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गरीबी के विरुद्ध संघर्श तथा विश्व व्यवस्था

Updated: Aug 12, 2020

गरीबी के विरुद्ध संघर्श तथा विश्व व्यवस्था

ऐत्हासिक परिपेक्ष्य में


केवल कृष्ण सेठी


1. पृष्ठभूमि


विश्व के अधिकतर लोग गरीब हैं तथा इन में से अधिकतर तीसरे विश्व में रहते हैं। तीसरे विश्व में अधिकतर देश एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के हैं। तीसरा विश्व इन्हें क्यों कहा जाता है, स्पष्ट नहीं है। पर इस नाम से ही हम इन के बारे में चर्चा करें गे। इस के अतिरिक्त इन्हें गरीब देश अथवा पिछड़े देश भी कहा जाता है क्योंकि इन का जीवन स्तर विकसित देशों की तुलना में काफी कम है। जो इन्हें इस नाम से नहीं पुकारना चाहते, वे सम्मान देने की दृष्टि से इन्हें विकासशील देश कहते हैं। यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि इस लेख में यह चारों नाम समानार्थी शब्दों के रूप में प्रयुक्त हैं। इन्हें अविकसित देश भी कहा जा सकता है तथा कुछ इन के भी दो वर्ग मानते हैं जिन में कुछ देशों को न्यूनतम विकसित देश कहा गया है। इस लेख में हम ने यह नाम नहीं रखा है तथा इस प्रकार का भेद नहीं रखा है। और यह आवश्यक भी नहीं है।


इन देशों में से अधिकाँश की नियति न्यूनाधिक कुपोषण तथा उचित निवास एवं परिधान के अभाव की है। बीमारी उन का भाग्य है। अल्प आयु की अपेक्षा भी इन देशों में रहती है। इस लेख में हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि इस असमानता के पीछे क्या कारण हैं। एक अवधारणा है कि यह सब इस कारण है कि वे अपनी परम्परागत व्यवस्था को बदलने को तैयार नहीं हैं। यदि वे विकसित देशों की संस्कृति तथा तरीके अपना लें तो वह विकसित हो सकते हैं। थोड़े ध्यान से देखने से पता चले गा कि यह बात सही नहीं है। वास्तव में स्थिति इस के उलट है। पुरानी परम्परायें कहीं भी नहीं रह पाई हैं। जो बदलना नहीं चाहते, उन्हें भी मजबूरी में बदलना पड़ रहा है। यही उन की गरीबी का एक बड़ा कारण है। नये विचारों के अनुसार उन में शिक्षा का प्रसार हो रहा है। मृत्यु दर कम हो रही है। नगरीयकरण में वृद्धि हो रही है। परिवर्तन हो रहा है किन्तु इस से उन्हें कोई लाभ नहीं हो रहा या यह कहें कि वहाँ के कुछ ही लोगों को उस से लाभ हो रहा है। शेष की स्थिति पहले से अधिक भयावह हो रही है। यह सही है कि सभी देशों की स्थिति एक जैसी नहीं है। स्थिति कुछ देशों के लिये कम तथा कुछ देशों के लिये अधिक चिन्ताजनक है पर है यह सब के साथ ही। एशिया के कुछ देश - दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, ताईवान काफी बदल गये हैं पर यह अपवाद हैं।


गरीबी के बारे में बात करें तो यह देखा जाये गा कि उन्नीसवीं शताब्दि के आरम्भ तक विश्व के सभी देशों में गरीबी की स्थिति थी। कुछ सामन्तवादियों को छोड़ कर शेष का जीवन यापन कठिनाई से ही होता था। यद्यपि पश्चिम में औद्योगिक क्राँति का आरम्भ अठारहवीं शताब्दि के अन्त से माना जाता है पर इस का प्रभाव आम आदमी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने का नहीं था। बीमारी, अकाल मृत्यु से उन्हें दो चार होना पड़ता था। इंगलैण्ड में 1871 में औसत आयु 38.17 वर्ष थी। 1850 - 59 की अवधि में फ्रांस में यह 39.8 वर्ष थी। शिशु मृत्यु दर (एक वर्ष से कम आयु में मरने वाले बच्चे प्रति हज़ार) फ्रांस में 27.3 तथा इंगलैण्ड में 16.5 था। यह माना जाता है कि इंगलैण्ड के आँकड़े सही नहीं हैं क्योंकि कई शिशुओं की मृत्यु की सूचना नहीं दी जाती थी। वास्तव में इन देशों में भी स्वास्थ्य में सुधार औद्योगिक क्राँति के कारण नहीं वरन् चिकित्सा क्षेत्र में नई खोज के कारण आया। बीमारी के किटाणुओं का पता चलने तथा पैंसलीन तथा इस प्रकार की दवाईयों के कारण शिशु मृत्यु दर में कमी आई। तकनालोजी में इस प्रगति का प्रभाव अन्य गैर युरोपीय देशों में इतना नही हो पाया है। पर यह विचार करने की बात है कि तृतीय विश्व के देशों में स्वतन्त्रता के बाद मत्यु दर में कमी आई है तथा आयु अपेक्षा बढ़ी है। 1980 के दशक के अन्त में क्यूबा तथा संयुक्त राज्य अमरीका में शिशु मृत्यु दर 0.7 प्रतिशत ही है यद्यपि उन के जीवन स्तर में काफी अन्तर है।


तृतीय विश्व के देशों में इस प्रकार का सुधार क्यों नहीं आ पाया, इस पर विचार किया जाना आवश्यक है। बीसवीं शताब्दि के प्रारम्भ में तृतीय विश्व के अधिकतर देश पश्चिमी देशों के उपनिवेश थे या फिर उन के द्वारा परोक्ष रूप से नियन्त्रित थे। द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात बीसवीं शताब्दि के मध्य में इस स्थिति में तेज़ी से परिवर्तन आया तथा इन में से अधिकतर देशों को स्वतन्त्रता मिली। इस से पूर्व कई देशों में लम्बे समय तक तथा कई में कुछ कम समय स्वतन्त्रता के लिये अन्दोलन चला। उस समय की विचारधारा थी कि परतन्त्रता के कारण इन देशों की सम्पत्ति बाहर चली जाती है तथा स्वतन्त्रता के साथ ही खुशहाली का दौर तो आये गा ही। स्वतन्त्रता संग्राम के नेताओं ने भी इस का आश्वासन दिया था। नये नेता - नेहरू, एनक्रूमा, सुकारनो तथा अन्य ने कहा कि स्वतन्त्रता मिलने के साथ ही देश शीघ्र ही उन्नति के पथ पर हों गे तथा जीवन स्तर में सुधार आये गा। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।


द्वितीय महायुद्ध के कारण अमरीका न केवल दूसरे देशों की तुलना में कम प्रभावित हुआ बल्कि उस के उत्पादन में वृद्धि हुई। स्वाभाविक था कि वह विश्व के देशों का अग्रणी बनता। युरोप के देशों की सहायता करने के लिये उस ने मार्शल प्लान के नाम से योजनाा आरम्भ की। अमरीकी निवेश इन देशों में किया गया तथा अन्य प्रकार से भी इन की सहायता की गई। इस के फलस्वरूप युरोप के देशों को सम्भलने का अवसर मिला। अमरीका ने अन्य देशों को भी भरपूर सहायता करने का वचन दिया। उस ने तथा युरोप के देशों ने अपने को उन के विकास के प्रति समर्पित बताया। परन्तु वास्तव में बहुत कम सहायता इन देशों तक पहुँच पाई। कैनेडी ने राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले भाषण में कहा कि सभी देशों की सहायता की जाये गी। पर वस्तुतः स्थिति वही की वही रहीं। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात संसार के काफी देश दो धड़ों में बट गये - पूँजीवादी अमरीका के नेतृत्व वाले तथा सोवियत यूनियन के नेतृत्व वाले। इन धड़ों के बाहर के देश तृतीय विश्व के नाम से पुकारे गये। इन देशों को दोनों धड़ों का सहायता करने का वचन था पर शब्द शब्द ही रहे, क्रिया में परिवर्तित न हो पाये। विश्व बैंक इत्यादि कई संगठन बनाये गये। परन्तु न केवल अमीर तथा गरीब देशों में फासला कम नहीं हो सका वरन् यह बढ़ रहा है।


युरोप, अमरीका, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड तथा जापान में गत कुछ दशकों में जीवन स्तर अविश्वसनीय रूप से बढ़ा है। इन देशों में भी कुछ लोग गरीबी के शिकार हैं किन्तु अधिकतर लोागो का जीवन सुखमय हो रहा है। गरीबी पर यह विजय उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी की देन है। वायदा तो था कि यह स्मृद्धि पूरे विश्व में फैल जाये गी पर ऐसा हो नहीं पाया। संसार के 15 प्रतिशत लोग ही उस जीवन स्तर पर हैं जिन की अन्य लोग कल्पना भी नहीं कर पाते।


तीसरे विश्व की समस्यायें केवल आर्थिक ही नहीं है। यह सामाजिक तथा राजनैतिक भी है। उपनिवेशवादियों ने अपनी प्रशासनिक सुविधा के अनुरूप तथाकथित राष्ट्र-देश स्थापित किये। इन में रहने वाले समूहों में वह साम॰जस्य स्थापित नहीं हो पाया जो किसी देश में एकता बनाये रखने के लिये आवश्यक है। इस का एक कारण यह था कि जो नई शासन प्रणाली लागू की गई, जो शिक्षा के तरीके अपनाये गये, वह वहाँ की संस्कृति से जनित नहीं थे वरन् उपनिवेशवायिों ने अपने सिद्धाँत उन पर लागू कर दिये। फलस्वरूप पुरानी संस्कृति की जो अच्छी बातें थीं वह भी समाप्त हो रही हैं। भौतिकवाद पनप रहा है। परन्तु जो आपसी वैमन्यस्यता थी, उस में कमी नहीं आ पाई है क्योंकि कई देश इस प्रकार के बन गये कि उन में परस्पर विरोधी कबीले रह रहे थे। उपनिवेशवाद ने दोनों को परेशान कर रखा था पर यह एकता वे स्वतन्त्रता के पश्चात स्थापित नहीं रख पाये। उन के आपसी गृह युद्ध का परिणाम यह हुआ कि लाखों लोग इण्डोनेशिया, कांगो, र-वांडा, वियतनाम, कम्पूचिया तथा अन्यत्र मारे गये हैं। इन देशों के नागरिकों से भौतिक सुविधायें, प्रजातन्त्र, मानव अधिकार, आत्म सम्मान तथा आत्म गौरव अभी पहले जितने ही दूर हैं। दूसरी ओर अमीर देश भी सहायता करने के वायदों से भूल नहीं गये तो काफी दूर हो चुके हैं।


तृतीय विश्व में कई प्रजातियाँ, कई धर्म, कई संस्कृतियाँ, कई परम्परायें हैं किन्तु एक बात समान है - वह है उन की गरीबी जो उन्हें विकसित देशों से अलग करती है। यह नहीं कि इन देशों में सभी गरीब होते हैं। मध्यम वर्ग भी कहीं कम कहीं अधिक है तथा कुछ ऐसे भी हैं जो ऐशो आराम का जीवन बिताते हैं। परन्तु इन देशों का बहुमत गरीबी से जूझ रहा होता है। गरीबी की औपचारिक परिभाषा कठिन है तथा गरीब तथा लगभग गरीब, इन में अन्तर करना कठिन कार्य है। गरीब लोगों में से लगभग 70 प्रतिशत एशिया के हैं। तीन चैथाई से अधिक ग्रामों में रहते हैं। यू एन डी पी के अनुसार विश्व में लगभग 120 करोड़ लोगों की आय एक डालर प्रति दिन से कम है तथा यह आँकड़े 1990 से अभी तक बदले नहीं हैं। आय के अतिरिक्त अन्य मापदण्ड हैं - जीवन की औसत अपेक्षा, प्रौढ़ निरक्षरता, कुपोषित बच्चे, छोटे आवास, बाल श्रमिक, खाघान्न की कमी, पेय जल का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं क्रा अभाव तथा सफाई का अभाव।


गरीबी के उपरोक्त मापदण्डों में से कुछ में विभिन्न देशों की स्थिति इस प्रकार है -

कुल संख्या का प्रतिशत

देश आय एक डालर अपेक्षित आयु प्रौढ़ निरक्षरता 5 वर्ष से कम आयु वाले

दैनिक से कम 40 वर्ष से कम कुपोषित बच्चे

इण्डोनेशिया 8 13 13 26

केन्या 27 35 18 23

ग्वाटेमाला 10 16 31 24

घाना 45 27 29 25

चीन 19 8 16 10

नाईजीरिया 70 34 36 27

नेपाल 38 23 58 47

पाकिस्तान 31 20 57 38

बंगला देश 29 21 59 48

भारत 44 17 43 47

मैक्सीको 16 8 9 8

पेरू 16 12 10 8

सेनेगल 26 29 63 18

श्री लंका 7 6 8 33

टयूनेशिया 2 8 29 4

वेनेज़ुएला 23 7 7 5

ज़िम्बाबवे 36 52 11 13



वैसे तो गरीबी एक तुलनात्मक वस्तु है। अमरीका में 12000 डालर वार्षिक आय वाला व्यक्ति गरीब माना जाये गा पर उसी आय वाला व्यक्ति भारत में बहुत अमीर मगना जाये गा। अतः हम केवल औसत आय की बात ही करें गे। सब से अधिक औसत वार्षिक आय स्विटज़िरलैण्ड में 36,970 डालर वर्ष 2001 में थी। 49 देशों में जहाँ आधे से अधिक लोग रहते हैं, यह 430 डालर से कम थी। परन्तु यह पूरी तस्वीर नहीं है। मुद्रा की क्रय शक्ति की भी तुलना की जाना चाहिये। दिल्ली में एक डालर में जितना चावल आ जाये गा, उस से करीब चैथाई ही अमरीका में आ पाये गा। पर इस के बावजूद भी अन्तर काफी अधिक है।


एक बात जो सभी देशों के गरीबों में समान है, वह असुरक्षा की भावना है। जब वर्षा अच्छी होती है, फसल ठीक होती है तो घर की मरम्मत भी की जा सकती है, त्योहार भी मनाये जा सकते हैं, पर जब समय खराब होता है तो सब कुछ समाप्त हो जाता है। वर्षा की कमी, बाढ़, कोई अन्य प्राकृतिक आपदा के पश्चात जीवन यापन का कोई साधन नहीं है।


यह कहना सही नहीं है कि गरीबी का यह जीवन इन देशों का परम्परागत जीवन है। परम्पारिक संस्कृति फलती फूलती है तथा यह जीवन से अधिक निकट होती है। हमारे धर्म - हिन्दु, बौद्ध, जैन, इस्लाम, ईसाई - गरीबी का पक्ष नहीं लेते हैं। गरीबी परम्परा नहीं है न ही कम उत्पादकता। पुराने समय में जीवन केे मूल्य आज के मूल्यों से अलग थे पर वे गरीबी को उचित मानते थे तथा लोगों को उस से बाहर आने के लिये नहीं कहते थे, यह मानना कठिन है। नगरों में जो गन्दी बस्तियाँ बनी हैं, वह परम्पारिक नहीं हैं। वे तथाकथित प्रगति की देन हैं। तम्बाकू, कोको, केला, चाय, कपास, रबड़, गन्ने के खेतों के मज़दूर परम्परारिक नहीं हैं। वह पिछली दो शताब्दियों की देन हैं तथा उन की वर्तमान स्थिति का दोष आज के अमीर देशों का है।


