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जातिगत जनगणना

  • kewal sethi
  • Oct 30, 2024
  • 15 min read

जातिगत जनगणना

कुछ फुटकर विचार

केवल कृष्ण सेठी

16 अकतूबर 2024

कुछ समय से विभिन्न राजनीति दल जातिगत जनगणना की बात ज़ोर शोर से कर रहें हैं। उन की मान्यता है कि सामाजिक न्याय के लिये यह अनिवार्य हैं कि प्रजातन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को बराबर का अवसर मिले। संविधान में यह प्रावधान तो किया गया है कि भारत के सभी नागरिक बराबर हैं किन्तु साथ ही यह भी जोड़ दिया गया है कि कमज़ोर तबके को आगे लाने के लिये सकारात्मक भेद भाव किया जा सकता है। इसी के चलते अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जन जाति को मुख्य धारा से अलग रखा जा कर नीतियाँ बनाई गईं। आरम्भ में इसे अनुभवहीन सदस्यों ने इसे दस वर्ष के लिये रखा किन्तु फिर इस अवधि को बढ़ाते चले गये तथा अब यह संविधान का लगभग स्थायी अंग बन बई है।


कालान्तर में यह ध्यान में आया कि सामाजिक न्याय के लिये केवल अनुसूचित जाति तथा जनजाति का उत्थान ही काफी नहीं हैए समाज के और भी तबके हैं जिन्हें सहायता की आवश्यकता है। इस का आभास तो स्वतन्त्रता के प्रथम वर्षों में ही हो गया था जब काका कालेलकर के अध्यक्षता में बनी समिति ने स्वतन्त्रता के आरम्भिक काल में ही 2399 समुदायों की पहचान की जिन्हें पिछड़ा माना जा सकता था। परन्तु इस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। वर्ष 1979 में फिर एक बार विचार आया कि कुछ किया जाना चाहिये अतः श्री मोरार जी देसाई के प्रधान मन्त्री काल में श्री मण्डल की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया। मण्डल आयोग ने 1980 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिस में 3742 पिछड़ा वर्ग की जातियाँ तथा 2ए108 अधोमुख जातियों की पहचान की गई। सरकार बदलने के कारण इस पर कार्रवाई नहीं हो पाई। 1980 में श्री व्ही पी सिंह के कार्यकाल में इसे पुनर्जीवित किया गया तथा पिछड़े वर्ग के लिये 27 प्रतिषत आरक्षण किया गया।


इस के पष्चात माँग बढ़ती गई। कई जातियों ने पिछड़े वर्ग में शामिल होले की माँग की तथा अन्दोलन किये। राजस्थान में गुर्जर और अभी महाराष्ट्र में मराठा विषेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अन्य राज्यों में इस बात पर आपत्ति की गई कि अमुक जाति विशेष को अधिक लाभ मिल रहा है। अतः आरक्षण के अन्दर आरक्षण किया जाना आवश्यक है। दूसरे 27 प्रतिशत आरक्षण काफी नहीं है क्योंकि पिछड़ी जाति वालों की संख्या बहुत अधिक है। इसी के फलस्वरूप यह माँग सामने आई कि जातिगत सर्वेक्षण कराया जाये ताकि विभिन्न जातियों की वास्तविक संख्या पता चल सके और आरक्ष्ण का लाभ उसी अनुपात में मिलना चाहिये। पिछले लोक सभा चुनाव में इस के लिये व्यापक रूप से माँग की जाने लगी। और निश्चित है कि इस का लाभ सत्ता से बाहर वाले दलों को मिला।


