जन्मदिन एक कर्लक का
(यह लेख मैं ने 19 नवम्बर 1974 को लिखा था)
आज मेरा जन्मदिन है। संयोग की बात है कि आज इंदिरा गांधी जी का भी जन्मदिन है। मैं सोचता हूं तो पाता हूं कि मेरे और उन के बीच बहुत सी समानता है।यूं तो मैं उन से 3 वर्ष छोटा ही हूं। अच्छा ही है। अगर मैं उन जितना होता तो शायद 55 वर्ष की आयु हो जाने से रिटायर कर दिया जाता। अब अगले वर्ष मेरे 55 वर्ष के हो जाने पर स्क्रीनिंग कमेटी बैठे गी, यह देखने के लिये कि म ुझे आगे काम पर रखा जाना है या। नहीं। 55 वर्ष पूरे हो जाने पर यह देखना सरकार के लिये लाज़िमी हो जाता है। देश का सौभाग्य है कि इंदिरा गांधी पर ऐसी कोई बंदिश नहीं। लेकिन नहीं, उन्हें भी तो अगले वर्ष स्क्रीनिंग कमेटी के सामने जाना है।
इंदिरा गांधी की तरह मेरे भी दो लड़के हैं. उन के नाम मैं ने रखे हैं - संजय और अजय। यह अलग बात है कि मेरी एक लड़की भी है अरुणा। वह दोनों भाइयों से छोटी है। पिछले साल ही उस की शादी की। जीपीएफ से दो हज़ार रुपये लिये थे, और चार पॉंच हजार बचत के रखे थे। 1000 रुपये जो संजय की शादी पर मिले थे, इसी लिये रख छोड़े थे, वह भी काम आये। एक दो हज़ार इधर उधर से ले कर अरुणा के हाथ पीले कर दिये। अच्छा ही है कि इंदिरा जी को इस तरह का झमेला नहीं करना पड़ा। अजय तो नालायक निकला। संजय की शादी पर तो एक हजार मिल गया पर अजय ने ऐसा मौका नहीं दिया। एक पड़ोस की लड़की के साथ ही भाग गया। बड़ी मुश्किल से ढूंढ के उस की शादी की रस्म निभाई। खैर, लड़की पढ़ी-लिखी है। नौकरी भी करती है। सहारा बन गया।
इंदिरा जी को राजनीति विरासत में मिली है। उन के पिता तो प्रधानमंत्री थे ही। उन के दादा भी राजनीति के पक्के खिलाड़ी थे। मुझे कलर्की विरासत में मिली है। पिता जी सहायक अधीक्षक के पद से रिटायर हुये। और दादा जी सरकार के यहां अस्तबल खाने में ऊॅंची जगह पर थे। इस तरह जब मैं ने आज से 34 साल पहले कलर्की शुरू की तो मैं मानसिक रूप से इस के लिये तैयार था। पिताजी के साथ दफतर जा जा कर मैंने टाइपिंग सीख ली थी और जब मैं अफसर के सामने पहुंचा था तो मैंने बड़े फख्र से कहा था। हज़ूर, मुझे टाइपिंग अच्छी तरह आती है। जब अफसर ने दूसरे उम्मीदवारों की तरफ देखा तो उन के सर झुके हुये थे। फिर मेरे पिता उस समय तहसील में हेड क्लर्क भी से। इस लिये मुझे एकदम चुन लिया गया। वह देश मेरी जिंदगी से सब से ज्यादा खुशी का दिन था. लेकिन फिर हालात बिगड़ते गये। महंगाई के आंकड़े बढ़ते गये। मैं ने खुद इस के चार्ट बनाये हैं। 1946 को 100 मान कर, 1956 को 100 मान कर और फिर 1964 को सौ मान कर. परन्तु चाहे हम ने साल बदले हो पर उस लकीर को जो महंगाई दिखाती है, की दिशा को नहीं बदल सके.