प्राचीन समय में लोग जैसे भी थे, वह अधिकतर अपने जैसे लोगों के बीच में थे अतः वह उतने असंतुष्ट नहीं थे जितने आज हैं। हर देश में अमीर गरीब में अन्तर रहा है पर अध्ययन बताते हैं कि अधिक गरीब देशों में यह अन्तर कम होता है। जैसे ही देश की सकल आय बढ़ती है, विभिन्न वर्गों की आय में अन्तर भी अधिक हो जाता है। फिर एक अवसर आता है जब यह फिर कम होना आरम्भ हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास के लिये एक तालिका बनाई है जिस में सामान्य सेवाओं - शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल प्रदाय इत्यादि के बारे में भी देखा गया है। निष्कर्ष यह है कि कई गरीब देश इस मामले में अघिक सम्पन्न देशों से आगे हैं।


गरीबी के मामले में पुरुषों तथा स्त्रियों में भी काफी अन्तर है। इस का पहला कारण तो यह है कि एक समान कार्य में दोनों की मज़दूरी अलग अलग है। शिक्षा तथा अन्य सुविधाओं में वह पीछे रहती हैं। उन्हें बाहर के काम के अतिरिक्त घर का काम भी करना पड़ता है। कुपोषण के मामले में भी लडकों तथा लडकियों में अन्तर देखा जा सकता है।


उपरोक्त बातों से यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिये कि कम विकसित देशों में कोई प्रगति नहीं हो रही है। यह अलब बात है कि जनसंख्या में वृद्धि के कारण उस का उतना परिणाम परिलक्षित नहीं होता है। कुछ परिक्षेत्रों की प्रगति के आँकड़े इस प्रकार हैं -


परिक्षैत्र उत्पादन में वृद्धि जनसंख्या में वृद्धि आय प्रति व्यक्ति में वृद्धि

युरोप 3.3 1.5 1.9

अफ्रीका दक्षिणी भाग -0.9 0.2 -1.1

पश्चिम एशिया 1.7 2.1 —0.4

उत्तरी अफ्रीका 3.0 2.1 0.9

दक्षिण अमरीका 3.1 1.6 1.5

दक्षिण एशिया 5.5 1.9 3.6

पूर्वी एशिया 7.5 1.2 6.3

विकसित देश 2.5 0.7 3.9


सिवाये अफ्रीका के दक्षिणी भाग तथा पश्चिम एशिया के प्रगति दर सब की लगभग बराबर है पर जनसंख्या वृद्धि इस को कम कर देती है। जनसंख्या वृद्धि स्वयं गरीबी का एक विवश्ता है। अफ्रीका के दक्षिण भाग में तथा पश्चिम एशिया में तो यह प्रगति को ऋणात्मक कर देती है। दूसरी ओर अमीर तथा गरीब देशों में के बीच की दूरी बढ़ रही है।


यहाॅं पर इस बात पर भी विचार करना हो गा कि गरीबी उन्मूलन के लिये प्रचार तो किया जा रहा है पर वस्तुस्थिति कुछ और ही बताती है। विश्व बेंक द्वारा 1.25 डालर से कम में जीवन यापन करने वालों सम्बन्धी नीचे की तालिका में 1980 सं 2005 तक का तुलनात्मक आॅंकड़े दिये गये हैं। यह बताते हैं कि सिवाय पूर्व एशिया/ प्रशान्त महासागर क्षेत्र के सभी स्थानों में गरीबी की प्रतिशतता बढ़ी है।


क्षेत्र 1981 1984 1987 1990 1993 1996 1999 2002 2005

पूर्व एशिया/

प्रशान्त महासागरीय 56.50 52.39 47.81 48.16 47.09 37.57 37.44 31.61 22.97

पूर्व युरोप एव्ं

मध्य एशिया 0.37 0.32 0.28 0.5 1.12 1.32 1.43 1.35 1.26

लातीनी अमेरिका/

कैरीबियन 2.21 2.89 3.04 2.37 2.33 3.15 3.23 3.64 3.35

मध्य एशिया एवं

उत्तर अफ्रीका 0.72 0.64 0.69 0.53 0.55 0.64 0.68 0.64 0.80

दक्षिण एशिया 28.91 30.28 33.09 31.94 31.17 35.89 34.72 38.42 43.26

सहरा से नीचे स्थित

अफ्रीका 11.27 13.48 15.09 16.49 17.74 21.43 22.50 24.33 28.37


कुल संख्या (करोड़) 189.6 180.8 172.0 181.3 179.5 165.6 169.6 160.3 137.7


प्रश्न यह है कि अमीर देशों का इस बारे में क्या दायित्व है। इस के दो पक्ष हैं - एक यह कि इस स्थिति के लिये वे कितने ज़िम्मेदार हैं। दूसरे वे इस स्थिति से उभरने के लिये क्या कर सकते हैं। यह ज़िम्मेदारी मानवता की पहचान है परन्तु इस में उन की अपनी आगे की प्रगति भी निहित है। पर कुछ एक अपवाद छोड़ कर इस ज़िम्मेदारी को निभाया नहीं गया है। इस बात के प्रमाण के लिये अधिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह स्वयं स्पष्ट है। संयुक्त राष्ट्र ने अस्सी की दशक में संकल्प पारित किया था कि अमीर देशों को अपनी आय का 0.7 प्रतिशत राशि पिछड़े देशों को सहायता के लिये देना चाहिये। परन्तु इंगलैण्ड के लिये यह आँकड़ा 0.32 प्रतिशत है तथा संयुक्त राज्य अमरीका के लिये 0.10 ही है। पर दूसरी ओर इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि अमीर देशों की सहायता गरीबी की समस्या का एक मात्र समाधान नहीं हैं। इस के लिये पिछड़े देशों को स्वयं ही प्रयास करना हों गे।


क्षमाप्रार्थी हूॅं कि यह लेख काफी समय से विचाराधीन था इस कारण कुछ तथ्य आज की स्थिति से मेल नहीं खाते हों गे। हर देश गरीबी के विरुद्ध संघर्ष् कर रहा है। और इस में आशिंक रूप से सफल भी हुए हैं पर

ऐसी कुछ बात है कि गरीबी मिटती नहीं हमारी

वर्षों की मेहनत रंग लाती है आहिस्ता आहित्सा


3. पिछड़ेपन के कारण


पिछड़ेपन के कारण क्या हैं, इस को समझने का प्रयास कई लोगों ने किया है। यह अध्ययेता दो वर्गों में बाँटे जा सकते हैं जिन्हें हम आधुनिकता विचार तथा निर्भरता विचार वाले कहें गे। कभी कभी कुछ अध्ययेता अपने को माकर्सवादी भी कहते हैं परन्तु वास्तव में वे केवल निर्भरता वर्ग के ही प्रणेता हैं। केवल कुछ विवरण में वे अलग हैं जिस के बारे में हम आगे बात करें गे।


आधुनिकता वर्ग वालों का कथन है कि गरीब देश ही अपनी दशा के लिये ज़िम्मेदार हैं तथा उन्हें ही अपने को बदलना हो गा। उन का विचार है कि विकासशील देशों के लोग परम्परागत विचारधारा में लिप्त हैं तथा उन्हें अपनी परम्पराओं को छोड़ कर युरोप के देशों की तरह ही आगे आना हो गा। उन के विचार में पुरानी परम्परा में गरीबी को प्रधान स्थान दिया गया था तथा उस में व्यक्ति के आगे बढ़ने की गुँजाईश नहीं थी। परिवर्तन को महत्व नहीं दिया जाता था तथा वे अपने पूर्वजों का ही अनुकरण करना चाहते हैं। उन का कर्म अपने लाभ के लिये न हो कर केवल कर्तव्य निभाने के लिये होता है। इस में व्यक्ति, परिवार, समाज तथा विश्व के बीच कोई संघर्ष की स्थिति नहीं होती है तथा न ही अलगावपन होता है। सम्पत्ति संग्रह को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। अतः यह समाज सदैव अविकसित ही रहता है।


आधुनिकता वर्ग के अनुसार सभी समाजों को प्रगति के लिये पाँच चरणों से गुज़रना पड़ता है। यह चरण वायुयाऩ की उड़ान भरने के समानान्तर हैं। प्रथम चरण में वायुयान भूमि पर स्थिर है। कोई गति नहीं, कोई हलचल नहीं। यह परम्परागत समाज की भाँति है। दूसरे चरण में इस यथास्थिति में परिवर्तन आता है। इस के लिये बाहरी आक्रमण अथवा विज्ञान अथवा कोई अन्य कारण हो सकता है। इस अवसर का लाभ उठाया जाये अथवा वापस यथास्थिति में लौट जाया जाये, दोनों विकल्प रहते हैं। तीसरे चरण में पुरानी रुकावटों को समाप्त कर नये रास्ते पर चलना आरम्भ होता है। इस के लिये राजनैतिक शक्ति का ऐसे हाथों में होना चाहिये जो प्रगति के प्रति समर्पित हो। देश की बचत दर बढ़ जाती है। नये तकनीकी ज्ञान का लाभ उठाया जाता है। चौथे चरण में गति बढ़ाई जाती है। आर्थिक प्रगति विभिन्न क्षेत्रों में फैल जाती है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है। पाँचवें चरण में उपभोग हेतु वस्तुओं का आधिक्य होता है तथा प्रगति का लाभ सभी वर्गों को मिलने लगता है। इस चरण में प्रगति के लिये बलिदान करने की आवश्यकता नहीं होती है।


इस वर्ग के विद्वानों के अनुसार पूँजी का अर्थ केवल धन न हो कर वे समस्त वस्तुयें हैं जो भूमि तथा श्रम के अतिरिक्त उत्पादन के लिये उपयोग में आती हैं। इन में नये आविष्कार, नये कल कारखाने, नये संचार माध्यम, नई सड़कें इत्यादि सभी वस्तुयें आ जाती हैं। आरम्भ में मुक्त समाज का ज़माना था जिस में पूँजी पर व्यक्ति विशेष का अधिकार था तथा शासन को केवल बाधा समझा जाता था। बाद में इस विचारधारा में परिवर्तन हुआ तथा वर्तमान में शासन का भी योगदान प्रगति में माना जाता है। उस के दायित्व में आधारभूत संरचना - सड़कें, वायुपत्तन, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि - प्रदान करना आ जाते हैं। विचार धारा में इस परिवर्तन में 1930 के आर्थिक संकट का विशेष योगदान है।


जैसे कि पूर्व में बताया गया है, चौथे चरण में ही प्रगति का लाभ सभी को मिलना प्रारम्भ होता है। इसी कारण आरम्भ में इस औद्योगिक प्रगति का लाभ श्रमिक को नहीं मिला था। उन्हें दिन में कई कई घण्टे काम करना पड़ता था। मज़दूरी कम थी तथा काम करने का वातावरण खराब। उस समय के अर्थशास्त्रियों का मत था कि मज़दूरों को गरीब ही रहना चाहिये ताकि उत्पादन की लागत कम रहे। बाद में जब परिसम्पत्ति काफी बढ़ गई तो उन्हें भी लाभांश मिलने लगे, पूरा तो नहीं पर पहले से काफी अधिक। इस के कारणों का विश्लेषण हम आगे करें गे। पर इस का प्रभाव यह हुआ कि धीरे धीरे गरीबी उन्हीं तक सीमित रह गई जो कार्य नहीं कर सकते थे। कई लोगों का मत है कि आर्थिक आधुनिकरण के साथ साथ राजनैतिक आधुनिकरण भी हुआ। कहीं पर, जैसे कि इंगलैण्ड में यह शाँतिपूर्वक हुआ तथा कहीं पर, जैसे फ्रांस में, यह क्राँति द्वारा सम्पन्न हुआ।


आधुनिकरण वर्ग के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि विकासशील देशों को भी इसी क्रम से गुज़रना पड़े गा। यह अवश्य है कि जो आविष्कार हो चुके हैं, उन का लाभ उन्हें तुरन्त मिलना आरम्भ हो जाये गा। जो कार्य कुशलता विकसित देशों में धीरे धीरे आई, वह विकासशील देशों में तेज़ी से आ सकती है। अन्ततः प्रति व्यक्ति कितनी सम्पत्ति का अर्जन होता है, यह महत्वपूर्ण है, यह तय करने के लिये कि गरीबी कितनी देर में समाप्त हो सकती है।


आधुनिकरण वर्ग के अनुसार परम्परागत समाज में कुछ लोग दूसरों द्वारा अर्जित सम्पत्ति को हड़प लेते हैं। इस सम्पत्ति को वह उत्पादन के लिये नहीं लगाते। इस से राष्ट्रीय आय बढ़ती नहीं है। इस स्थिति से बाहर निकलने पर ही लाभ मिलना आरम्भ होता है।


इस बारे में मतभेद हैं कि आधुनिकरण के लिये प्रेरणा भीतर से आती है अथवा इसे बाहर से प्रेरित किया जा सकता है। जापान में यह प्रेरणा भीतर से आई परन्तु कई अन्य देशों में इसे बाहर से जबरन थोपा गया यद्यपि अंतिम परिणाम वही रहा। नये स्वतन्त्र देशों के वे नेता जिन का प्रशिक्षण विकसित देशों में हुआ था, प्रगति की इस क्रिया को समझते थे तथा उन के कारण अनेक देश इस रास्ते पर चले।


कहा गया है कि आज के विकसित देशों में पूँजी, जो उद्योगों में लगाई गई, केवल अपने ही लोगों की बचत से अथवा उन के शोषण से प्राप्त हुई। आज की स्थिति में इसे अन्तर्राष्ट्रीय निकायों से भी प्राप्त किया जा सकता है। विशेषज्ञाों की सलाह भी उन्हें मिल सकती है। इस वर्ग के प्रणेताओं के विचार में विकसित देशों की प्रगति विकासशील देशों की प्रगति के लिये आवश्यक है ताकि पूँजी का यह मार्ग खुला रहे।


यूँ तो इस वर्ग के विचारों को कोई नाम देने में कठिनाई है किन्तु अधिकतर लोग इसे उदार नीति के नाम से सम्बोधित करते हैं। उन का विचार है कि इस प्रगति के लिये किसी अन्दोलन, किसी हिंसात्मक कार्रवाई की आवश्यकता नहीं है। उन्हें सुधारवादी कहा जा सकता है। वह सभी देशों - विकसित तथा विकासशील देशों में - सुधार देखना चाहते हैं ताकि भागीदारी के साथ सभी प्रगति कर सकें।


गरीबी को समझाने के लिये दूसरा वर्ग निर्भरता की अवधारणा वाला है। इस वर्ग के विशेषज्ञों का मत है कि आज के अमीर देश ही शेष देशों की गरीबी के कारण हैं। इस अवधारणा के प्रेरक दक्षिण अमरीका के अर्थशास्त्री माने जाते हैं। जहाँ आधुनिकरण की अवधारणा अधिकाँशतः विकसित देशों के अर्थशास्त्रियों का विचार है, वहीं विकासशील देश निर्भरता अवधारणा के पक्ष में आगे आये हैं। इस वर्ग के अनुसार प्रगति का अभाव इस कारण नहीं है कि समाज प्रगति करने के पक्ष में नहीं है अथवा इस के लिये प्रयास नहीं करता है वरन् यह विकसित देशों द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण है।


सोलहवीं शताब्दि के पूर्व संसार के अधिकतर देशों का आपस का सम्बन्ध बहुत कम था। उस समय किसी समाज को परम्परागत कहना ठीक था। इस के बाद साम्राज्य विश्वव्यापी होने आरम्भ हो गये। युरोप के देशों से व्यापारी पूरे विश्व में लाभ अर्जित करने के लक्ष्य को ले कर जाने लगे। कच्चे माल को प्राप्त करने, तैयार माल को बेचने तथा लम्बी दूरी के व्यापार के कारण उन्हों ने पूरे विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। राजनैतिक बल के आधार पर अथवा आर्थिक बल के आधार पर उन्हों ने असमान सौदों को अंजाम दिया।


