भारतीय प्रशासन सेवा में कई पद ऐसे होते हैं जिन्हें मलाईदार कहा जाता है। इन में यदि बेईमानी न भी की जाये तो भी कार, चपड़ासी की सुविधा तो रहती ही है। इसी के साथ कुछ पद दूसरी प्रकार के होते हैं। यह ऐसे संगठनों में होते हैं जिन्हें मैं कैटल पाउण्ड कहता हूं। उदाहरण हैं - योजना मण्डल, राजस्व मण्डल, अतिरिक्त आयुक्त। इन में काम भी कम होता है और माल भी। बनाने वाले वहां भी माल बना ही लेते हैं पर यह हर एक के बस की बात नहीं और परिमाण का अन्तर तो रहता ही है। जब सरकार किसी से नाराज़ होती है तो उसे कैटल पाउण्ड में भेज दिया जाता है। इस कारण हर कोई इन से बाहर निकलने के रास्ते खोजता रहता है। एक बार मैं भी कैटल पाउण्ड में था। क्यों? यह अलग कहानी है तो किसी रोज़ अलग से बताऊं गा। इसी तथ्य पर आधारित है यह कविता।
चुनाव परिणाम पर
वाह रे मतदाता, तू ने क्या करी यह करामात
सेठी के अरमानों पर कर दिया तुषारापात
शासन ने यूं आयुक्त पद से इन्हें बाहर किया था
मक्खन से जैसे कोई बाल निकाल दिया था
दिन तो लम्बे लम्बे थे, बोझिल थी हर शाम
बैठे बैठे मक्खियां मारते, हो गया काम तमाम
इसी बीच हल्ला मचा इलैक्शन आये इलैक्शन आये
दिल में जाग उठी हसरतें, उम्मीद की आस बंधायें
कुछ जीतें गे कुछ हारें गे, हो गी हाथापाई
चालीस में से कितनी ले जायें गे भाजपाई
पटवा ने क्लेम लगा दिया लूंगा पूरी पच्चीस
अर्जुन बोले हाई कमाण्ड को हों गी अपनी पैंतीस
समाचार पत्रों ने इधर उधर अपने प्रतिनिधि दौड़ाये
चण्डू खाने से और मधुशालाओं से खबर वो लाये
कांग्रैस जिस पर है निर्भर सहानुभूति लहर का नाम नहीं
भागना पड़ता है उनको वोटरों के पीछे कोई आराम नहीं
इधर उधर की बात है चाहे जिस के पक्ष में जाये
कह नहीं सकते कौन उन्नीस कौन बीस पा जाये
सुन सुन कर सेठी के मन में आशा ले हिल्लौर
अब के तो भाग फिरें गे नाच उठे गा मनमोर
हारें गे जहां से, आयुक्त वहां से हटाये जायें गे
है ठोर ठिकाना कहां, बोर्ड में ही तो आयें गे
बोर्ड का दरबा छोटा सा है कितनों को ले पाये गा
खाली करने को स्थान कोई तो यहां से जाये गा
इधर उधर देखा भाला अपना गणित लगाया
अपने सिवा किसी को अधिक उपयुक्त न पाया
लगे सजाने सपने सुनहरे, दिन हो या रात
हाय मतदाता क्या हुआ, क्यों किया विश्वासघात
न जाने किस के वश में आ कर तू ने गज़ब ढा दिया
सारी सीटों पर शासक दल को ही जिता दिया
अब कैसे कोई हटाया जाये गा, किस को करें हलाल
और कक्कू भैया रह गये बोर्ड में मलते अपने हाथ
(2.1.1985)
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