भारत का जब भी ज़िकर आता हैए हिन्दु धर्म का ज़िकर आना तो अनिवार्य है हीए और हिन्दु धर्म का नाम आते ही जातिवाद का ज़िकर भी आ ही जाता है। हिन्दु शब्द के साथ जातिवाद अभिन्न सा प्रतीत होता है। वैसे दूसरे धर्मों में भी अलग अलग समूह हैं और ऐसे भी है जिन की आपस में नहीं बनती। शिया सुन्नी में स्थायी बटवारे से कौन अनभिज्ञ है। परन्तु सुन्नी में भी फिरके हैं। ऊँची जाति में अशराफ आते है और निम्न जाति में अजलाफ हैं जिन में बहुमत आ जाता है। इशराफ में भी सैयद हैंए अन्सारी हैंए शेख हैंए तुर्क हैंए और अन्य हैं। ईसाईयों में कैथोलिकए प्रोटैस्टैण्टए प्रैसबाईटेरियनए आर्थीडाक्स इत्यादि कई फिरके हैं पर इन की बात नहीं होती है। इस में कोई शक नहीं है कि यह एजैण्डा संचालित कार्यक्रम है जिस का आरम्भ ब्रिटिश दिनों में हुआ तथा उन्हीं के विचारों से पोषित वर्ग इसे बनाये हुये है।


यह लेख जातिवाद के आरम्भए उस के सुदृढ़ीकरण तथा उस के परिणाम से सम्बन्धित नहीं है। इस में केवल आज की स्थिति का आंकलन है। मेरी मान्यता है कि जातिगत भेद भाव की बात सर्वदा केवल दबाव लाने की बात है। अम्बेडकरए जो गैर दलित लोगों के कारण विद्वान बन पायेए और जिन की पत्नि भी गैर दलित थीए मनुस्मृति के सब से बड़े आलोचक बन गये। एक स्थान पर उन्हों ने स्वीकार किया कि वह संस्कृत से अनभिज्ञ हैं तथा केवल अंग्रेज़ी में अनुवाद ही पढ़े हैं। आप पढें गे तो पायें गे कि मनु स्मृति में अवाँछित बातें हैं और बहुत सी हैं पर उस में कुछ उत्तम विचार भी हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि इतिहास में कभी भी मनुस्मृति के अनुसार शासन किये जाने की बात नहीं आई है। पर शासक के सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होने की बात बार बार आई है। ;उस समय के धर्म थे हिन्दुए बौद्धए जैनद्ध। वह बात जाने दी जाये परन्तु यह कहना उचित हो गा कि श्री अम्बेडकर के विचार तत्कालीन शासकों के मतलब के थे और उन्हों ने न केवल इस का स्वागत किया बल्कि प्रचार भी किया। कालान्तर में काँग्रैस ने भी उन्हें स्वीकार किया क्योंकि उन के नेता भी पाश्चात्य रंग में रंगे थे और उन के भी हिन्दु धर्म के बारे में विचार वैसे ही थे।


इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यद्यपि अम्बेडकरए गाँधी और अन्य नेता दलित वर्ग के प्रबल पक्षधारी थे किन्तु उन को ऊपर उठाने के लिये कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। महात्मा फुले इत्यादि ने जो कार्य कियाए उस तरह का कार्य न श्री अम्बेडकर ने कियाए न काँग्रैस ने और न ही तत्कालीन शासकों ने। इसी लिये मैं जापान के बूराकामिन का हवाला देता हूॅ। सन 1881 में जब मैजी क्राँति हुई तो सभी नागरिकों को एक समान घोषित कर दिया गया। ;जैसा कि हमारे संविधान के अनुच्छेद में कहा गया है कि सरकार धर्मए जातिए भाषाए लिंगए जन्म स्थान के आधार पर भेद भाव नहीं करे गीद्ध। बूराकामिन समूह के भीतर ही अनेक व्यक्ति ऐसे हुये जिन्हों ने महसूस किया कि बाहरी सहायता से नहींए अपने ही दम से ऊपर उठना है। शिक्षा का जो प्रचार प्रसार उन्हों ने कियाए उस ने बीस वर्ष में ही उन की स्थिति बदल दी। 1881 के मैजी क्राँति के मात्र बाईस पच्चीस वर्ष में ही जापान इस योग्य हो गया कि रूस से लोहा ले सके। इस में उन दलित नागरिकों का भी योगदान था। कोई आरक्षण नहींए कोई शासकीय सहायता नही। पर वह बदल गये क्योंकि बदलने की इच्छा थी। और यह इच्छा भीतर से आई थी। हमारे देश में पाँच हज़ार साल के शोषण का ढिण्डोरा तो खूब पीटा गया पर अपने समाज के लिये किया कुछ नहीं गया। तथाकथित सकारात्मक भेद भाव ;ंििपतउंजपअम कपेबतपउपदंजपवदद्ध ही उन का औज़ार रहा। केवल सरकार के भरोसे बैठे रहे और आज भी उन का कहना है कि उन की हालत में सुधार नहीं आया है। और यह आ भी नहीं सकता जब तक वह परजीवी रहें गे।