उन के इस प्रभुत्व ने पूरे विश्व की सामजिक संरचना को झंझोड़ कर रख दिया। यह प्रक्रिया अभी चार सौ वर्ष बाद भी निरन्तर चल रही है। यद्यपि उपनिवेशवाद समाप्त हो गया है किन्तु आर्थिक उपनिवेशवाद पूर्व की भाँति यथावत है वरन् इस में और तीब्रता आई है। विकासशील देशों के लोग विकसित देशों के लिये कार्य करते हैं, वे उन के आपसी संघर्ष में भागीदार बनाये जाते हैं, उन्हें विकसित देशों की भाषा बोलना पड़ती है। उन के सामाजिक सम्बन्ध विकसित देशों की समाज व्यवस्था से प्रभावित होते हैं। ऐसे में यह कहना कि वे अभी भी परम्परागत तरीके से रह रहे हैं, हास्यास्पद है। उन्हें बदल दिया गया है। तथा यह परिवर्तन केवल संयोगवश नहीं है। उन्हें विकसित देशों के हित के लिये ही परिवर्तन करना पड़ा है। यह परिवर्तन भले के लिये न हो कर उन के लिये हानिप्रद ही है। औद्योगिक जगत के विकास के कारण ही इन देशों की सामाजिक व्यवस्था बदली है, उन में गरीबी बढ़ी है, तथा उन्हें विकास की राह पर चलने से वंचित किया गया है।


एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो सके गा। इंगलैण्ड में मध्यम वर्ग के उत्थान के लिये गुलामों का व्यापार ही ज़िम्मेदार था। अफ्रीका से गुलाम खरीदे जाते थे तथा अमरीका एवं पास के द्वीपों में बेचे जाते थे। इस व्यापार का लाभ इंगलैण्डवासियों को ही मिलता था। इन गुलामों के बदले में व्यापारी इन गुलामों द्वारा बनाई गई चीनी खरीदते थे जो युरोप में अथवा अमरीका में बेची जाती थी। इस का लाभ भी उन्हें जाता था। अमरीका से खाद्यान्न क्रय किये जाते थे जो युरोप में बेचे जाते थे। इसी कारण इंगलैण्ड को सस्ता भोजन मिलता था तथा निवेश के लिये पैसे मिलते थे। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि अन्य देशों में लोग गरीब क्यों थे। उन गुलामों के द्वारा उत्पादित सम्पत्ति उन के लिये नहीं थी। यह कहना हास्यास्पद हो गा कि इन गुलामों का समाज परम्परागत है तथा यही इन की गरीबी का कारण है।


अन्य देशों की हालत भी कमोबेश इसी प्रकार की है। थोड़ा बहुत परिवर्तन स्थानीय स्थितियों के अनुसार हो सकता है पर अधिकाँशतः यही तरीका अपनाया गया। रबड़, गन्ना, कपास, पटसन, कोको, तम्बाकू इत्यादि के उत्पादन के लिये बड़े बड़े बागान बनाये गये तथा इन में स्थानीय अथवा बाहर से लाये गये मज़दूरों को अमानवीय परिस्थितियों में रखा जा कर अधिक तथा सस्ता उत्पादन कर लाभ अर्जित किया गया। इसी प्रकार खदानों में कार्य करवाया गया। मज़दूरी कम रखा ही जाना थी ताकि अधिक से अधिक लाभ कमाया जा सके।


निर्भरता वर्ग का कहना है कि इस के लिये शासन पद्धति क्या थी, यह महत्वपूर्ण नहीं है। कहीं सीधे शासन किया गया, कहीं कठपुतली सरकार बनवाई गई। कहीं केवल आर्थिक दबाव का प्रयोग किया गया किन्तु लक्ष्य एवं परिणाम सब का एक ही था - इन देशों की गरीबी तथा विकसित देशों की अमीरी।


आज के विश्व में भी यही प्रवृति देखने को मिल रही है। आज के बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जिन के मुख्यालय अमरीका अथवा युरोप अथवा जापान में हैं, अनेकों देशों में कार्य करती है। उन की शक्ति ऐसी है कि कमज़ोर देश उन की लिये लाभदायक नीतियों पर चलने से इंकार नहीं कर सकते हैं। इस से उन की आर्थिक नीतियों प्रभावित होती हैं तथा उन्हें मजबूर किया जाता है कि वह अमुक औद्योगिक नीति को चुनें। इसी प्रकार बड़े बैंक भी स्थानीय मुद्रा को अस्थिर करने की कार्रवाई करने में सक्षम रहते हैं तथा अपनी इस शक्ति का लाभ अपनी शर्तें मनवाने के लिये उठाते हैं। इसी प्रकार विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, जो विकसित देशों द्वारा नियन्त्रित हैं, भी विकासशील देशों को पूँजीवादी नीतियाँ अपनाने के लिये विवश करते हैं।


निर्भरता अवधारणा केवल निर्यात के बारे में ही बात नहीं करती है। गत कुछ वर्षों में कुछ विकासशील देशों ने औद्योगिक विकास का मार्ग चुना है पर यह भी अमीर देशों द्वारा नियन्त्रित हैं। वह स्थानीय अमीर लोगों के लिये उपभोक्ता वस्तुयें बनाते हैं तथा गरीबी को दूर करने में किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं की जाती। चूँकि यह उद्योग मशीनरी पर अधिक तथा श्रमिकों पर कम निर्भर हैं अतः इन का परिणाम बेरोज़गारी बढ़ाने का होता है। इन देशों में पूँजीवादी वर्ग तथा मध्य वर्ग बढ़ तो रहा है किन्तु वह अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ है कि वह अर्थ व्यवस्था की दिशा को तय कर सके। इस का कारण यह है कि यह पूँजीवादी वर्ग स्वयं विदेशी पूँजीवादी वर्ग पर निर्भर है। वह उस प्रकार का जोखिम नहीं उठा सकते अथवा नहीं उठाना चाहते जो अर्थ व्यवस्था में आमूल परिवर्तन ला सके। आम तौर पर विदेशी शक्तियों का अधिक प्रभाव केन्द्रीय नेतृत्व पर रहता है जो अपनी बारी पर वही व्यवहार प्रदेशों के साथ करता है।


गत वर्षों में आयात निर्यात के मामले में विकासशील देश विकसित देशों के साथ समानता के आधार पर व्यापार नहीं कर पा रहे हैं। निर्यात वस्तुओं का मूल्य बढ़ा है किन्तु आयातित वस्तुओं का मूल्य अधिक तेज़ी से बढ़ा है। निर्यातित वस्तुओं का दाम इस लिये कम है कि विकासशील देशों में कम मज़दूरी पर कार्य होता है। जो लाभ तथा बचत है, वह विकसित देशों को अन्तरित हो जाती है, उस देश में निवेश के काम में नहीं आती है। यह एक दुष्चक्र बन जाता है। निर्यात का मूल्य कम है क्योंकि इन देशों में मज़दूरी कम है। विकसित देशों में मज़दूरी अधिक है इस कारण वहाँ पर उत्पादन का मूल्य बढ़ जाता है। चूँकि आयात के लिये अधिक पैसा देना पड़ता है अतः मज़दूरी कम की जाती है। इस के साथ ही जो अतिशेष विकासशील देशों में होता भी है, वह अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा स्वदेश ले जाया जाता है। जो बचत विकास के काम आती, वह इस प्रकार अन्तरित हो जाती है। आम तौर पर विकासशील देशों में जो कारखाने आरम्भ किये जाते हैं, उन के लिये पैसा बाहर से नहीं आता वरन् स्थानीय लोगों की बचत ही लगाई जाती है किन्तु लाभ बाहर चला जाता है। इस प्रकार के शोषण का चक्र सोलहवीं शताब्दी से ही आरम्भ हो चुका है जब दक्षिण अमरीका में सोने तथा चाँदी का पता चला था। इन का कोई लाभ स्थानीय जनता को नहीं मिल पाया। निकट भूतकाल में अरब देशों में तेल भण्डार में भी विदेशी कम्पिनियों ने ही लाभ कमाया है। कुछ कठपुतलियों को भी भागीदार बनाया गया है किन्तु आम लोगों को कोई लाभ नहीं मिला।


एक उदाहरण से यह अधिक स्पष्ट हो सके गा। अफ्रीका में ईथोपिया, आईवरी कोस्ट, घाना, तथा बुरुण्डी बड़ी हद तक कोकवा तथा काफी के निर्यात पर निर्भर हैं। परन्तु क्या इस से उन को लाभ पहुॅचा है। आईवरी कोस्ट से कोकवा का निर्यात विश्व के 41 प्रतिशत के बराबर है। इस का परिमाण बढ़ा है पर इस से प्राप्त आय में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है बल्कि वास्तविक आय (विदेशी मुद्रा की दर को देखते हुये) कम ही हुई है। कोकवा की मूल्य 1850 ईसवी में 550 डालर प्रति टन था जो 1937 में लगभग 75 डालर रह गया (तथा किसानों ने स्वयं अपनी फसल जलाना आरम्भ कर दी)। इस के बाद थोड़ी रियायत हुई पर 1950 में यह 200 डालर प्रति टन से कम था। यह एक उदाहरण कि किस प्रकार विकसित देशों ने विकासशील देशों का शोषण किया है। यही स्थिति काफी की भी है जिस का वास्तविक लाभ केवल स्टारबक इत्यादि कम्पनियों को मिलता है तथा उत्पादक किसान गरीबी से ही झूझता रहता है।


आर्थिक दासता का परिणाम राजनैतिक दासता भी हो जाता है। केवल उन लोगों को ही बर्दाश्त किया जाता है जो हाँ में हाँ मिलाते रहें। अमरीका उन्हीं देशों का समर्थन करता है जो अमरीकन उद्योगपतियों का स्वागत करता है। जहाँ पर ऐसा नहीं होता वहाँ उन्हें हर तरह से परेशान किया जाता है और आवश्यक हो तो सैनिक हस्तक्षेप भी किया जाता है। इस का एक उदाहरण बरकीना फासो है जहाॅं थामस संगकारा ने बिना विदेशी सहायता के तथा विदेशी दबाव के देश की प्रगति का प्रयास किया पर चार वर्ष में ही उस को तख्ता फ्रांस तथा पड़ोसी देश द्वारा सैनिक हस्तक्षेप से पलट दिया गया।


आधुनिकता अवधारणा के लोग पूँजीवाद को निर्माण शक्ति मानते हैं। उन का कहना है कि इसी से अन्ततः विकासशील देश सम्पन्न हो सकते हैं। किन्तु निर्भरता अवधारणा वाले पूँजीवाद को ही विकासशील देशों के गरीब होने का कारण मानते हैं। शताब्दियों से यह विकासशील देश पूँजीवाद के ही भाग रहे हैं। विकसित देशों की प्रगति बचत के आधार पर हुई है तथा यह बचत विकासशील देशों के शोषण से ही हुई है। आधुनिकता अवधारणा वाले मानते हैं कि विकासशील देश ही अन्य देशों की गरीबी को समाप्त कर सकें गे। निर्भरता अवधारणा वाले उन्हें ही राह का रोड़ा मानते हैं। कई बार आधुनिकता वर्ग वालेे निर्भरता वर्ग के तर्कों का सीधा उत्तर नहीं देते वरन् उसे केवल राजनीति से प्रेरित कह कर टाल देते हैं।


सभी निर्भरता अवधारणा वाले यह नहीं मानते कि विकसित देशों को समाप्त कर के ही प्रगति हो सकती है। परन्तु कुछ यह मानते हैं कि आग का उत्तर आग से ही देना चाहिये। जो भी हानि विकसित देशों ने अन्य देशों को पहुँचाई है, उस के बदले में उतना ही विकास कर उन को पहुँचाई जाना चाहिये। जापान का उदाहरण दिया जाता है जिस ने उन्हीं तरीकों से आज पश्चिमी देशों का नाक में दम कर रखा है। दक्षिण कोरिया, ताईवान, मलेशिया, सिंगापुर भी इसी राह पर चले हैं तथा अब चीन भी उन की कतार में आ चुका है।


इस के विरोधी इस तर्क को नहीं मानते। नये विकसित देशों में यह भावना नहीं है कि वह अन्य विकासशील देशों के विकास की बात करें। वह केवल इस शिविर से उस शिविर में चले गये हैं। उन का यह भी कहना है कि इन देशों में भी भले ही राष्ट्रीय धन में वृद्धि हुई है किन्तु इस का एक समान लाभ सभी नागरिकों को नहीं मिल रहा। जापान को छोड़ कर अन्य देशों में गरीब लोगों को कोई राहत नहीं मिली है।


एक अन्य वर्ग यह महसूस करता है कि पूँजीवाद में तो बुराई नहीं है पर इस पर सख्त नियन्त्रण रखा जाना आवश्यक है। उसे स्थानीय आवश्यकतायें पूरा करने के ओर मोड़ना चाहिये न कि बाहर के देशों की सहायता करने के लिये। पर यह अनुशासन आधे मन से किया जाता है तथा कई लोगों द्वारा इन का विकल्प निकाल लिया जाता है। इस के लिये स्थानीय भ्रष्टाचार सहायक सिद्ध होता है। उन के विचार में केवल पूर्ण समाजवादी परिवर्तन ही इस दलदल से बाहर निकाल सकता है।


इसी समाजवाद का एक रूप मार्कस है। वह अपने को एक अलग वर्ग के तौर पर पेश करते हैं किन्तु उन के तर्क लगभग वैसे ही हैं जैसे कि निर्भरता वर्ग वालों के हैं। उसे इस का एक अंग माना जा सकता है। उन का कहना है कि सामाजिक पविर्तन समाज संघर्ष का अंग हैं। मज़दूर मालिकों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं तथा किसान भूमि स्वामी के विरुद्ध। इन संघर्ष में से ही गरीबी, आर्थिक प्रगति तथा क्राँतियाँ घटित होती हैं। इसी वर्ग संघर्ष से ही वर्ग बनते तथा बिगड़ते हैं। विकासशील देशों में यह संघर्ष आँतरिक हैं, बाहरी नहीं। इस वर्ग का विचार है कि पूँजीवाद ही विकासशील देशों में प्रगति ला सकता है। श्रमिकों को भागीदार बनाये जाने के अतिरिक्त उन के लिये भी प्रगति का मार्ग वैसा ही है जैसा विकसित देशों ने अपनाया था। उन का यह भी विचार है कि उपनिवेशवाद भी प्रगति का वाहक हो सकता है। यह तर्क आधुनिकता अवधारणा के तर्कों के समान ही प्रतीत होते हैं किन्तु उन के विचारों में थोड़ा अन्तर है। माक्र्सवादियों के विचार में मध्य युग में यूरोप में किसानों तथा भूमिस्वामियों में संघर्ष था। कृषि मज़दूरों के संघर्ष के कारण भूमिस्वमियों को पूँजीवादी बनना पड़ा तथा उद्योगों की स्थापना की गई। कृषि में भूमि तथा औज़ार तो मज़दूरों के पास थे। पूँजीवादियों ने पाया कि उद्योग में तो वह भी उन के हाथ में रहें गे जिस से वह अधिक लाभ अर्जित कर सकें गे। अधिक लाभ उन्हें वृद्धि का अवसर दे गा जो भूमि के मामले में सीमित था। पूँजीवाद में मज़दूरों के शोषण से ही उन्हें अधिक लाभ हो गा। उन की आपसी प्रतियोगिता उन के अतिशेष को बढ़ाने के बारे में हो गी। पर इस अतिशेष के बटवारे के बारे में वह सशंकित हैं। उन के विचार में इस से देश तो आगे बढ़े गा पर साथ ही साथ विषमता भी बढ़े गी। साथ ही श्रमिक वर्ग के जीवन स्तर पर भी विपरीत प्रभाव पड़े गा। इस प्रकार ऐसी स्थिति आये गी जब क्राँति अवश्यमभावी हो जाये गी। परन्तु मार्कस बात की ओर ध्यान नहीं दे पाया कि अन्ततः उत्पादकता बढ़ाने के लिये ही सही, पर श्रमिकों की हालत में सुधार आये गा तथा उन्हें भी प्रगति में भागीदार बनाया जाये गा।


