्थिति पर आधारित थे। रूस तथा चीन ने जब इन्हें अपने देशों में लागू किया तो अपनी संस्कृक्ति तथा अपने इतिहास के पुष्ट आधार के अनुरूप इस में आवश्यक परिवर्तन कर लिये थे। वहां पर प्रयुक्त साम्यवादी विचार उस मार्क्सवादी सिद्धांत से काफी भित्र थे जिस में किसानों की स्थिति पर विचार ही नहीं किया गया था। इन देशों के भारतीय प्रतिरूप पुरानी मार्क्सवादी अवधारणा को अपने गले से लगाये हुये हैं तथा अपनी भारतीय परम्परा तथा रीति रिवाज को झुटला कर प्रयोग में लाना चाहते है। यह स्मरण हो गा कि ई एम एस नम्बूदरीपद ने एक बार अपनी एक पुस्तक में भारत में जातिवाद की भूमिका को भी मान्य किया था। हमें यथार्थवादी होना चाहिये। भूत काल को केवल इस कारण से निन्दित नहीं किया जाना चाहिये कि वह भूत काल था और क्योंकि कोई हमें, अपने ही पूर्वाग्रहों से. ऐसा करने को कहता है। वस्तुनिष्ट रूप से सोचें, यह आज समय की मांग है। अपने भूतकाल से बल प्राप्त करें तथा इस से आगे बढ़ने का प्रयास करें।
भविष्य में क्या होगा? एक दृष्टिकोण का हम वर्णन कर चुके हैं कि हमें पूर्व के कृत्यों के लिये पष्चाताप करना हो गा। इस का हम ने खोखलापन देखा है। दूसरा दृश्टिकोण है कि जातिवाद ने देश तथा धर्म की रक्षा में अपनी भूमिका निभा ली है। अब इस प्रथा को निरन्तर रखने को कोई प्रयोजन नहीं है। औद्योगिक कांति ने सामाजिक समूहों का रूप पश्चिम में बदल दिया है। यह विश्वास करने को कोई कारण नहीं है कि भारत में भी ऐसा नहीं हो गा। ज्ञान युग का आर्विभाव, नगरीकरण की बढ़ती गति इस को सुनिश्चित कर ले गी। तीसरा दृष्टिकोण कहता है कि प्रजातन्त्र में सुशासन हेतु सदैव दबाव समूहों की आवश्यकता रहती है। जातियॉं यह भूमिका निभा सकती है। वह बनी बनाई है तथा इस कार्य को सरलतापूर्वक अपना सकती है। अभी भी विभिन्न प्रकार की माँगें जाति के आधार पर की जा रही है उदाहरणतया गुजर तथा जाट समुदायों ने इस का आरम्भ कर दिया है। अन्य जातियों भी है भले ही वे अभी चकाचौंध करने वाली स्थिति में नहीं हैं। इन दबाव समूहों (कुछ लोग इन्हें लाबी कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि अमरीका में यही नाम जो है) की उपयोगिता प्रमाणित हो चुकी है। भारत में यह आज भी हो रहा है। तथाकथित कारपोरेट इण्डिया शासन की नीतियों को प्रभावित करने के लिये ऐसा कर रहे हैं। यह एक नई जाति के रूप में उभर कर आ रही है परन्तु इन के साथ पारिवारिक विरासत का लाभ है। राजनैतिज्ञ अपने में ही एक जाति या वर्ग बन गये हैं जिन के पास सिवाये राजनीति करने के कोई धन्धा नहीं है। इस जाति को चुनौती देने के लिये एक नई जाति उभर रही है जो अपने को सभ्य समाज कहती है (जैसे कि शेष सभी असभ्य है)। जातियाँ तो एक रूप में अथवा दूसरे रूप में रहने ही वाली है। सर्वाेत्तम बात यही हो गी कि उन का उपयुक्त उपयोग किया जाये तथा उन को वर्तमान युग की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जाये। भारत अपनी इसी पुनर्सर्जनशक्ति
क्ी बदौलत बचा रहा है। जैसा कि इल्लामा इकबाल ने कहा था, “कुछ बात है कि हस्ती मिटती हमारी, सदियों रहा है दुश्मन जोर जमाँ हमारा’ यह दौहराना अनुपयुक्त नहीं हो गा कि हमें अपने भूत काल से ही अपने विचार बनाने चाहिये न कि उस पाश्चात्य अवधारणा के आधार पर, जिस में व्यक्ति ही समाज का केन्द्रीय बिन्दु है। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इण्डिया में लिखा था कि ‘‘भारतीय सामाजिक संरचना ने भारतीय संस्कृति को आर्श्चयजनक स्थिरता प्रदान की है’’। उन्हों ने सर जार्ज बर्डवुड का कथन शामिल किया है कि ‘‘जब तक हिन्दुओं में जाति प्रथा है, भारत भारत रहे गा। जिस दिन उन्हों ने इस से मुँह मोड़ लिया, फिर भारत नहीं रहे गा’’ भारत को तोड़ने के प्रयास जारी है। हमें इसे अपनी पूरी शक्ति से रोकना है।
हम अपनी बात स्वामी विवेकानन्द के कथन से समाप्त करें। उन्हों ने कहा, ‘‘जाति बहुत अच्छी वस्तु है। जाति ही वह मार्ग है जिस पर हम चलना चाहते हैं। संसार में कोई भी देश जाति से विहीन नहीं है। भारत में हमारा प्रयास है कि हम हर एक को ब्रह्म बनायें। ब्रह्म ही मानवता का आदर्श है। हमारा आदर्श अध्यात्मिक संस्कृति तथा त्याग का ब्रह्म है।
बुद्ध से आरम्भ कर राम मोहन राय तक सभी ने यह गल्ती की है कि उन्हों ने जाति को एक धार्मिक संस्था मान लिया है। उन्हों ने धर्म और जाति को एक साथ गिराने का प्रयास किया और असफल रहे। परन्तु पुजारियों के सभी उन्मत प्रलाप के बावजूद जाति केवल परिष्कृत सामाजिक संस्था है।
जाति एक नैसर्गिक व्यवस्था है। जाति अच्छी है। यह जीवन को सुलझाने के लिये एक मात्र प्राकृक्तिक मार्ग है। मानव अपने को समूहों में बाँटते हैं, तथा आप इस बात से विलग नहीं हो सकते। आप जहाँ भी जाओ गे, वहीं पर जाति हो गी। यह समाज की प्रकृक्ति है कि वह अपने आप को समूहों के रूप में गठित करती है। ’’(कास्ट, कल्चर एण्ड सोशलिज्म अद्वैत आश्रम, कोलकाता जैसा सी जी श्रीनिवासन ने अपनी पुस्तक ‘लँगुएज, कल्चरल हिस्टरी आफ इण्डिया ओरियेण्ट पब्लीकेशनस दिल्ली’ से उल्लेखित किया है)
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