कोरिया में भी वैसे ही हालात थे। वास्तव में अतिहासकार बायक जी.वोन ने कहा है कि कोरियन समाजिक स्वरूप भारत जैसा ही था। इस का समर्थन माईकल सेठ ने भी किया है यद्यपि उस का कहना है इस में धर्म का दखल नहीं था अर्थात शूद्र तो थे पर धर्म द्वारा परिभाषित नहीं थे।


जहाँ तक आदिवासियों का सम्बन्ध हैए उन की संस्कृति की रक्षा को नीति बनाया गया। उन्हें राष्ट्र का अंग बनाने का प्रयास भी नहीं हुआ। उन के क्षेत्र को लगभग अछूता ही रखा गया। न आवागमन का प्रबन्धए न शिक्षा का विकासए न स्वास्थ्य की चिन्ताए केवल संस्कृति की बात। स्वतन्त्रता के 58 वर्ष बाद जब 2005 में सरकार ने एक बार फिर नई आदिवासी नीति बनाने की घोषणा की तो प्रारूप पर सभी की टिप्पणी माँगी गई। मेरी टिप्पणी ;एक संवैधानिक पद पर तैनात अधिकारी की हैसियत सेद्ध थी कि नीति में कहा गया है कि उन के नृत्य तथा संगीत के वीडियो बनाये जायें गे। मेरा कहना था यह किस के लिये। उन्हें तो अपने संगीतए अपने नृत्य का ज्ञान है। उन्हें बताने की क्या आवश्यकता है। यह केवल गैर आदिवासियों के मनोरंजन के लिये किया जा रहा है। इस के बदले उन्हें उन की भाषा में शिक्षा का प्रबन्ध करें ताकि वह राष्ट्र का अंग बन सकें। कोई संस्कृति एक सी नहीं रहती। उस में परिवर्तन प्रकृति की माँग है। उन्हें पूर्व की संस्कृति में बाँधे रखना न्याय नहीं हो गा।


वापस अपने विषय पर आते हुये इस बात पर ध्यान दिया जाये कि परिवर्तन आवश्यक भी है और अवश्यंभावी भी। सरकार इस में उत्प्रेरक हो सकती है किन्तु निर्णयक नहीं। उस के लिये सम्बन्धित समाज को ही प्रयास करना हो गा।


बात हो रही है जातिगत जनगणना की। यह मान्य किया गया है कि पिछले 75 साल में जातिगत भेदभाव समाप्त नहीं किये जा सके हैं। इस के लिये कुछ नया किया जाना चाहिये। अनुसूचित जाति जनजाति के लिये बहुत से कार्यक्रम बनाये गये। उन का बजट अलग किया गयाए उन की योजना अलग की गई पर बात बनी नहीं। इस बीच समाज के दूसरे वर्ग ने भी दावा किया कि उन्हें भी उत्थान की आवश्यकता है। अब जब सकारात्मक भेद भाव को नीति मान लिया गया तो इस दावे को झुटलाया भी नहीं जा सका। परिणाम पिछड़े वर्ग के लिये विशेष व्यवस्था के रूप में सामने आया। सेवा में तथा शैक्षिक संथाओं मे उन्हें भी आरक्षण दिया गया।