आधुनिक मार्कसवादी पूँजीवाद के विरुद्ध अधिक नहीं कह पाते परन्तु वह इसे एक मात्र उत्पादन का तरीका नहीं मानते। उन का विचार है कि समाजवाद भी प्रगति ला सकता है। वह श्रमिक वर्ग को अधिक प्रेरित कर सकता है। इस से विषमता कम हो गी तथा वही देश की शक्ति हो गी। मौलिक बात यह है कि श्रमिक के पास उत्पादन के साधन नहीं हैं अतः उसे मज़दूरी पर कार्य करना पड़ता है। इस स्थिति में परिवर्तन ही वास्तविक प्रगति लाये गा। निर्भरता अवधारणा वाले इसे नहीं मानते। उन का कहना है कि पूँजीवाद विश्वव्यापी व्यवस्था है। इस के केन्द्र पश्चिमी देशों में था, इस कारण वह मुख्य भूमिका में आ गये। मज़दूरी अपनाने का प्रश्न नहीं था वरन् इस के लिये अलग तरीके - गुलामी, ठेकेदारी, बटाईदारी इत्यादि अपनाये गये। विश्व आज बाज़ार पर आधारित है न कि मज़दूरी के करार पर। पर यह बाज़ार असमानता के आधार पर चल रहा है क्योंकि विकसित देश अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं हैं।


आधुनिकता अवधारणा में तथा मार्कसवादी अवधारणा में राज्य की भूमिका को ले कर मतभेद है। आधुनिकता अवधारणा का कहना है कि राज्य का दायित्व है कि वह प्रगति में तथा उद्योग में आने वाली रूकावटों को हटाने का कार्य करे पर वे इसे सामाजिक संरचना का अंग नहीं मानते। माक्र्सवादी राज्य को सामाजिक संरचना का अंग मानते हैं। राज्य शासक वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करता है। यदि उस की नीति सही है तो आर्थिक प्रगति हो सके गी अन्यथा संघर्ष की स्थिति प्रस्तुत हो गी। यदि सत्ता श्रमिकों के हाथ में हो गी तो वह सामाजिक संरचना के साथ साथ आर्थिक संरचना को भी बदल सके गा। उन का विचार है कि विदेशी शासक भी कभी कभी पुरानी संरचना को तोड़ने में सहायता करते हैं तथा इस तरह से वे प्रगति के वाहक बनते हैं।


बहुराष्ट्री़य निगमों के बारे में भी मतभेद है। निर्भरता विचार वाले इन्हें विदेशी मालिकों की मरज़ी पर आधारित मानते हैं जो स्थानीय उत्पादन में अपने लाभ के लिये उत्थल पुथल कर सकते हैं। मार्कसवादी इन्हें उसी मालिक मज़दूर के संर्घष का भाग मानते हैं। यह प्रगति के वाहक बन सकते हैं जैसे कि साठ तथा सत्तर के दशक में दक्षिण अमरीका के बड़े देश ब्राज़ील तथा मैक्सीको में हुआ था। सत्तर की दशक में तेल निर्यातक देशों में प्रगति हुई। अस्सी तथा नब्बे के दशकों में पूर्वी एशिया के देशों में प्रगति हुई। तेल निर्यातक देशों की बात छोड़ दें तो अन्य देशों में प्रगति पूँजीवादी तरीके से हुई जिस में राज्य उन की सहायता कर रहे थे। निर्भरता विचार वाले कहते हैं कि इस से गरीबी में कमी नहीं हुई तथा यह देश लम्बी दौड़ में सफल होने वाले नहीं हैं जब तक वे अपने आँतरिक सुधार को नहीं देखते। माक्र्सवादी इसे यह कह कर समझाते हैं कि यह पूँजीवाद का सामान्य व्यवहार है कि विषमता बढ़े गी। तथा इस विषमता का समाधान साम्यवाद में ही है।


मार्कस का मौलिक विचार कि पूँजीवाद अपने ही भार से गिरे गा, सही सिद्ध नहीं हुआ है। इस के विपरीत साम्यवादी क्राँतियाँ पिछड़े देशों में ही हुईं। पर साम्यवादी व्यवस्था के बावजूद गरीबी में परिवर्तन नहीं आ पाया। रूस में राज्य को ही औद्योगिकरण के लिये सामने आना पड़ा। पर अतिरिक्त कमाई का वितरण साम्यवाद के मूल सिद्धाँतों के अनुसार नहीं हो पाया। निर्भरता अवधारणा वाले समाजवाद को ही एक मात्र समाधान मानते हैं ताकि विषमता कम की जा सके।


यह स्पष्ट है कि तीनों दृष्टिकोण में कुछ तर्क सही हैं। सामाजिक वास्तविकता बहुत विविध तथा जटिल है। वैसे भी छह अरब लोगों के एक समान होने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस का कोई एक रूप नहीं है। यह बात समझाना कठिन है कि इतनी बहुलता के बीच गरीबी क्यों है। सभी स्पष्टीकरणों में कुछ सत्य है पर वह पूरी बात को समझा नहीं पाते। उदाहरण के तौर पर इस बात को लें कि क्या पिछड़े देशों की संस्कृति को परम्परागत मानना चाहिये अथवा प्रतिबिम्बित। वह दोनों ही हैं। पुराने शासकों की कई बातों को ग्रहण कर लिया गया है जिस से वे पारम्परिक नहीं रह गईं हैं। पर उन्हों ने अपने पुराने विचार भी नहीं छोड़े हैं अतः वह पूरी तरह प्रतिबिम्बित भी नहीं हैं। प्राचीन संस्कार आज भी उन्हें प्रभावित करते हैं। इन दोनों के बीच जो विरोधाभास तथा संघर्ष है, वह कई देशों को जकड़े हुए है।


प्रश्न यह है कि गरीबी हट क्यों नहीं पा रही है। कुछ देशों में यह कम हो रही है पर अन्य में बढ़ भी रही है। न तो उपनिवेशवाद की समाप्ति ने इस स्थिति में परिवर्तन किया है तथा न ही तकनीकी तथा राजनैतिक परिवर्तन इस बाबत कुछ कर पाये हैं। जिन तीन अवधारणाओं की बात हम ने की है, उन में से आधुनिकता वर्ग वाले तो इसे मानने से ही इंकार करते हैं। उन का कथन है कि समय के साथ गरीबी समाप्त हो जाये गी। इस के लिये कुछ करना आवश्यक नहीं है। वर्तमान में जो समस्या है, उस के बारे में कथन है कि सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं। भारत में ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी इस लिये है कि भारत सरकार ने कृषि की ओर कम तथा उद्योग की ओर अधिक ध्यान दिया है। फिलिपीन में गरीबी इस लिये है कि वहाँ पर गल्त उद्योग को प्रोत्साहित किया गया जिस के उत्पादन के लिये विदेशी बाज़ार नहीं था। कुछ का तर्क है कि सरकारें, अमीर तथा गरीब दोनों, बहुत अधिक हस्तक्षेप करती हैं। बाज़ार पर छोड़ दें तो यह समस्या हल हो सकें गी।


अन्य दोनों अवधारणायें, निर्भरता तथा मार्कसवादी, सरकार को गरीबी के लिये ज़िम्मेदार नहीं मानती। वह इस के लिये बाहरी कारण डूँढते हैं तथा सरकार को इन कारणों का पोषक अथवा सहभागी बताते हैं क्योंकि सरकार उसी व्यवस्था का अंग मात्र है। निर्भरता अवधारणा वाले विकसित देशों को गरीबी के लिये दोष देते हैं और इस के लिये विकासशील देशों को इन से सम्बन्ध समाप्त करने अथवा कम करने का परामर्श देते हैं। इस के लिये समाजवादी क्राँति आवश्यक हो गी तथा नई व्यवस्था में समाज सरकार को नियन्त्रित करे गा। मार्कसवादी चाहते हैं कि पुराने सामाजिक ढाँचे को भी बदला जाये तथा शोषित वर्ग सरकार का हथिया कर नीति परिवर्तन करे।


कुल मिला कर देखा जाये तो निर्भरता अवधारणा के विचार विकास की गति कम होने को अधिक अच्छी तरह से समझा सकती है। पिछड़े देशों में शताब्दियों से सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तन हो रहे हैं। अधिकतर यह उपनिवेशवादी देशों की नीतियों के कारण हैं। दक्षिण अमरीका में निवासी लगभग सभी आप्रवासी लोगों के वंशज हैं। कई देश एक या दूसरी वस्तु के निर्यात पर निर्भर हैं जैसे जैमिका से बाक्साईट; ग्राज़ील से काफी; क्यूबा से चीनी; घाना से कोकाआ; मलेशिया से रबड़। इन के लिये बाज़ार विकसित देश है तथा वे ही इन का मूल्य तय करते हैं। वहाँ की निर्मित वस्तुयें तथा कहीं कहीं कृषि उत्पादन भी वहाँ से आते हैं तथा इन का मूल्य भी वही तय करते हैं। जनसंख्या में वृद्धि की दर भी आयातित तकनीक (जिस के कारण मृत्यु दर में कमी आती है) के कारण है। यद्यपि इन देशें में पुरानी सभ्यता के अवशेष अभी हैं किन्तु उन्हें पुरानी सभ्यता के देश नहीं माना जा सकता। उस में मौलिक परिवर्तन आ चुका है। साथ ही इन देशों की नीतियाँ स्वतन्त्र रूप से तय नहीं होती हैं। कुछ लोगों का विचार है कि विकसित देशों से सम्बन्ध तोड़ने से प्रगति हो सकती है किन्तु यह सम्भव नहीं है। आर्थिक प्रगति विश्वव्यापी प्रक्रिया है तथा इस से मुँह मोड़ा नहीं जा सकता है। अन्ततः समाजवाद ही एक मात्र समाधान है।


यह नहीं कि विकासशील देशों में अपने खलनायक नहीं हैं। युगाण्डा के अमीन, काँगो के गृह युद्ध, कम्पूचिया के पोल पाट, रवांडा में जातीय नर संहार बाहर के थोपे हुए नहीं हैं। साम्यवाद पूर्वी युरोप के देशों को अथवा सोवियत रूस को बचा नहीं पाया। इस के विपरीत भारत में प्रजातन्त्र की निरन्तरता, ताईवान तथा दक्षिण कोरिया की सफलता उन की आँतरिक शक्ति के कारण ही सम्भव हो पाया है। कहने का तात्पर्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय तथा भीतरी दोनों ही पक्षों को मिला कर चलने की आवश्यकता है।


इन अवधारणाओं के पीछे एक विश्व व्यापी दृष्टिकोण देखने को भी मिलता है। विकसित देश का व्यक्ति सोचता है - ‘मैं ने विद्या अर्जित की, परिश्रम किया, कमाया। तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकते’। पिछड़े देश का व्यक्ति सोचता है - ‘मैं ऐसा कैसे कर सकता हूॅ। जब तुम ने मेरी गरदन पकड़ रखी है।’ पहला पक्ष कहता है - ‘मैं ने किसी की गरदन नहीं पकड़ी। मैं तो कहता हूँ कि सब को बराबर का अवसर मिलना चाहिये। मैं ने अवसर का लाभ उठाया, तुम भी उठाओ।’ उत्तर आता है - ‘दिक्कत यह है कि न केवल तुम हर बात को नियन्त्रित करते हो बल्कि इस सत्य को मानने को भी तैयार नहीं हो।’ यही विश्व की त्रासदी है।


4. उपनिवेशवाद


उपनिवेशवाद एक जीती जागती हकीकत है। अश्वेत लोगों को योरुप के लोगों द्वारा शताब्दियों तक इसे झेलना पड़ा। परन्तु आधुनिकता मत वालों का कहना है कि उपनिवेशवाद के कोई स्थाई परिणाम नहीं हुए तथा यदि तीसरे विश्व के लोग आज पिछड़े हैं तो यह उन के परम्परागत जीवन के कारण है। निर्भरता मत वाले तथा मार्कवादियों के लिये उपनिवेशवाद एक बड़ा मुद्दा है। मार्कसवादियों की दृष्टि सीमित है तथा उन का मानना है कि उपनिवेशवाद ने परम्परागत संरचना को छिन्न भिन्न कर दिया तथा उस के स्थान पर वर्ग उपजे जिन का संघर्ष अब चल रहा है। निर्भरता मत वालों का कथन है कि उपनिवेशवाद का परिणाम ही आज के तीसरे विश्व की गरीबी है।


उपनिवेशवाद का परिणाम न केवल गरीबी के रूप में हुआ है वरन् उस ने देशों की सीमा के साथ भी खिलवाड़ किया है। स्थानीय भाषाओं को भी समाप्त कर दिया है। स्थानीय उद्योगों को समाप्त कर दिया गया है। अर्थव्यवस्था में जो परिवर्तन किये गये हैं, वे ही आज नगर की मलिन बस्तियों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। परम्पराओं को समाप्त करने के पश्चात भी आधुनिकता सिद्धाँत वालों का कथन कि केवल परम्परा ही गरीबी की जन्मदाता है, वास्तविकता से मुँह मोड़ना है। उपनिवेशवाद ने किस प्रकार पुराने समाज में परिवर्तन किया है, इस पर थोड़ा विचार करें।


उपनिवेशवाद को तीन चरणों में देखा जा सकता है। प्रथम 1492 से 1776 के बीच जब योरुप के देशों ने सागर के रास्ते अन्य देशों तक पहुँचना आरम्भ किया। उन के नये प्रकार के हथियारों के सामने पुराने युद्ध के तौर तरीके बौने सिद्ध हुए। दक्षिण अमरीका में इंका साम्राज्य, उत्तर अमरीका में एज़टैक साम्राज्य टिक नहीं पाये। पुर्तगाल तथा स्पैन ने इन सभ्यताओं को तो नष्ट किया ही, साथ ही पूरी की पूरी जाति को ही समाप्त कर दिया। जब अमरीका में रैड इण्डियन को समाप्त किया गया तो कुछ बचे तथा उन्हें श्वेत लोगों के लिये काम करने को कहा गया किन्तु स्वतन्त्र तबियत के वे लोग उन के कहे अनुसार कार्य न कर पाये अतः अफ्रीका से गुलामों को लाया गया। अफ्रीका में कोई बड़े साम्राज्य नहीं थे तथा खनिज पदार्थ भी तब तक नहीं मिले थे तो वहाँ पर गुलामों का व्यापार आरम्भ किया गया। संक्षेप में सभी स्थानों पर परम्परागत जीवन को समाप्त कर श्वेत लोगों का वर्चस्व स्थापित किया गया। जहाँ पर (जैसे मैक्सिको में) श्वेत लोगों ने स्थानीय औरतों के साथ घर बसाया वहाँ पर नई प्रजाति का जन्म हुआ जो संस्कृति की दृष्टि से मूलतः युरोप की संस्कृति के प्रतिनिधि थे। यह कहना अतिश्योक्ति न हो गा कि आज के विकसित देशों की सम्पदा तथा स्मृद्धि का आधार व्यापक नरसंहार एवं शोषण है।