नई दुनिया का लेख मेरे सामने है। शीर्षक है ''इंदिरा गांधी के 57 तूफानी गरिमामय वर्ष’'। मैं अपने वर्षों को गरिमामय तो नहीं कह सकता, सिवाये उन चंद सप्ताहों के जब मौहल्ले ने मुझे अन्तर्जातीय विवाह के लिये आदर्श पुरुष माना था पर वह मेरी मजबूरी थी, आदर्श नहीं थे। लेकिन मेरे वर्ष तूफानी ज़रूर रहे हैं. वह समय जब 1947 में स्वतंत्रता मिली थी या विभाजन हुआ था। मुझे विभाजन ज़्यादा याद रहता है क्योंकि जब मैं ने परिवार के साथ पाकिस्तान से हिंदुस्तान की यात्रा की थी, वह वक्त और हालात अभी तक मुझे याद है। या फिर वह क्षण जब मेरी पत्नी के दूसरा बच्चा होने वाला था और डॉक्टर के चेहरे पर मायूसी थी। या फिर जब अजय दूसरी बार हाई सेकेंडरी में फेल हो कर पूरे दिन पूरी रात भर घर नहीं लौटा था। पर मैं ने किसी भी समय अपना संयम नहीं खोया। मैं ने कुशलता से सारी स्थिति का सामना किया। इस पर लेख नहीं लिखा जाये गा लेकिन इस से मेरी नैतिकता प्रतिबिंबित होती है खासकर जब उस समय जब अजय एक लड़की को साथ ले कर भाग गया था। उस घटना ने मुझे ना केवल दो घरों का अपितु पूरे मोहल्ले का प्रिय और मानवता के उद्धारकों की कोटि में पहुंचा दिया। लेकिन मैं ने बड़ी विनम्रता से अपने पड़ोसी रामचरण से कहा था
“ मैंने अपना वायदा पूरा कर दिया है। सुषमा के माथे पर कलंक मैं ने नहीं लगने दिया। दूसरे उन को जिंदगी भर के लिये समाज से अलग रहने पर मजबूर नहीं होना पड़े गा, तीसरे सुषमा के माता-पिता की फिक्र - दहेज का ना होना - मैं ने खत्म कर दी”
मैं ने कहा है कि मेरे और इंदिरा गांधी के बीच बहुत समानताएं हैं। मैं पुस्तकों में रुचि या कविता पाठ की बात नहीं करता। वह तो सभी बुद्धिजीवियों के लिये अनिवार्य जैसा ही है। वैसे मुझे यह सौभाग्य भी प्राप्त नहीं कि मेरे बगैर सूचना दिये किसी हाल में पहुंचने की खबर अखबार में छापी जा सके। बल्कि अगर मुझे इत्तलाह पा कर जाने की जरूरत पड़े तो वह शायद समाचार हो गा देश के लिये और मेरे लिये तो हृदयाघात करने वाली प्रसन्नता। मैं परिश्रम की बात भी नहीं करता। वह तो सभी कलर्कों के जीवन का हिस्सा है। सुबह दूध की डेरी पर 6:00 बजे जाने से रात को घर लौटते समय सब्जी लाने तक परिश्रम ही परिश्रम रहता है। टाइपिंग, जिस का मैं ने पहले बड़े फख्र से ज़िकर किया था, अब एक बला बन गई है क्योंकि नये कलर्कों को हिंदी की टाइपिंग ही आती है, अंग्रेजी की नहीं। और अफसरों ने अभी तक आजादी के 27 साल बाद भी अंग्रेजी की टांग नहीं छोड़ी। दूसरों के साथ सहानुभूति रखने का भी ज़िकर नहीं करना चाहता। हॉंलां कि इसी के कारण मुझे कई बार रात रात भर बैठना पड़ा है जबकि सुबह दफ्तर से छुट्टी मिलने का कोई इमकान नहीं था। मुझे याद है जब मैं रात को 1:00 बजे एक डॉक्टर को करीब आधे घंटे तक मिन्नत करने के बाद उस का झोला उठाये हुये उन्हें पड़ोसी रामचरण को दिखाने के लिये लाया था। रास्ते पर डाक्टर ने मुझे कोसा था और रामचरण के 104 डिग्री के बुखार को मामूली कह कर दो एक दवायें लिख दी थी जिन्हें लेने के लिये मुझे तीन दूसरे पड़ोसियों को रात में जगाना पड़ा था। यह सब बातें तो होती रहती है। किसी के लिये यह समाचार नहीं बन सकते। इन के ऊपर लेख नहीं लिखा जा सकता। जन्मदिन एक होने से महत्व एक नहीं हो जाता.
मैं समानता का बता रहा था. संजय तो सैट है। उस ने परिवहन निगम में ड्राईवरी का काम सम्भाल लिया है। अजय की फिकर थी। अजय के एक लड़का हुआ। उसी समानता को देख कर मैं ने उस का नाम राहुल रख दिया है। घर पहुंचते ही राहुल मेरे निकट आ जाता है। मैं दुलार से राहुल से पूछता हूं ‘राहुल बेटा, मैं कौन हूं’ और राहुल तत्पर उत्तर देता है 'दा — दा'। राहुल का पिता तो देर तक घर नहीं लौट पाता। मैं ने उसे कार मरम्मत के कारखाने में लगा दिया है। जब वह हायर सैंकडरी बड़ी मुश्किल से तीसरी बार कोशिश कर पार कर गया तो मैं ने उसे कलर्की में फंसाना पसंद नहीं किया। वह खुद भी कलर्की में नहीं आना चाहता था। इंदिरा जी भी अपने लड़कों को राजनीति में आने का बढ़ावा नहीं दे रही हैं। क्योंकि उन की इच्छा है कि वह उद्योग में योग दें क्योंकि औद्योगिक विकास देश की उन्नति के लिये अति आवश्यक है . मैं ने भी यही सोच कर संजय को उद्योग में लगा दिया है था। मुझे उम्मीद है कि एक दिन वह एक अच्छा मकैनिक बन कर अपनी दुकान खोल ले गा। शायद मेरी पैंशन तक ऐसा हो सके। शायद मेरी ग्रेजुएटी इस काम आ सके। शायद। लेकिन यह भी हो सकता है कि बढ़ती हुई महंगाई मेरे इरादों को बदल दे। और फिर अगले वर्ष में 55 का भी तो हो रहा हूं। मैं सोचता रहता हूं क्या मुझे अगले वर्ष के बाद भी काम करते रहने का मौका दिया जायेगा। शायद इंदिरा जी भी यही सोचती रहती हो गी। कौन जाने।
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