जब एक बार यह लहर उठी तो उसे रोकना सम्भव नहीं था। पिछड़े वर्ग में भी भेद है तथा उन्हें भी आरक्षण इत्यादि के लाभ से वंचित नहीं रखा जा सकता। तो अति पिछड़े वर्ग की बात शामिल की गई। बिहार में जो सर्वेक्षण किया गया है उस में अति पिछड़े वर्ग में कुछ जातियाँ हैं . नाईए मछेरे ;जिन में साहानीए निषादए केवट षामिल हैंद्धए लोहारए तेलीए नोनिया ;परम्परा से नमक बनाने वालेद्ध शामिल हैं। इन से संख्या बिहार की जनसंख्या का 36ण्01 प्रतिषत बताई गई है। इन का हिस्सा आरक्षण में कितना हो गा। यह तय किया जाना है। पर एक दिक्कत आ पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय के बनुसार आरक्षण पचास प्रतिषत से अधिक नहीं हो सकता। इस का एक तोड़ यह है कि ऐसे अधिनियम को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाये। पर इस के लिये लोक सभा में बहुमत होना चाहिये। अभी तक भाजपा इस के बारे में रज़ामन्द नहीं है। और यदि बिहार के लिये किया जाता है तो कर्नाटकए तेलंगाना तथा अन्य गैर भाजपा शासित राज्य को मना नहीं कर पायें गे। भाजपा का विरोध क्यों है इस के बारे में कुछ कहना राजनीति हो गी। जनता को बाँटने की नीति का विरोध् हो गा। अतः इस बात को यहीं छोड़ना उचित हो गा।


प्रश्न यह उठता है कि जातिगत जनगणना की आवश्यकता क्यों है। कहा गया कि पिछड़े वर्ग अथवा अति पिछड़े वर्ग में कितने व्यक्ति हैंए यह पता नहीं है जिस के आधार पर आरक्षण की सीमा सोची जाये। 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी परन्तु वह आँकड़े अब सही स्थिति बताते हैंए यह स्पष्ट नहीं है। इस कारण किस अनुपात में उन्हें आरक्षण दिया जायेए यह तय करना कठिन है। एक बार सही आँकड़े मिल जायें तो नीति निर्धारण सही ढंग से हो सके गा। परन्तु यह तर्क अधिक सबल नहीं है। बिहार के सर्वेक्षण से पता चलता है कि प्रतिशतता में अधिक अन्तर नहीं आया है। 1931 की जनगणना के अनुसार यादव 12ण्7 प्रतिशत थे।। अब जो सर्वेक्षण हुआ है उस में 14 प्रतिशत बताये गये हैं। यह स्पष्ट है कि आरक्षण का आँकड़ा पूर्ण आँकड़ों में ही हो गाए दश्मलव में नहीं। और न ही यह कहा जा सकता है कि एक एक व्यक्ति को चुन कर उसे व्यकितगत रूप से लाभ पहुँचाया जाये गा।


यह दावा है कि इस से नीति निर्धारण में सहायता मिले गी। जब हमें यह पता लग जाये गा कि कितने कुष्वाहा हैए कितने यादव हैए कितने कुर्मी हैं तो उस अनुसार योजनायें बना सकें गे। यह मान कर चला जाता है कि उन्हें सहायता की आवश्यकता है। क्या राज्य के इतने स्रोत हैं कि हर परिवार को सहायता पहुंचाई जा सके। क्या सरकारी पदोें की संख्या इतनी है कि हर इच्छुक व्यक्ति को उस जाति के संख्या के अनुरूप पद निर्मित कर उन्हें सरकारी नौकरी दी जाये। क्या इतने शिक्षा संस्थान है कि हर इच्छुक व्यक्ति को उस की जाति की संख्या के अनुपात में महाविद्यालय मेंए व्यवसायिक महाविद्यलयों में प्रवेश दिया जाये। यह बातें प्रचार के लिये अच्छी लगती हैंए व्यवहाकि नहीं हैं। अन्ततः मनुष्य का अपनी सहायता आप ही करना हो गी क्योंकि उसी में बरकत है। बिना आँतरिक इच्छा के आगे आना सम्भ्व नहीं है। घोडे को तालाब तक तो ले आयें गे पर पानी वह स्वयं ही पिये गा तो प्यास मिटे गी।