उपनिवेशवाद का दूसरा दौर 1776 से 1870 का गिना जा सकता है। इस का आरम्भ संयुक्त राज्य अमरीका के गठन के साथ हुआ। इस का दूसरा बड़ा पक्ष इंगलैण्ड की शक्ति में वृद्धि था जब कि फ्रांस, स्पैन तथा पुर्तगाल का पूर्व जैसा वर्चस्व नहीं रहा। 1820 में दक्षिण अमरीका के देश (जो वास्तव में श्वेत तथा संकर जाति के लोगों का देश बन चुके थे) ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया तथा इंगलैण्ड की शक्ति के कारण स्पैन अथवा पुर्तगाल कुछ कर नहीं पाये। 1815 में फ्रांस की हार के बाद उस की चुनौती भी समाप्त हो गई। पर फिर भी दक्षिण अमरीका में तथा अफ्रीका व एशिया में कुछ अंश तक उन के उपनिवेश स्थापित रहे। इस अवधि के दौरान उन स्थानों पर जहाँ श्वेत लोगों ने स्थाई निवास बना लिया था तथा स्थानीय चुनौती समाप्त हो चुकी थी, कुछ स्वतन्त्रता दी गई जैसे कनाडा तथा आस्ट्रेलिया में। दक्षिण अफ्रीका की भी ऐसी ही स्थिति थी यद्यपि वहाँ पर बोअर युद्ध के बाद ही उन्हों ने पूर्ण सत्ता छोड़ी। पर बोअर भी उसी श्वेत संस्कृति का अंग थे। एक दृष्टिकोण यह भी है कि यह पाया गया कि बिना सीधे शासन के भी वही लाभ पाये जा सकते हैं। सामान्यतः व्यापार कम्पनियों को अपना कार्य करने की तथा प्रशासन की अनुमति दी गई किन्तु जहाँ पर कोई विद्रोह हुआ वहाँ पर सीधे शासन की व्यवस्था भी की गई जैसेे कि भारत में 1857 के संघर्ष के बाद हुआ।


उपनिवेशवाद का तीसरा चरण 1870 से 1914 तक का माना जा सकता है। इस अवधि में इंगलैण्ड के अतिरिक्त फ्रांस, बैलजियम, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल ने फिर से विस्तार की नीति अपनाई। अमरीका तथा जापान भी इस सूची में शामिल हो गये। इस बीच में संसार की अधिकाँश क्षेत्र पर इन का आधिपत्य स्थापित हुआ। सब से अधिक प्रभावित अफ्रीका महाद्वीप था। गोल्ड कोस्ट, नाईजीरिया, कीनिया, युगण्डा, मिस्र, सुडान तथा सोमालिया में इंगलैण्ड; अलजीरिया इत्यादि के अतिरिक्त मध्य अफ्रीका में फ्रांस ने, लीबिया तथा ईथोपिया में इटली ने, कांगो में बैलजियम ने कब्ज़ा कर लिया। जर्मनी टांगानियका, कैमरून तथा दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका में पहुँचा। उधर एशिया में बर्मा तथा मलाया में इंगलैण्ड ने तथा इण्डोचीन में फ्रांस ने वर्चस्व स्थापित किया। हालैण्ड ने इण्डोनेशिया को अपना अपनिवेश बनाया। चीन में सीधे आधिपत्य तो नहीं किया गया किन्तु अफ़ीम युद्ध के बाद उसे पूरी तरह काबू में कर लिया गया। इस में अमरीका भी शामिल हो गया जो जापान की विस्तार नीति को नियंत्रित करना चाहते थे। 1845 में अमरीका ने मैक्सीको की आधी भूमि पर कब्ज़ा कर लिया था। एशिया में फिलिपीन्स पर कब्ज़ा किया गया। मध्य अमरीका में भी उस ने स्पैन को 1898 के युद्ध के बाद बाहर का रास्ता दिखा दिया। 1914 तक लगभग पूरा विश्व इन उपनिवेश करने वाली शक्तियों में बट चुका था।


आश्चर्य की बात यह है कि इस काल के पाश्चात्य देशों के कुछ बुद्धिजीवियों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध लिखा। वैसे देखा जाये तो साम्राज्य स्थापित करना कोई नई बात नहीं है। यूनान तथा रोम के साम्राज्य भी विस्तृत थे। भारत में चक्रवर्ती राजा की कल्पना सदैव से रही है। परन्तु यह राज्य उस रूप से प्रमुख देश द्वारा शासित नहीं थे जैसे कि उन्नीसवीं शताब्दि में हुए। वास्तव में यह एक तरह के गठबंधन थे। शोषण के नाम पर केवल वार्षिक खिराज देना पड़ता था पर स्थानीय प्रशासन प्रभावित नहीं हुआ। उपनिवेशवाद का वास्तविक स्वरूप आधिपत्य करने वाले देशों द्वारा किया जाने वाला शोषण था जिस का आश्य विजयी राज्यों को स्मृद्ध कर सकने का था। इस नई पद्धति के लिये नवीन प्रकार के हथियारों का भी योगदान था। इस के अतिरिक्त विज्ञान तथा तकनालोजी में उन्नति भी एक कारण रही। इस के कारण कृषि, शिल्पकला, निर्माण, जहाज़ निर्माण एवं ऊर्जा उत्पादन सभी प्रभावित हुए।


इस उपनिवेशवाद के परिणामों पर दृष्टि करें तो सब से अधिक महत्वपूर्ण बात शिक्षा एवं भाषा पर प्रभाव का है। आज तीसरे विश्व के अधिकाँश देशों की भाषा वहाँ की मूल भाषा न हो कर युरोप की कोई भाषा है। नाम के लिये भले ही स्थानीय भाषा का नाम लिया जाता हो पर व्यवहार की भाषा विदेशी ही है। कुछ अपवाद है जैसे इण्डोनेशिया तथा वीयतनाम परन्तु सामान्य नियम वही है। इस विदेशी भाषा के माध्यम से नीति निर्माता, लेखक, विचारक पूरे विश्व को प्रभावित करते हैं। भाषा संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है तथा स्थानीय भाषा के गौण हो जाने के साथ ही स्थानीय संस्कृति भी गौण हो जाती है तथा इस का स्थान विदेशी संस्कृति ले लेती है। उदाहरण स्वरूप सौदेबाज़ी को ही लें। भारत में यह बड़े इत्मीनान से और नज़ाकत से होता था। ज़बानी जमा खर्च पर ही लाखों की बात हो जाती थी। पर अंग्रेज़ी कानून में लिखित शब्द को जो महत्व दिया जाता है, उस ने सारी स्थिति में परिवर्तन ला दिया है। लिखित शब्द पर विश्वास ने अदालती कार्रवाई को अग्रिम पंक्ति में ला दिया। स्थानीय न्याय व्यवस्था समाप्तप्रायः है।


एक और उदाहरण स्वास्थ्य सेवाओं का है। इस का प्रभाव संयुक्त परिवार की पद्धति पर पड़ा। भारत में तथा कई अन्य देशों में परिवार का अर्थ विस्तृत रूप में लिया जाता है किन्तु जब विदेशी शासन ने परिवार के लिये स्वास्थ्य सुविधा की निर्णय लिया तो इसे केवल मूल परिवार (पति, पत्नि एवं बच्चे) तक सीमित कर दिया। इस का परिणाम एक नई अवधारणा के रूप में हुई जिस ने धीरे धीरे विस्तार कर पूरे समाज की व्यवस्था को बदल दिया।


उपनिवेशवाद का एक परिणाम यह भी हुआ कि इस के साथ ईसाई धर्म भी साथ में आया। पश्चिमी धर्मों - इस्लाम अथवा ईसाई - में किसी सहअस्तित्व की बात स्वीकार नहीं की जाती है। इस में धर्म परिवर्तन ही वाँछित हो जाता है। तथा इस धर्म परिवर्तन के साथ भूत काल की परम्पराओं तथा रीति रिवाजों का पूरी तरह त्याग करना भी आवश्यक माना जाता है। पुराने धर्म जीवन से उत्पन्न हुए थे, इस कारण उन में किसी से विरोध नहीं था। अलग अलग पूजा पद्धति होते हुए भी वह एकता के सूत्र में लोगों को बाँधता था। नये धर्म पुस्तक आधारित थे। ईसाई मत ने इस एकता को तोड़ कर उपनिवेशवादियों की सहायता की। अपनी हत्या से कुछ समय पूर्व दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत चैतन्य नेता स्टीवन बीको ने कहा था कि ‘‘हम उस भूमिका को भूल नहीं सकते जो ईसाई मत ने हमारी संस्कृति को बदलने के लिये किया। ईसाई मत को अपनाने में सब से पूर्व अपने परम्परागत लिबास को बदलना पड़ता था तथा नया परिधान पाश्चात्य था। वैसा ही हमारी बहुत से रीति रिवाज के साथ हुआ। हम ईसाई धर्म को चुनौती नहीं दे रहे किन्तु उस के साथ जो पाश्चात्य संस्कृति जुड़ी है, उस में परिवर्तन चाहते हैं’’।


जहाँ ईसाई मत में लोगों को परिवर्तित नहीं किया जा सका, वहाँ भी विदेशी विचारों को पनपाया गया। कभी धोके से तो कभी लालच से ऐसा किया गया। दक्षिण अमरीका में नरसंहार को ईसाई धर्म के प्रचार के नाम पर सही ठहराया गया। कैलेफोर्निया में स्थानीय लोगों को उन की आत्मा को बचाने के नाम पर बन्दी बना कर रखा गया। चीन में लाखों लोगों को अफ़ीम खाने के लिये प्रेरित किया गया।


शिक्षा के बारे में भी वैसा ही रवैया अपनाया गया। पुरानी पद्धति में परिवर्तन कर पाश्चात्य पद्धति को लाया गया। जो परम्परागत विषय थे, उन के स्थान पर नये विषय लाये गये। यदि नये विषयों को पुराने के साथ जोड़ दिया जाता तो अधिक अच्छा होता। भारत में स्थिति यह हुई कि देश के एक भाग का व्यक्ति देश के दूसरे भाग के बारे में कम जानता था तथा इंगलैण्ड के बारे में अधिक। मैकाले का घोषित लक्ष्य था ऐसे व्यक्ति बनाना जो बाहर से भारतीय हों पर अन्दर से अंग्रेज़। आज भी हम उसी पथ पर चल रहे हैं।


पश्चिमी देशों में एकतन्त्र का बोल बाला था। फ्रांस में सामन्तवादियों द्वारा अन्य का जो शोषण किया गया, वह सर्व विदित है। इंगलैण्ड में भी ऐसी ही स्थिति थी। 1931 तक महिलाओं को सम्पत्ति धारण करने का अधिकार नहीं था। पर यह विडम्बना है कि जहाँ पर इतना एक तरफा शासन था, वहीं पर उदारवाद का भी जन्म हुआ। उसी उदारवाद ने विश्व के शेष देशों में भी स्वतन्त्रता की लग्न पैदा की। यह उल्लेखनीय है कि भारत में स्वतन्त्रता अन्दोलन में वही व्यक्ति अग्रणीय थे जो इंगलैण्ड में विद्या प्राप्त किये थे। इस के साथ समाजवाद तथा मार्कसवाद भी पश्चिम की ही देन हैं। वीयतनाम के नेता हो ची मिन्ह के विचार पैरिस की गलियों में ही जन्म लिये। उस के द्वारा आरम्भ किया गया अन्दोलन वीयतनामी देशभक्ति तथा पश्चिमी साम्यवाद का संयुक्त परिणाम ही था।


उपरोक्त तथ्यों का तृतीय विश्व के देशों की गरीबी से क्या सम्बन्ध है, इस को समझने के लिये विशेष प्रयास नहीं करना पड़े गा। पूँजीवाद हो अथवा मार्कसवाद, उन का आधार यह है कि भूमि, श्रम एवं पूँजी, सभी वस्तुयें हैं जिन्हे क्रय एवं विक्रय किया जा सकता है। मार्कसवाद का कथन केवल इतना ही है कि पूँजी के बल पर श्रम का शोषण किया जाता है तथा इस का निदान यही है कि पूँजी पर श्रमिकों का आधिपत्य स्थापित किया जाये। यह तीनों वस्तुयें मनुष्य का मौलिक अधिकार नहीं हैं। इस के विपरीत कृषि प्रधान देशों में मान्यता है कि यह सब एक समेकित समाज का भाग हैं। ग्रामवासी ग्राम समाज का अंग है तथा भूमि उस को अपने परिवार के निर्वाह के लिये दी जाती है। यद्यपि इस समाज में भी शोषण था किन्तु फिर भी समाज में कृषक का स्थान निश्चित था। उपनिवेशवाद ने इसे बदल दिया तथा उन्हें बाज़ार का भाग बना दिया। वहीँ उन के श्रम का मूल्य बाज़ार की शक्ति से जोड़ दिया गया। अन्नदाता होने के स्थान पर वह केवल व्यापारी तथा वह भी बलहीन व्यापारी रह गया। उस के उत्पादन का उचित मूल्य मिलने की कोई सम्भावना नहीं थी क्योंकि बाज़ार पर आधिपत्य दूसरों का था। बिहार में नील का उत्पादन तथा उस के उत्पादकों का शोषण इस का उदाहरण है।


मार्कस ने उपनिवेशवाद को पूँजीवाद की चर्म सीमा बताया था तथा इस के बाद उस का पतन निश्चित था। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। पूँजीवाद स्थापित रहा तथा अन्ततः मार्कसवाद को ही बदलना पड़ा। वास्तव में उपनिवेशवाद का कारण कच्चे माल की आवश्यकता तथा तैयार माल के लिये बाज़ार की आवश्यकता थी। पहले के लिये विश्व के शेष राज्यों पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष आधिपत्य किया गया। दूसरे के लिये उन के उद्योगों को एक निश्चित एवं निष्ठुर योजना के तहत नष्ट किया गया। सस्ते श्रम के लिये गुलामी की प्रथा अपनाई गई। सस्ती भूमि तथा सस्ते श्रम के लिये कई देशों में कच्चे कृषि माल के उत्पादन की व्यवस्था की गई। इन का व्यापार श्वेत देशों के लोगों के हाथ में ही था। लाभ उन्हीं को मिलता था।


इस उपनिवेशवाद का मूल कारण तथा परिणाम असमानता थी। पूरे इतिहास में कमज़ोर को दबाया गया है। यूनान हो अथवा रोम, या फिर चंगेज़ खान, बात वही रहती है। तथा इन सब के पीछे कोई तकनीकी कारण नहीं रहा है। चंगेज़ खान के घुड़स्वारों का सामना युरोप के लोग नहीं कर पाये। बाबर के तोपखाने का सामना भारत के राजा नहीं कर पाये। तथा आधुनिक काल में युरोप के मशीनों के सामने तृतीय विश्व की अर्थ व्यवस्था नहीं ठहर पाई। और आज के तथाकथित ज्ञान युग की भी यही स्थिति है।


जैसे जैसे युरोप में औद्योगिक क्राँति का विस्तार हुआ, वहाँ के कृषक नगरवासी बनने लगे। कच्चे माल की आवश्यकता कोे तृतीय विश्व के देशों ने पूरा किया। पर इस के लिये वह पूरा मूल्य प्राप्त नहीं कर पाये। रिकारडों का यह सिद्धाँत कि जो देश जिस वस्तु को अधिक अच्छे तथा सस्ते ढंग से बना सकता है, वही उस के लिये लाभप्रद है, उपनिवेशवादियों के लालच के सामने बेकार हो गया। यह नहीं कि अपवाद नहीं हैं। कनाडा ने कच्चे माल को बेच कर ही स्मृद्धि पाई है। परन्तु इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिये कि कमज़ोर एवं शक्तिशाली का सिद्धाँत कनाडा में उतनी शिद्दत से लागू नहीं किया गया। उन का सामाजिक ढांचा युरोप की भाँति ही था। सम्भवतः इस कारण उस की स्थिति भिन्न रही। तृतीय विश्व की सामाजिक स्थिति अलग थी तथा उस को उपनिवेशवाद ने विकृत कर दिया जो न यहाँ के रहे न वहाँ के। बिहार में नील की खेती जब कृतिम नील के कारण सम्भव न रही तो उन के खेतों को गन्ने के खेतों में बदल दिया गया यद्यपि बिहार गन्ने की खेती के लिये उपयुक्त नहीं है। पर नीति थी कि खाद्यान्न के स्थान पर वाणिज्यिक फसलें उगाई जायें। मलाया में रबड़, भारत में चाय, कांगों में काफी, क्यूबा में गन्ना, गोल्ड कोस्ट में कोको सभी इसी प्रकार के बागान थे।


हम ने कहा है कि सस्ते श्रम के लिये गुलामी की प्रथा एवं व्यापार शुरू किया गया पर इस के अन्य तरीके भी थे। इण्डोनेशिया में हालैण्ड ने ‘कल्चर सिस्टम’ आरम्भ किया था। इस में यह नियम बनाया गया कि कृष्कों को अपनी भूमि का कुछ अंश निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की कृषि के लिये रखना अनिवार्य हो गा। अफ्रीका में नियम बनाया गया कि गृह कर केवल विदेशी मुद्रा में ही दिया जा सकता है। यह मृद्रा वे केवल श्वेत लोगों के यहाँ मज़दूरी कर के ही कमा सकते थे। मज़दूरी कम रखी जाती थी ताकि यह श्रम अधिक समय तक करना पड़े। बैल्जियम ने कांगों में इस परोक्ष तरीके के स्थान पर सीधे ही अनिवार्य श्रम की व्यवस्था लागू की।


जब गुलामी की प्रथा की समाप्ति की गई तो उन के स्थान पर करारबद्ध श्रमिकों की प्रथा आरम्भ की गई। हज़ारों की संख्या में भारतीय श्रमिकों को फिजी, त्रिनीदाद, इत्यादि स्थानों में ले जाया गया। भारत के अन्दर बिहारी श्रमिक को आसाम के चाय बागान के लिये ले जाया गया। उन की हालत गुलामों से अधिक बेहतर नहीं थी, भले ही नाम के लिये वह गुलाम न थे।


दूसरी ओर जब परोक्ष तरीकों से भी कच्चे माल की आवश्यकता पूरी नहीं हुई तो सीधे ही भूमि पर कब्ज़ा किया गया। इस के लिये कोई भी बहाना उपयुक्त था। स्थानीय लोागें को अनुपजाउ भूमि में खदेड़ दिया गया। दक्षिण अमरीका में, अफ्रीका में तथा एशिया में कुछ स्थानों में बड़े बड़े फार्म स्थापित किये गये। ज़िम्बाबवे में स्वतन्त्रता के समय 90 प्रतिशत भूमि श्वेत लोगों के हाथ में थी।


एक ओर इस कच्चे माल, जिस में खाद्यान्न भी शामिल था, का मूल्य कम हो रहा था, वहीं तैयार माल का मूल्य बढ़ाया जा रहा था जिस से इन देशों को अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिये अधिक माल निर्यात करना पड़े। अधिक माल के लिये अतिरिक्त बागान चाहिये थे परन्तु इस का अर्थ स्थानीय लोगों के लिये अधिक लाभ नहीं था। लाभ तो केवल मालिकों को जाता था। श्रम के लिये और अपने घरों से दूर किये गये कृषि मज़दूर चाहिये थे। चूँकि इन कृषि मज़दूरों के पास अतिशेष था ही नहीं अतः इन की दशा बिगड़ती ही गई।


उपनिवेशवाद यदि कृषि के विरुद्ध था तो अन्य उद्योगों के विरुद्ध तो और भी उग्र था। कपड़े, बर्तन, इत्यादि जैसी रोज़मर्रा की वस्तुयें भी आयात करना पड़ें, इस के लिये इन के बनाने को हतोत्साहित किया गया। विकसित देशों का और विकास हुआ जब कि अविकसित देशों की उत्पादकता कम होती गई। उदाहरणार्थ उत्पादकता का सूचकाँक इंगलैण्ड तथा भारत का देखा जाये।


स्विज़ अर्थशास्त्री पाल बैरोच के अनुसार यह आँकड़े इस प्रकार हैं (1900 को इंगलैण्ड के संदर्भ में आधार वर्ष माना गया है)-


वर्ष इंगलैण्ड भारत विकसित देश अविकसित देश

1750 10 7 8 7

1800 16 6 8 6

1830 25 6 11 6

1860 64 3 16 4

1880 87 2 24 3

1900 100 1 35 2

1913 115 2 55 2


जहाँ इंगलैण्ड में उत्पादकता तेज़ गति से बढ़ी है, वहीं भारत की कम हुई है। यही प्रवृति अन्य विकसित तथा अविक सित देशों में भी देखी जा सकती है। यह नहीं कि भारत या अविकसित देशों का श्रमिक पश्चिमी देशों के श्रमिक की तुलना में कमज़ोर था अथवा प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता था पर ऐसा जान बूझ कर किया गया।


उपनिवेशवाद का एक परिणाम तृतीय विश्व में जनसंख्या की तेज़ी से वृद्धि थी। बीसवीं शताब्दि से पूर्व जन्म दर तथा मृत्यु दर दोनों ही तृतीय विश्व में उच्च स्तर पर थे। इस कारण जनंसख्या वृद्धि दर कम थी। अतः इन देशों में बड़े परिवार होने की संस्कृति थी। योरुप में भी औद्योगिक क्राँति के पूर्व यही स्थिति थी। वहाँ पर भी जनसंख्या वृद्धि दर में मृत्यु दर घटने से तेज़ी आई किन्तु कुछ ही समय में स्वैच्छिक तरीके से जन्म दर को कम कर इस पर काबू पा लिया गया। वास्तव में इस में बढ़ती हुई स्मृद्धि का योगदान था। परन्तु तृतीय विश्व में ऐसा नहीं हो सका। गरीब गरीब ही रहे या यह कहा जाये कि गरीब रखे गये। मृत्यु दर तो कम हो गई - भारत में 40 से 10; घाना में 45 से 12; कोलोम्बिया में 40 से 6 किन्तु जन्म दर में अपेक्षित कमी नहीं आई। मृत्यु दर में कमी बीमारियों पर आयातित दवाईयों तथा अन्य तरीकों से काबू करने के कारण था। विकसित देशों में सामाजिक परिवर्तन के कारण दोनों पक्षों में प्रभाव पड़ा तथा इस में बहुत बड़ा योगदान आर्थिक स्थिति के ठीक होने का था। अविकसित देशों में जीवन स्तर में सुधार के बिना ही यह हुआ। आम तौर पर इस बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये अविकसित देशों को उत्तरदायी ठहराया जाता है किन्तु देखा जाये तो यह भी उपनिवेशवाद का ही एक दुष्परिणाम है।


कई व्यक्ति भारत के औद्योगीकरण का श्रेय अंग्रेज़ों को देते हैं। रेल पटरी बिछाना, सड़के बनाना, शिक्षा का प्रसार यह उपनिवेशवाद की देन मानी जाती है। रुडयार्ड किपलिंग जैसे लोग इस में वहशियों को सभ्य बनाना देखते हैं। पर गौर से देखा जाये तो यह छलावा है। यदि चोर किसी अमीर आदमी की तिजौरी तोड़ता है तो उस का लक्ष्य समाजवाद का उन्नयन नहीं कहा जाये गा। यही हमारे देश के साथ तथा उपनिचेशवाद के दूसरे शिकार देशों के साथ हुआ।


5. राष्ट्रवाद तथा स्वतन्त्रता


उन्नीसवीं शताब्दि उपनिवेशवाद की थी तो बीसवीं राष्ट्रवाद की। इस शताब्दि के मध्य में अधिकतर देश जो उपनिवेश थे, स्वतन्त्र हो गये तथा अपनी तकदीर के स्वयं मालिक बन गये। उपनिवेशवाद से पूर्व इन देशों में राष्ट्रीयता की वह भावना नहीं थी जिसे हम आज जानते हैं। कई देशों में वह कबीलों के आधार पर ही जीवन व्यतीत करते थे। आपस में एक परिसंघ सा तो था किन्तु वह अपने को एक देश का वासी मानते हों, ऐसी स्थिति नहीं थी। भारत में भी जहाँ शताब्दियों से साम्राज्य की परम्परा थी, मूल श्रद्धा अपने ही क्षेत्र के प्रति थी यद्यपि सांस्कृतिक एकता इसे एक सूत्र में बाँधे रखी जिस को उपनिवेशवादी प्रयास के बावजूद नष्ट नहीं कर पाये। 1857 का संघर्ष जिसे भारतीय अब स्वतन्त्रता का प्रथम युद्ध कहते हैं, किसी एक व्यक्ति अथवा एक देश के लिये नहीं था यद्यपि कुछ समन्वय का प्रयास किया गया था। परन्तु बाद में इन देशों में जब स्वतन्त्रता की बात उठी तो वह राष्ट्रवाद के नाम पर उठी। इण्डोनेशिया हो अथवा मिस्र, सभी स्थानों पर वही मुख्य धारा बन गई। दूसरी ओर यह भी कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने सामाजिक ढाँचे को अस्त व्यस्त कर दिया तथा इसे स्वतन्त्रता के पश्चात भी पुनः जीवित नहीं किया जा सका। भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि इस राष्ट्रवाद के बीच में धर्म की दीवार आ गई जिसे जान बूझ का भड़काया गया। इस कारण स्वतन्त्रता के साथ विभाजन भी मिला। पर रवांडा इत्यादि देशों में जो निरन्तर नर संहार हो रहा है, उस से बचाव हो गया। परन्तु यह ध्यान में रखा जाना है कि स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय महाद्वीप में जो तीन देश बने, वह राष्ट्र के रूप में ही आस्तित्व में हैं।


कुछ देशों में जैसे चीन, वीयतनाम में स्वतन्त्रता साम्यवादी क्राँति के रूप में आई। यहाँ पर स्वतन्त्रता अन्दोलन तथा साम्यवादी अन्दोलन में अन्तर स्पष्ट करना आवश्यक है। स्वतन्त्रता का अर्थ विदेशियों को बाहर खदेड़ना था पर साम्यवादी पुरानी सामाजिक व्यवस्था को ही समाप्त करना चाहते थे। स्वतन्त्रता अन्दोलन में समाज की पुनर्रचना की बात गौण थी तथा कहीं कहीं तो वह थी ही नहीं। स्वतन्त्रता के बाद अलग अलग देशें ने इस से अपनी अपनी तरह से निपटा। इण्डोनेशिया, भारत इत्यादि में जिस दल ने स्वतन्त्रता अन्दोलन का नेतृत्व किया, वे लम्बे समय तक सत्ता में बनी रहीं तथा कुछ समझौतों के साथ वह देश को एक सूत्र में परोये रखे। यहाँ तक कि राष्ट्रवाद की भावना पनप सकी। यह कहना उचित हो गा कि जहाँ साम्यवाद के नाम पर अन्दोलन हुए वहाँ भी अन्ततः राष्ट्रवाद ने अपना रंग दिखाया। चीन साम्यवादी होने के साथ राष्ट्रीयता की भावना से भी ओत प्रोत है। वीयतनाम, रूस इत्यादि की भी यही स्थिति है।


प्रश्न उठता है कि सदियों की परतन्त्रता के बाद स्वतन्त्रता अन्दोलनों की सफलता के पीछे क्या बात थी। जहाँ स्वतन्त्रता की बात सोची भी नहीं गई, वह देश भी स्वतन्त्र हो गये। दूसरी ओर कई देशों को इस के लिये लम्बा तथा कष्टदायक अन्दोलन करना पड़ा। युरोप के दो महायुद्धों ने वहाँ के देशों को काफी कमज़ोर कर दिया। अमरीका की स्थिति मज़बूत थी पर वह उस तरह का साम्राजय स्थापित नहीं कर पाया जैसा कि युरोपीय देश किये थे। कुछ युरोप के देश जैसे फ्रांस, पुर्तगाल, अपनी नई स्थिति से संतुष्ट नहीं थे तथा उन्हों ने स्वतन्त्रता के विरुद्ध संघर्ष किया पर उन्हें भी अन्त में झुकना पड़ा।


यह उचित हो गा कि हम कुछ देशों की स्वतन्त्रता प्राप्ति के इतिहास पर ध्यान दें। इस से हमें उन के बाद के अनुभव को समझने में सहायता मिले गी।


भारत में मुख्यतः सत्याग्रह का हथियार अपनाया गया यद्यपि कुछ लोगों ने हिंसा से परहेज़ नहीं किया। कुल मिला कर गाँधी जी ने अन्दोलन को अहिंसात्मक रखने के लिये प्रयास किये तथा काफी सीमा तक सफल रहे। इसे कुछ लोगों ने कायरता की रणनीति बताया पर इस पद्धति ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। यह दुर्भाग्य है कि इस अहिंसात्मक अन्दोलन की परिणति विभाजन, व्यापक हत्या तथा अपने निवास से भयपूर्वक पलायन में हुआ। अंग्रेज़ों ने सत्ता हस्तान्तरण भारत के नेताओं के साथ समझौता कर किया। इस का एक परिणाम यह हुआ कि शासन व्यवस्था पूर्ववत बनी रही। इस से उपनिवेशवाद की जो बुराईयाँ थी, वे भी विरासत में मिलीं। केवल शासक बदल गये। शासन तथा प्रजा में दूरी बनी रही। पाकिस्तान तथा बंगलादेश की भी वैसी ही स्थिति रही। वे अपना प्रजातान्त्रिक ढाँचा भी सुरक्षित नहीं रख पाये।


इस के विपरीत चीन में सत्ता परिवर्तन के साथ सामाजिक ढाँचा भी बदल गया। उन के सवतन्त्रता अन्दोलन का आरम्भ राष्ट्रवाद से ही हुआ। 1911 में माँचू परिवार के पतन के पश्चात सैनिक शासक हुए जो पाश्चात्य रंग में रंगे थे। इस के विरुद्ध सन युत सेन ने अन्दोलन आरम्भ किया। उन की दृष्टि पूरे चीन को एक राष्ट्र के रूप में देखने की थी। तथा वह इस में कुछ अंश तक सफल भी हुए। परन्तु उन की मृत्यु के बाद उन के उत्तराधिकारी च्यांग काई शेक ने एकतन्त्र की स्थापना की तथा अपने विरोधियों को कुचलने का प्रयास किया। साम्यवादी शुरू में सफल नहीं हो पाये तथा उन्हे दक्षिण पूर्व क्षेत्र छोड़ कर उत्तर पश्चिम की ओर जाना पडऋा। इस लम्बी यात्रा में जान माल का बहुत नुकसान हुआ किन्तु वे पूरे राष्ट्र में अपनी नीति का प्रचार कर पाये। यह उल्लेखनीय है कि जापान द्वार चीन पर आक्रमण के समय साम्यवादी भी च्यांग काई शेक की के एम टी दल के साथ रहे परन्तु यह खतरा टल जाने पर फिर से गृह युद्ध की स्थिति आई जिस मे साम्यवादी अन्त में सफल हुए। इस अन्दोलन में नगर के एम टी के हाथ में थे किन्तु ग्राम साम्यवादियों के साथ। साथ ही वहाँ की सामाजिक स्थिति भी साम्यवादियों ने बदल दीं। स्वतन्त्रता के पश्चात भी कई प्रयोग किये गये। 1958 से 1961 तक साँस्कृतिक अन्दोलन के नाम पर काफी खून खराबा भी हुआ। अन्ततः माओं के जाने के बाद में इस पर काबू पाया गया तथा चीन ने एक राष्ट्र के रूप मे प्रगति करना आरम्भ की। उपभोक्तावाद को थोड़ी छूट मिली पर सैनिक व्यवस्था तथा एक दलीय शासन यथावत रखा गया। आज इसी राष्ट्रवाद के कारण एक बहृद आर्थिक शक्ति बन सका है।