इस ओर ध्यान आकर्षित करना उचित हो गा कि 1931 की जनगणना में इस बात को ले कर शिकायतें थीं कि उन्हें वास्तव से कम श्रेणी का दिखाया गया है। उदाहरण स्वरूप राजपुताना की जनगणना में कुछ शिकायतों का इस सम्बन्ध में हवाला दिया गया। इस की कुछ दावे इस प्रकार थे।


जाति जिस में शामिल किया गया जाति का नाम जो वे चाहते हैं

दरोगा रवन्ना राजपूत

नाई कुलीन ब्राह्मण अथवा नाई ब्राह्मण

खानज़सदा मुस्लिम राजपूत जादों

सेवागए रंकावतए भोजक ब्राह्मण

खाटीए सुतार जांगिरा ब्राह्मण

माली सैनिक क्षेत्रीय


आज की हालत यह है कि हर कोई अपने का दूसरे से कम बताता है। समाज शास्त्र में संस्कृतिकरण की बात की जाती थी। हर कोई ऊपर उठना चाहता था। आज वह बात नहीं है। इस कारण उन जातियों की संख्या बढ़ती रहे गी जो आरक्षण के दायरे में आना चाहते हैं। चाहे वह राजस्थान के गुजर होें अथवा महाराष्ट्र के मराठा। एक होड़ मची है आरक्षण पाने की। यह होड़ भी अर्थहीन है उसी तरह जैसे भाषा को क्लासिकल भाषा घोषित करने का। कुछ भाषाओं को अभी यह वर्गीकरण थमा दिया गया तो मैथिली ने भी अपना दावा पेश कर दिया। संविधन में ऐसे वर्गीकरण का कोई हवाला नहीं है। और इस से क्या लभ हो गाए यह भी स्पष्ट नहीं है। पर नाम पाना ही उपलब्धि है।

उल्लेखनीय है कि संविधान के अनुच्छेद 15 में यह कहा गया है कि जाति के आधार पर भेद भाव नहीं किया जाये गा। पर हर प्रावधान की तरह इस में भी संविधान में पोल रखा गया है। और यह छेड़ छोड़ संविधान में 1951 के पहले संशोधन के साथ आरम्भ हुई जब कुछ कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय के दायरे से बाहर रखा गया। इस के लिये नौवीं अनुसूची बनाई गई। इस नौवीं अनुसूची का लाभ उठाने वाला अभी तक एक मात्र राज्य तमिलनाडु है जिस ने आरक्षण को पचास प्रतिषत से अधिक करने सम्बन्धी अधिनियम को नौवीं अनुसूची में शामिल कराने में सफलता प्राप्त की।


परन्तु सर्वोच्च न्यायलय द्वारा स्वयंमेव बढ़ाये गये अधिकारों में यह भी शामिल कर लिया है कि ऐसे अधिनियम को नौवी्ं अनुसूची में जोड़ने की बात का वह परीक्षण कर सकते हैं कि कहीं वह संविधान के मूल सिद्धाँतों के आड़े तो नहीं आता है। ऐसे में यदि इस को निश्चित करने के लिये कानून बनाया जाता है तथा इसे नौवीं अनुसूची में शामिल करने के लिये संसद की स्वीकृति भी मिल जाती है तो भी सर्वोच्च न्यायालय इस बात का परीक्षण कर सकता है कि यह संविधान की मूल मंशा के अनरूप है अथवा नहीं। इस कारण इस की वैघानिक स्थिति अनिष्चित ही रहे गी।