अलजीरिया की त्रासदी उपनिवेशवाद का दूसरा रूप दिखाती है। चीन पर किसी समय भी पाश्चात्य देशों ने सीधा राज्य नहीं किया यद्यपि उसे उन की सभी शर्तोंं को मानने के लिये मजबूर किया गया तथा उस की अर्थव्यवस्था पर उन की पकड़ बनी रही। भारत पर सीधे उन का राज्य था किन्तु बहुत अधिक अंग्रेज़ यहाँ पर स्थाई निवासी नहीं बने। इस के विपरीत अल्जीरिया में फ्रांस के बहुत से नागरिक आ कर बस गये। उन के पूर्व भूमि पर समाज का आधिपत्य था तथा किसी व्यक्ति के नाम पर भूमि नहीं थी। आप्रवासियों ने उन की भूमि किसी तरह हथिया ली। कृषक केवल कृषि मज़दूर बन कर रह गये। जब स्वतन्त्रता अन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा तो यह आप्रवासी इस के विरुद्ध थे। यहाँ तक कि जब डी गाॅल के समय में फ्रांस द्वारा अल्जीरिया को स्वतन्त्रता दी गई तो वहाँ पर सैना तथा आप्रवासी इस के विरुद्ध खड़े हो गयेे। उन का विद्रोह काफी हिंसात्मक रहा परन्तु अन्ततः उन्हे पराज्य ही मिली। अल्जीरिया के नये शसक आर्थिक प्रगति का वचन पूरा नहीं कर पाये जिस में अन्य बातों के अतिरिक्त उन के भ्रष्टाचार का भी योगदान रहा। प्रतिक्रिया के रूप में कट्टरपंथी इस्लामी समूह लामबन्द हो गये। चुनाव में भी वे जीतने के कगार पर थे किन्तु शासक दल ने चुनाव को निरस्त कर तानाशाही आरम्भ कीं। इन आपसी संघार्षों के कारण ही अलजीरिया उतनी प्रगति नहीं कर पाया जितनी उस के सामथ्र्य के अनुसार होना चाहिये थी।


वीयतनाम की स्वतन्त्रता बहुत लम्बे समय तक युद्ध के पश्चात प्राप्त हुई। उन का युद्ध फ्रांस के विरुद्ध शुरू हुआ। बीच में जापान ने देश पर आधिपत्य स्थापित किया तथा उन की दमन नीति फ्रांस से भी अधिक कठोर थी। उन के जाने के बाद फ्रांस में फिर से पूर्व व्यवस्था स्थापित की अतः स्वतन्त्रता अन्दोलन जारी रहा। अन्ततः 1956 में डीन बीन फू की पराज्य के बाद समझौता हुआ परन्तु यह शर्त लगा दी गई कि दक्षिण वीयतनाम में चुनाव से उन का भविष्य तय किया जाये गा। बाद में दक्षिण वीयतनाम की पिठ्ठू सरकार ने चुनाव से मना कर दिया। परिणामस्वरूप फिर से गृह युद्ध आरम्भ हुआ। इस में अमरीका ने पहले परोक्ष रूप से तथा फिर प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया। परन्तु वह वीयतनाम को पराजित नहीं कर पाये। अन्ततः पिठ्ठु सरकार को तथा अमरीकियों को भागना पड़ा तथा वीयतनाम एक हो सका। वीयतनाम के स्वतन्त्रता संग्राम के मुख्य नेता हो ची मिन्ह रहे। वह साम्यवादी धारा से प्रभावित रहे किन्तु वह पक्के राष्ट्रवादी थे। इस 40 वर्ष से अधिक के दमनकारी नीति ने देश कर व्यवस्था को पूर्णतः नष्ट कर दिया तथा अभी तक इस के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका गया।


एशिया के देशों में स्वतन्त्रता अन्दोलन लम्बे समय तक चले पर मरुस्थल के नीचे के अफ्रीकन देशों को स्वतन्त्रता आई तो एक साथ इतनी तेज़ी से आई जिस की किसी को अपेक्षा भी न थी। भारत इत्यादि देशों में प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित रही क्यों कि यहाँ पर काफी संख्या में अनुभवी प्रशासक थे जिन्हें नये शासकों ने यथावत रखा, पर अफ्रीका के देशों में ऐसा नहीं था। जब फ्रांस अलजीरिया से अन्ततः हटा तो उस समय वहाँ पर एक दर्जन से भी कम अनुभवी प्रशासक थे। कांगो इत्यादि की भी यही स्थिति थी। वहाँ पर स्नात्कों की संख्या हाथ की उंगलियों पर गिनी जा सकती थी। ज़िम्बाबवे में लगभग 90 प्रतिशत भूमि के स्वामी आप्रवासी थे। सभी खनिज पदार्थों पर तो उन का आधिपत्य था ही। अफ्रीका ने गुलाम व्यापार को झेला और अन्त तक उपनिवेशवादियों की मानसिकता वैसी ही बनी रही। शिक्षा के अभाव में कबीले के प्रति निष्ठा अन्य सब चीज़ो पर भारी रही। परिणाम अनेक नरसंहार में हुआ। रवांडा इस का सब से बुरा उदाहरण है। टुटसी तथा हुटु कबीलों की प्रतिस्पर्धा में लाखों लोगों ने जान गंवाई। बैल्यिजम ने, जिन के आधिपत्य में यह क्षेत्र था, पहले टुटसी गुट का समर्थन किया और फिर बिना किसी कारण के हुटु की ओर हो गये। इसी प्रकार की स्थिति ज़ायरे में भी हुई। युगण्डा में अदी अमीन के दमनकारी शासन में काफी नर संहार हुआ।


दक्षिण अफ्रीका में नस्ल भेद नीति के कारण अशाँति रही किन्तु गोरे लोगों की व्यवस्था इतनी कठोर थी तथा काले लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि नाम को छोड़ कर यह पूरी तरह गुलामी की प्रथा थीं। परिणाम स्वरूप वहाँ पर आर्थिक स्थिति बिगड़ी नहीं तथा जब अन्ततः नस्लभेद समाप्त हुआ तो स्थिति आर्थिक दृष्टि से इतनी भयावह नहीं थी। नेल्सन मण्डेला की उदारवादी नीति के कारण देश दमनकारी नीतियों से बचा रहा है।


दक्षिण अमरीका पर भी एक दृष्टि डालें। स्पैन तथा पुर्तगाल के सैनिकों ने यहाँ काफी अत्याचार किये तथा स्थानीय लोगों को प्रायः समाप्त कर दिया। पर स्पैनी तथा पुर्तगाली यहाँ पर बसे तथा उन्हों ने स्थानीय स्त्रियों से विवाह कर लिया जिस से एक मिश्रित जाति का उदय हुआ। फ्रांस की क्राँति तथा नैपोलियन के युद्ध के समय स्पेन तथा पुर्तगाल की हालत काफी कमज़ोर हो गई थीं। उन्हें इन देशों से अपनी सैनायें हटाना पड़ीं। शाूंति की स्थापना के बाद भी इंगलैण्ड ने उन्हें वापस नही लौटने दिया। तब से यहाँ के देश स्वतन्त्र हैं। पर यह केवल नाम की स्वतन्त्रता थी। अंग्रेज़ों ने कभी सही अर्थों में स्वायतता आने नहीं दी। संयुक्त राज्य अमरीका भी कभी अपनी सैनिक शक्ति के उपयोग से नहीं चूका। 1845 में उस ने मैक्सिको के आधे क्षेत्र पर कबज़ा कर लिया। आधुनिक काल में निकारुगुआ, पानामा, ग्रेनेडा, हैती, क्यूबा इत्यादि पर उस का वर्चस्व सैनिक शक्ति के प्रयोग से ही स्थापित रहा। केवल 50 वर्ष पूर्व ही क्यूबा इस वर्चस्व से मुक्त हो सका।


चूँकि कभी सीधे शासन इन देशों पर स्थापित नहीं किया गया अतः यहाँ का इतिहास गृह युद्धों का ही रहा है। किसी एक गुट का समर्थन बाहर के देश करते रहे। बीसवीं शाताब्दि में अमरीका साम्यवाद से संघर्ष के नाम पर अपने समर्थकों को सहायता देता रहा। इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता था कि वहाँ की स्थापित सरकार प्रजातान्त्रिक तरीके से सत्ता में आई है अथवा अन्यथा। इस अवधि में शासकों की नीति आम व्यक्ति के पक्ष में नहीं रही। इस सं असंतोष उत्पन्न हुआ जिस ने कई बार विद्रोह का रूप लिया। यह अन्दोलन अधिक सफल नहीं हो पाये। उदाहरण के लिये मैक्सिको में 1910 तथा 1920 के बीच विद्रोह हुआ। इस में शासक डायज़ का तख्ता पलटने का प्रयास किया गया। डायज़ ने देश की प्रगति के लिये 1875 से कार्य किया था। रेलें बनाई गई। विदेशी धन को उद्योागों के लिये आमंत्रित किया गया। परन्तु इस सब में कृषकों का ध्यान नहीं रखा गया। इस का परिणाम यह हुआ कि भूमि जो पूर्व में इण्डियन तथा मिश्रित जातियों के पास थी, उस से वे वंचित हो गये। जापाटा के नेतृत्व में दक्षिण में तथा पाँचो विला के नेतृत्व में उत्तर में विद्रोह हुआ तथा डायज़ को पराजित कर राजधानी पर आधिपत्य कर लिया गया। पर इन गुटों के पास कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं थी। अतः किसानों के हित में कोई विशेष कार्य नहीं हो सका। पर फिर भी इस विद्रोह का प्रभाव अनेक रूपों में देखने को मिला। भूमि का आधिपत्य तो किसानों को नहीं मिल पाया पर इस से मैक्सिको में एक राष्ट्र होने का भाव उत्पन्न हुआ। तब से एक तरह का प्रजातन्त्र वहाँ पर हैं यद्यपि अधिकाँश समय तक एक ही दल का शासन रहा है। विद्रोह की असफलता यह भी दर्शाती है कि किस प्रकार केवल सत्ता परिवर्तन गरीबी की समस्या का समाधान नहीं है।


अन्त में एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। यद्यपि राष्ट्रवाद का उदय इस काल की विशेषता है किन्तु गत पचास एक वर्षों में एक नई धारा भी चली है। इस्लाम के नाम पर भी लोगों को तथा देशों को संगठित करने का प्रयास किया गया है। कहा गया है कि इस्लाम के प्रति निष्ठा देश के प्रति निष्ठा से बढ़ कर है। इस का एक परिणाम पश्चिमी देशों के प्रतिे घृणा का वातावरण बनाने का भी है। आयतुल्लाह खुमायनी का ईरान का अन्दोलन इसी आधार पर सफल हुआ। परन्तु दूसरी ओर यह भी देखने की बात है कि अरब देशों तथा गैर अरब देशों में भी मतभेद हैं। विशेषतया इस्राईल की स्थापना तथा उस के विरुद्ध युद्धों में यह देखने को मिला है। इस के अतिरिक्त अरब देशों में भी आपस में अपने अपने हितों के प्रति निष्ठा के कारण उन की ऊपरी एकता कोई अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाई। अनेक राज्यों में शासक वर्ग के अपने स्वार्थ हैं तथा यदि जनता अरब हितों की बात सोचती भी है तो शासक वर्ग इस में आड़े आता है। इस से इस्लामी कट्टरवाद की भावना वाले संगठन आतेकवादी बन कर कार्य करते हैं। अगामी कुछ समय में इस भावना की महत्वपूर्ण भूमिका रह सकती है। इस बीच इस्लाम के नाम पर कई उग्रवादी समूह तैयार हुए। उन को आँशिक सफलता भी मिली। उदाहरण स्वरूप अफगानिस्तान पर तालिबान केा आधिपत्य हुआ। इस का संघर्ष अभी भी चल रहा है। ईराक तथा सीरिया में उग्रवादी संगठन दायश का काफी बड़े भूभाग पर आधिपत्य रहा जिस के विरुद्ध संघर्ष जारी है। छुटपुट ​अतिवादी घटनाओं में वृद्धि इसी घृणा अन्दोलन का भाग हैं।


जहाँ तक हमारे इस लेख का सम्बन्ध है, इन संघर्ष की नींव में गरीबी तथा गरीब देशों के प्रति विकसित देशों की विस्तारवादी नीति रही है जिस में आश्य अपनी पसंद की सरकारों की सहायता से कच्चे माल तथा बाज़ार पर नियन्त्रण रखना था। सीरिया से बड़ी संख्या में लोगों का युरोप के देशों की पलायन इस का एक लक्षण है। वे जार्दन, सउदी अरब की ओर नहीं गये न ही तुर्की इत्यादि देशों को अपना गन्तव्य बनाया।


6. आर्थिक विकास


विश्व के अधिकतर देश आज स्वतन्त्र हैं तथा तथाकथित रूप से अपने भाग्य के मालिक हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सभी देशों की सर्वोच्च प्राथमिकता आर्थिक विकास की थी। परन्तु विकास की गति समान नहीं है। गरीबी अभी भी विद्यमान है। कुछ देशों जैसे ताईवान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, मलेशिया, इण्डोनेशिया में आर्थिक प्रगति हुई है तथा वहाँ पर इस का कुछ अंश वे निचले स्तर पर भी पहुँचा पाये हैं। चीन ने भी आर्थिक प्रगति की है तथा उन की साम्यवादी व्यवस्था में गरीबी में कमी आई है। ब्राज़ील ने पचास से सत्तर की दशक में अच्छी प्रगति की परन्तु उस के बाद उस में कमी आई। जहाँ तक राष्ट्रीय आय का सम्बन्ध हैं, तेल उत्पादक देशों को दस एक वर्ष तक अच्छी कीमत मिली पर इस में से आम जनता तक कितनी पहुँच पाई, यह अलग प्रश्न है। अस्सी के दशक में एशिया के देशों में प्रगति हुई किन्तु अफ्रीका, पश्चिम एशिया, लातीनी अमरीका में जीवन स्तर में कमी आई। नब्बे की दशक में जनसंख्या में अफ्रीका को छोड़ कर अन्य देशों में वृद्धि हुई है पर इस का लाभ सभी नागरिकों को समान रूप से नहीं मिल पाया है। कुल मिला कर अधिकाँश देशों में गरीबी की स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है।


पुराने समय में भी इन देशों की सभी वर्गों की स्थिति बहुत अधिक अच्छी नहीं थी किन्तु असंतोष की स्थिति नहीं थी। इस का एक कारण लोगों की अपेक्षायें सीमित होना था। वह परम्परा उपनिवेशवाद ने समाप्त कर दी जब उन्हों ने पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप माँग तथा उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया। इन देशों में अब पुराने काल की कम आय तथा कम माँग की स्थिति नहीं है परन्तु् माँग बढ़ने के साथ साथ प्रदाय में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पाई है। इस का परिणाम सामान्य असंतोष के रूप में सामने आया है।


यहाँ पर प्रश्न उठता है कि आर्थिक विकास आखिर है क्या? आधुनिक अर्थशास्त्रियों की दृष्टि में इसे सकल घरेलू उत्पाद के रूप में देखा जाना है तथा इसी से औसत आय प्रति व्यक्ति की संगणना की जाती है। जैसा कि अन्यत्र कहा गया है, प्रति व्यक्ति आय स्विटज़रलैण्ड की 36,970 डालर से ले कर बुरुण्डी की 100 डालर तक है। यदि इस के विपरीत क्रय शक्ति की बात की जाये तो यह अन्तर कुछ कम हो जाता है किन्तु फिर भी काफी अधिक रहता है। पर यह आर्थिक विकास का केवल एक मापदण्ड है। ऐसे कई उदाहरण है जिन में प्रति व्यक्ति आय बढ़ी हुई दिखती है परन्तु साथ ही राष्ट्र में असमानता भी बढ़ी है तथा गरीब व्यक्तियों की संख्या में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है।


विकास की अपनी विशिष्ट समस्यायें भी हैं। भारत में इन्दिरा नहर योजना एक बड़ी परियोजना थी। नहर तथा इन की शाखाओं की लम्बाई आठ हज़ार किलोमीटर थी। नये क्षेत्रों में सिंचाई हुई, नई फसलें आईं, नई तकनालोजी प्रयुक्त हुई, उत्पादन में वृद्धि काफी अधिक हुई पर दूसरी ओर भूमि में अधिक पानी के कारण उपजाउपन कम होने लगा। परिणामतः किसानों को अपनी भूमि बेचनी पड़ी तथा वे गरीबों की श्रेणी में शामिल हो गये। कुछ किसान अमीर हुए, अधिक गरीब। यदि केवल सकल घरेलू उत्पादन देखा जाये तो यह परियोजना अत्यन्त सफल है किन्तु इस का सामाजिक परिणाम उतना सुखद नहीं है। पंजाब तथा हरियाणा में भी भूमि में क्षार बढ़ने से समस्यायें उत्पन्न हुई हैं।