अभी तक जितने कानून बने हैं जो अन्ध विश्वास के विरुद्ध हैंए अथवा गरीबी उन्मूलन के लिये हैं अथवा सामाजिक न्याय के लियेए उन में कहीं भी धर्म का नाम ले कर अथवा जाति का नाम ले कर योजना नहीं बनाई गई। प्रधान मन्त्री आवास योजना में यह नहीं कहा गया है कि अमुक धर्म अथवा जाति के लिये यह प्रावधान है। हर घर जल योजना की तथा अन्य योजनाओं की भी यही स्थिति है।


और यह व्यवहारिक भी नहीं है। योजना में यह नहीं कहा जा सकता कि कुश्वाहा के घर में जल दिया जाये गाए उस के साथ के ब्राह्मण के घर में नहीं। या सड़क पर लगाया गया खम्भा केवल यादव के लिये रोशनी करे गा। अभी तक ऐसा भी नहीं किया गया है कि अमुक शाला किसी जाति विशेष के लिये है। इस का निष्कर्ष यह है कि ऐसी योजना व्यक्ति के लिये अथवा परिवार उन्मूलक ही हो गी। आपसी वैमन्सय बढ़ाने का यह सब से सरल तथा अवश्यंभावी तरीका है। यह समाज के उत्थान की प्रक्रिया नहीं हो गीए आपसी होड़ की प्रक्रिया हो गी और इस में पूरे देश का शॉूंति का वातावरण नष्ट हो गा। भले ही इस से किसी दल विशेष को कुछ बढ़त मिल जाये पर वह स्थायी नहीं हो गीं। राज्य के स्रोत इतने नहीं हों गे कि सभी को बराबर अंशदान मिल सके। परिणाम स्वरूप इस बात का प्रयास रहे गा कि जाति की उप जाति और उप जाति की उप जाति बना कर अलग से उन के लिये आरक्षण माँगा जाये।


कौटा के भीतर कोटा के बारे में 1950 के कलकी तमिल समाचारपत्र में उल्लिखित कारटून देखने योग्य है। यह इस प्रकार हैं.

इस का अनुवाद इस प्रकार है।

कण्डक्टर कह रहा है कि शासन के आदशष के अनुसार निमनलिखित संख्या में यात्रियों को बस में चढ़ने की अनुमति है .

 दलित 15

 एस टी 12

 बी सी 10

 दलित ईसाई 5 उच्च जाति ईसाई 5

 काँग्रैस मुस्लिम 7 पाकिस्तान मुस्लिम 7

 शेष . कोई स्थान नही


कभी यह केवल हास्य का विषय रहा हो गा परन्तु वह दिन दूर नहीं लगता जब यह यर्थाथ बन जाये गा। वास्तव में जातिगत जनगणना की माँग का उप कोटा से गहण सम्बन्ध है। पिछड़े वर्ग मेंए जिसे 1990 में आरक्षण के दायरे में लिया गया थाए में अतिपिछड़े वर्ग की बात बिहार में की गई है। जो सर्वेक्षण किया गया है उस के अनुसार अति पिछड़े वर्ग में धोबीए नाईए धर्मईया तथा अन्य आते हैं।


यह बात ध्यान देने योग्य है कि लोग बस मेंए मैट्रो मेंए रेल में यात्रा करते हैं। क्या किसी ने कभी सीट पर बैठने से पूर्व पास में बैठे व्यक्ति से उस की जाति पूछी है अथवा उस ने हमारी जाति पूछी हो। जातिवाद का वहाँ कोई संदर्भ नहीं आता है। इस का कारण नगरीय वातावरण है जहाँ आर्थिक स्थिति का वर्चस्व है। वही परिस्थिति यदि ग्रामों में भी हो तो जातिवाद भ्ले ही समाप्त नहीं हो तो भी कमज़ोर तो अवश्य पड़ जाये गा। हमें स्मार्ट नगर नहींए स्मार्ट ग्राम के लिये अभियान चलाना चाहिये। इस से कई प्रयोजन सिद्ध हों गे।


परन्तु इस में हमारी रुचि नहीं है। न केवल गरीब तबके में बल्कि तथाकथित सम्भ्रान्त तबके में भी। गर्व के साथ कहा जाता है कि हम जातिवाद में विश्वास नहीं करते जबकि नीचे के तबके के लोग करते हैं। इस की नींव में यह आभास है कि हम सुपीरियर हैंए प्रवर वर्ग के हैं। यह नया जातिवाद है पर है जातिवाद ही। हमें दूसरों का ऊपर उठाना हैए यह भावना है तथा इस के अनुरूप हम सोचते तथा कर्म करते हैं। हम सेाचते हैं कि हम ने इसे नगर में समाप्त कर दिया है पर गाँव वाले पिछड़े हैंए वह नहीं कर पाते। माई बाप की उपनिवेशिक मनोवृति वैसे ही बनी हुई है।


परन्तु इस वर्गीकरण में भी कृत्रिम कुछ नही है। समाज में वर्गीकरण एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। किसी काल में ऐसा नहीं था कि सब एक बराबर थे। शायद उस काल में जब प्रत्येक परिवार स्वयं अपने लिये ही खाना डूँढता थाए तन ढकने का प्रबन्ध करता था या मिल कर शिकार करने की आवश्यकता थीए तब शायद समानता हो। जब से खेती प्रारम्भ हुई तथा मवेशियों को पालने का कार्य आरम्भ हुआए गाँव बसने आरम्भ हुयेए समानता उड़न छू हो गई। जिस की जितनी हिम्मत थीए उस का उतना बड़ा मकान था। उस की उतना बड़ा खेत था। प्रकृति ने समानता कभी नहीं होने दी। सब युगल के एक जितने बच्चे होंए यह भी उसे ग्वारा नहीं हुआ। चाहे भारत के शूद्र हों अथवा फ्रांस के सर्फए वर्गीकरण सदैव रहा है। डिकन्स के उपन्यास ष्ष्एक टेल आफ टू सिटिज़ष्ष् में एक धटना का उल्लेख आता है जब एक सर्फ का बेटा गर्व से यह कहता है कि उस ने सम्भ्रान्त वर्ग के व्यक्ति को तलवार निकालने पर मजबूर कर दिया जबकि आम तौर पर केवल हण्टर से काम लिया जाता था। फ्रांस ने 1781 में इस हीन भावना से निजात पाई तो रूस 1917 तक इस से जूझता रहा। रूस में सर्फ अपने मालिक का खेत छोड़ कर जा नहीं सकता था। कानून के अनुसार वह कहीं भी होए उसे बन्दी बना कर मृत्युदण्ड देने का चलन था।


जापान में अथवा कोरिया में उत्थान की कहानी शिक्षा की कहानी है तथा वही कारगार सिद्ध हो सकती है। जैसे कि पूर्व में कहा गया हैए स्वतन्त्रता संग्राम के समय शिक्षा की ओर नेताओं का ध्यान नहीं गया तथा स्वतन्त्रता अन्दोलन सम्भ्रान्त परिवारों के हाथ रहा। स्वतन्त्रता के समय भारत का साक्षरता दर 12 प्रतिशत ही था। 1921 की जनगणना में इसे 8ण्2 प्रतिशत बताया गया था जो 1931 में बढ़ कर 9ण्5 प्रतिशत हो गया। महिला साक्षरता दर 1921 में 2ण्1 प्रतिशत थी जो 1931 में 2ण्9 प्रतिषत हो गई। स्वतन्त्रता के बाद भी साक्षरता दर उसी गति से आगे बढ़ रही है।


1931 की जनगणना में एक वाक्य उल्लेखनीय है जो एलैक्सण्डरए जो जनगणना के चार्ज में थे एने लिखाए ष्ष्उमतम ंबज व िसंइमससपदह चमतेवदे ंे इमसवदहवदह जव ं बंेजम जमदके जव चमतचंजनंजम जीम ेलेजमउष्ष्। इस जनगणना प्रतिवेदन में यह सुझाव भी दिया गया कि इन जातियों को पिछड़ी जाति न कह कर बाहरी जाति कहा जाये। इस का आधार यह था कि पिछड़ापन जाति पर आधारित नहीं है। वह अत्याल्प उच्च वर्ग को छोड़ कर सभी भारतीयों की नियति है।


ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनेता इस बात से भिज्ञ हैं। पर यह सम्भावना भी है कि वह यह जानते हैं तथा इस का परिणाम भी जानते हैं पर वे समझते हैंए यह उन के पक्ष में रहे गा। उन का वर्चस्व बना रहे गा। कुछ राजनेताओं का यह दृढ़ मत लगता है कि उन्हें अफरातफरी से ही जीवन मिले गा। उन के मन में यह है कि हम ने असहयोग अन्दोलन सेए शालाओं के बायकाट सेए विदेशी कपड़ों की होली से ही स्वतन्त्रता प्राप्त की है तथा शासक बनने का सपना पूरा किया है। उन्हें यकीन है कि उसी वातावरण को बनाने तथा कायम रखने से ही उन्हें सफलता मिल सकती है। इसी कारण वह आरक्षण न केवल कायम रखना चाहते हैं बल्कि इस का विस्तार भी करना चाहते है। यह धारणा इतनी गहरी पैठ कर चुकी है कि वह मिस इण्डिया सुन्दरता प्रतियोगिता में भी आरक्षण चाहते हैं। पर कोई यह बताने की स्थिति में नहीं है कि आरक्षण के कारण बेहतरीन याँत्रिकी महाविद्यालय में प्रशिक्षण पाने के बाद उन में से कितने व्यक्तियें ने विदेश में नाम कमाया है। इस से उन्हें मतलब भी नहीं है। उन का मतलब केवल उन से है जो इस लाभ से वंचित रह गये और जो आरक्षण के विस्तार से लाभन्वित हो सकते है और जो नही जानते कि यह केवल मृगतृष्णा ही है।


हम पिछले 75 साल से आरक्षण देख रहे हैं बल्कि आरक्षण तो 1921 में भी था। और लगातार चला आ रहा है। क्या इस से समाज में कोई परिवर्तन आया है। बिरला ही व्य७ि हो गा जो इस का उत्तर हाँ में दे सके गा। कुछ परिवारों को लाभ मिला है और पीढ़ी दर पीढ़ी मिला है तथा उन की कामना है कि यह मिलता रहे। पर जहाँ तक समाज का सम्बन्ध हैए वह आज भी वहीं है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश की साक्षरता दर 73 प्रतिषत थी जब कि अनुसूचित जाति की 66 प्रतिशत थी। अनुसूचित जन जाति की साक्षरता दर 59 प्रतिशत थी।


कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि यह मुद्दा केवल सत्ता पाने का रास्ता बनाने का प्रयास है। इस का न देश से सम्बन्ध हैए न समाज सेए न प्रगति सेए न ही बेहतर जीवन से। पर जो भारत की प्रगति देखना चाहते हैय उसे विश्व के देशों का सिरमौर देखना चाहते हैंए वह आरक्षण के पक्ष में नहीं हो सकते। जातिगत जनगणना उसी कुप्रयास का भाग है तथा इसे स्पष्ट रूप से नकार दिया जाना चाहियेे। आवश्यकता निर्भरता कम करने की हैए बढ़ाने की नहीं। आत्म निर्भर भारत तो अपने स्थान पर सही नारा है परन्तु उस से आगे आत्मनिर्भर समाज होना प्रगति का मापदण्ड होना चाहिये।

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