इस बढ़ने वाली पर्यावरण समस्या के विषय पर संयुक्त राष्ट्र के देशों द्वारा वर्ष 1992 की रियो डी जनेरो के भूमि शीर्ष सम्मेलन - अर्थ सम्मिट - में विचार किया गया। इस के पश्चात वर्ष 2002 में जोहान्सबर्ग में सम्मेलन हुआ जिस में पाया गया कि दस वर्ष में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हुई है। इस कारण कुछ लोगों ने कहना आरम्भ किया कि आर्थिक प्रगति की गति कम करना चाहिये ताकि पर्यावरण की रक्षा हो सके किन्तु शेष लोग इस से सहमत नहीं हैं। उन का कथन है कि यह समस्या को और अधिक गम्भीर बना दे गा। इसी का एक रूप सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तथा अब टिकाउ विकास लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिस में गरीबी के विरुद्ध संघष् मेें पर्यावरण सम्बन्धी समस्या से जूझने को भी शामिल किया गया है।


आर्थिक विकास में अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा आय वितरण का है। आरम्भ में इस ओर कम ध्यान दिया गया। वास्तव में इस असमानता को आर्थिक प्रगति के लिये अच्छा कहा गया क्योंकि तर्क था कि इसी से अतिशेष धन उपलब्ध हो गा जो निवेश के काम आये गा। परन्तु इस सोच में अब परिवर्तन आया है। भारत में चैथी पंचवर्षीय योजना में ही पहली बार इस के बारे में गम्भीर विचार किया गया परन्तु उस के बाद भी जो कदम उठाये गये,  वे समुचित नहीं थे। इस गरीबी की समस्या के दुष्परिणाम भी होते हैं। यह पाया गया है कि दक्षिण कोरिया में जब निचले वर्ग की आय में वृद्धि हुई तो उन की बढ़ती माँग नेे आर्थिक उत्पादन को बल प्रदान किया। इस के विपरीत ब्राज़ील में आन्तरिक माँग में वृद्धि नहीं हुई तथा अन्ततः उत्पादन भी विपरीत ढंग से प्रभावित हुआ।


मूल बात यह है कि आर्थिक विकास का सरोकार लोगों से है, केवल आँकड़ों से नहीं। पर इस बात को मान्यता 1970 में ही मिली जब ‘‘मौलिक आवश्यकताओं’’ तथा ‘‘गरीबी रेखा’’ की बात की गई। इस बात से न केवल राष्ट्रीय सरकारें बल्कि विश्व बैंक सरीखे संगठन भी प्रभावित हुए। मौलिक आवश्यकताओं में समुचित मात्रा में सही खाना, जलवायु से सुरक्षा प्रदान करने वाला बसेरा, सही ढंग के कपड़े, स्वास्थ्य सेवायें, प्रारम्भिक शिक्षा शामिल थे। सकल घरेलू उत्पादन की बात को इन के परिपेक्ष में ही देखा जाना था। 1990 में संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास मानक की संकल्पना को साकार किया। इस में अन्य प्रावधानों के अतिरिक्त एक प्रावधान यह भी है कि 5000 डालर से ऊपर की प्रति व्यक्ति आय को अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि मौलिक आवश्यकतायें इस स्तर तक पूरी हो जाती हैं।


इस नये मापदण्ड से कई देशों की तसवीर बदल गई। चीन, जो सकल घरेलू उत्पादन की गणना में नीचे था, मानव विकास मानक में काफी ऊपर आ गया। 82 प्रतिशत चीनी साक्षर थे। उन की आयु की अपेक्षा अन्य देशों से अधिक थी। श्री लंका तथा निकारुगुआ भी इस मामले में चीन के समान थे। क्यूबा की भी ऐसी ही स्थिति है। इस के विपरीत ब्राज़ील इस मापदण्ड से पहले से नीचे था।


आर्थिक विकास में एक बड़ा मुद्दा जनसंख्या नियन्त्रण का है। कुछ का विचार है कि यह आर्थिक प्रगति के लिये सब से बड़ा खतरा है। इस के विपरीत कुछ का मत है कि दो एक पीढ़ी में इस समस्या का अपने आप समाधान हो जाये गा। पर सत्य इन दोनों के बीच है। आँकड़ों की दुष्टि से वर्ष 1960 तथा वर्ष 2000 के बीच विश्व की जन संख्या 3 अरब से 6 अरब हो गई। अनुमान है कि वर्ष 2025 तक यह 8 अरब हो जाये गी। विकासशील देशों का अनुपात 1990 में 77 प्रतिशत था जो वर्ष 2025 तक 84 प्रतिशत हो जाये गा। पर क्या जनसंख्या वृद्धि का तत्कालिक प्रभाव आर्थिक विकास पर पड़ता है, इस पर मतभेद हैं। इस पर भी एक राय नहीं है कि क्या जन्म दर स्वयंमेव कम हो जाये गी अथवा सरकारों को इस बारे में पहल करना हो गी। युरोप तथा अमरीका की बात करें तो वहाँ पर शासकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं पड़ी है। कहा जाता है कि विकास सब से महत्वपूर्ण गर्भरोधक है। पर कई देश इस से संतुष्ट नहीं हैं तथा शासकीय तौर पर परिवार नियोजन की बात की जाती है। चीन तथा भारत, संसार के दो अधिक जनसंख्या वाले देशों में एक दूसरे से भिन्न तरीके अपनाये गये हैं। और परिणाम भी अलग अलग हैं। ऐसा माना जाता है कि भारत की जन संख्या वर्ष 2025 तक चीन से अधिक हो जाये गी। दूसरे विकासशील देशों में भी जन संख्या वृद्धि की कमी के कोई चिन्ह नहीं हैं। भय इस बात से है कि बढ़ती हुई जन संख्या में पिछड़े लोगों का अनुपात बढ़े गा जिस से मानव विकास स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़े गा।


जन संख्या नियन्त्रण के सम्बन्ध में नैतिक प्रश्न भी उठाये गये हैं। कैथोलिक तथा इस्लाम गर्भ समाप्ति को गुनाह मानते है। परिवार, यौन सम्बन्ध के बारे में सभी धर्मों के अपने अपने विचार हैं। यह सही है कि यह विचार तत्कालिक समय की स्थिति के अनुसार थे जब धर्म के सिद्धाँत तय हुए थे पर मनुष्य के लिये इन को भुला पाना कठिन है। अब जब कि मृत्यु दर में कमी हो रही है तो बड़े परिवार की बात असंगत हो जाती है। पर इस बात को समझने में समय लगे गा।


आर्थिक विकस के लिये जो वायदे किये गये थे, वे बहुत सरल लगते थे किन्तु समय ने उन को उस रूप में नकार दिया है। राष्ट्रवाद तथा स्वतन्त्रता को रामबाण माना गया था। इसी प्रकार समाजवाद तथा योजनाबद्ध विकास को भी अचूक औषध माना गया। उद्योग को प्रोत्साहन तथा कृषि का अंशदान गौण होने को भी प्रगति के समकक्ष माना गया। विदेशी मुद्रा के निवेश को आज का मापदण्ड माना जा रहा है। पर यह सब अपने आप में गल्त न होते हुए भी अपने आप में अपूर्ण हैं। आज ज्ञान युग में स्वचालित यंत्रों को तथा कृत्रिम बुद्धि की बात को भी उसी परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है।


अस्सी की दशक में विकासशील देशों को संगीन ऋण स्थिति से निपटना पड़ा जिस का प्रभाव कई वर्षों तक रहा। नब्बे की दशक में विश्व बैंक के दबाव में कई देशों ने मुक्त व्यापार प्रणाली को अपना लिया परन्तु इस से कितना लाभ हुआ, इस का आंकलन अधिक उत्साहजनक नहीं है। गरीबी रेखा के नीचे वालों पर इस का क्या प्रभाव पड़ा, इस बारे में गम्भीर मतभेद हैं।


राजनैतिक स्वतन्त्रता अनिवार्य थी आर्थिक प्रगति के लिये, इस में संदेह नहीं है। साम्राज्यवादियों की रुचि उपनिवेश की आर्थिक स्थिति दृढ़ करने की कभी नहीं रही। सस्ते कच्चे माल की उपलब्धि तथा प्रशासन को प्रभावी रखे रखना उन का लक्ष्य था। इस से अधिक नहीं। यदि जीवन स्तर बढ़ता तो सस्ती मज़दूरी नहीं मिल पाती। अशाँति रोकना, तथा कुछ ऐसे रिवाजों को समाप्त करना जो उन की दृष्टि में सही नहीं थे, यही उन के कार्य की इतिश्री थी। यदि नये स्वतन्त्र देशों, भारत इत्यादि समेत, के नेताओं ने ध्यान दिया होता तो लातीनी अमरीका की स्थिति स्पष्ट थी। यह देश कई दशकों से स्वतन्त्र थे पर उन का आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती थी। शोषण इस का मुख्य कारण था। निकारुगुआ में सोमाज़ा परिवार की उन के शासन काल की समाप्ति के समय देश की 25 प्रतिशत भूमि पर स्वामीत्व था। स्वतन्त्रता के बावजूद विकसित देशों को कच्चे माल का सस्ती दरों पर प्रदाय जारी रहा। भारत में जापान को लौह खनिज को औने पौने दामों पर बेचना आरम्भ किया गया। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं।


दूसरा मुख्य विचार यह था कि सरकार हस्तक्षेप कर समाजवाद तथा योजनाबद्ध कार्यक्रम से देश में आर्थिक स्थिति को सुधार सकती है। इस धारणा के लोगों का विचार था कि लालची निजी मालिकों की अपेक्षा सरकार द्वारा उत्पादन साधनों को अपने अधिकार में लेने से शोषण की समाप्ति हो जाये गी। उन का विचार था कि मुक्त व्यापार की स्थिति में विकसित देश उन्हें आगे नहीं आने दें गे। विकासशील देशों को अपनी औद्योगिक स्थिति को मज़बूत करना हो गा। आयात पर नियन्त्रण से ही घरेलू उद्योग पनप सके गा। इस के विरुद्ध कुछ अर्थशास्त्रियों जैसे हर्शमान, आवेर ने तर्क प्रस्तुत किये परन्तु उन्हें स्वीकार नहीं किया गया।


कुछ देशों जैसे चीन, उत्तर कोरिया, क्यूबा का विचार था कि पूँजीपतियों से सहयोग सम्भव नहीं है अतः वहाँ पूर्ण शासकीय स्वामीत्व में विकास का प्रयास किया गया। भारत में पूँजीपतियों को अलग तो नहीं किया गया किन्तु उन पर कड़ा नियन्त्रण स्थापित किया गया। परन्तु फिर भी पंच वर्षीय योजनाओं में गम्भीर चिंतन के बावजूद प्रगति के आँकड़े अनुमानित ही रहे। चीन में पूर्ण नियन्त्रण से अनुमान की बात को समाप्त करने का प्रयास किया गया। यह महसूस नहीं किया गया कि शासकीय नियन्त्रण समस्या का समाधान न हो कर समस्या का भाग हो सकता है। चीन में सांस्कृतिक अन्दोलन की ज़्यादितियों के कारण तथा भारत में अन्य कारणों से प्रगति की गति धीमी ही रही।


योजनाबद्ध तरीके से प्रगति का एक परिणाम यह भी हुआ कि उद्योग, जो नियन्त्रित हो सकता है, में प्रगति हुई पर कृषि जिस में नियन्त्रण का प्रभाव कम हो गा, पिछड़ गई। विकसित देशों की नकल में कृषि का अंशदान कम होने को प्रगति के समकक्ष मान लिया गया। नगरीकरण को प्रगति का मापदण्ड माना जाने लगा। राजनीति में भी नगरवासियों का वर्चस्व स्थापित रहा। यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राज्य अमरीका में कृषकों का राजनैतिक दबदबा कायम है। वहाँ पर कृषि उपज का मूल्य इतना है कि कृषकों को अधिक उपज के लिये प्रेरणा मिलती है। तृतीय विश्व में ऐसा नहीं है। नगरीय उपभोक्ताओं का ही ध्यान रखा जाता है। कारण स्पष्ट था कि रूस में क्राँति अधिकाँशतः नगरवासियों के कारण हुई थी तथा कृषकों पर साम्यवादियो का भरोसा नहीं था अतः साम्यवाद ने कृषि पर ध्यान नहीं दिया जब कि पश्चिम के देशों में कृषि में उन्नति ने पूँजी भी प्रदान की तथा उत्पादकता बढ़ने से श्रमिक भी ग्राम से नगर की ओर आये।


इस बात पर विचार नहीं किया गया कि उत्तर तथा दक्षिण की जलवायु में अन्तर है। उत्तर में चार मास के कठोर सरदी की ऋतु में भूमि को आराम मिल जाता है। दक्षिण में पूरे वर्ष फसल होती है तथा फसलों तथा खड़पतवार का मुकाबला जारी रहता है। इस कारण यहाँ पर अपनी जलवायु के अनुरूप अनुसंधान किया जाना चाहिये जो नहीं हो पाया।


एक और विचार जो विकासशील देशों को प्रभावित करता है, पूँजी निर्माण के बारे में है। पश्चिमी देशों का अनुभव था कि सब से अधिक आवश्यकता पूँजी की थी। इस के लिये बचत को प्रोत्साहन दिया जाना था। इस कारण बचत को ही प्रगति के मापदण्ड के रूप में देखा जाने लगा। भारत सरीखे देशों में बुरे दिनों के लिये बचा कर रखने की परम्परा पुरानी हैं अतः यहाँ पर कोई प्रोत्साहन देने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ पर माँग बढ़ाई जाना अधिक महत्वपूर्ण है। विश्वयुद्ध के बाद युरोप में पुनर्निमाण के लिये मारशल प्लान शुरू किया गया जिस में अमरीका ने धनराशि इन देशों में लगाई। तृतीय विश्व ने इसी की नकल में जल्दी से धन जुटाने के लिये कच्चे माल को बेचा तथा कराधान की दर भी काफी अधिक रखी। एक समय भारत में यह आय के उच्च स्तर पर 85 प्रतिशत तक थी। साथ ही विदेशी सहायता के लिये भी प्रयास किये गये। कुछ सहायता शासकीय स्तर पर दी गई पर यह चीन चीन कर उन्हें दी गई जो शीत युद्ध में अपने पक्ष में प्रतीत होते थे।


जो सहायता दी गई, वह दो प्रकार की थी। एक तो वह जिसे राहत राशि कहा जा सकता है। यह खाद्यान्न के रूप में दी गई। इस का उत्पादन में कोई योगदान नहीं था। वास्तव में सहायता वह होती है जो उत्पादन बढ़ाने में सहायक हो तथा देश को आत्म निर्भरता की ओर ले जा सके। दूसरी सहायता निजी क्षेत्र की थी। यह ऋण के रूप में भी थी तथा अंश पूूँजी के रूप में भी। अंश पूँजी का अर्थ है कि देश की आर्थिक क्षेत्र पर विदेशी पूँजी का आंशिक आधिपत्य। कभी कभी यह बहुराष्ट्रीय निगम इतनी विशाल होते हैं कि देश उन के सामने छोटा पड़ जाता है। उदाहरणतया अलकोआ कम्पनी जैमेका में बाक्साईट का खनन करती है जो उस का अल्यूमीनियम बनाने का मुख्य कच्चा माल है। अलकोआ का बजट जैमेका के सकल घरेलू उत्पादन से कई गुणा अधिक है। स्पष्ट है कि वह देश का आर्थिक ढाँचा प्रभावित करने की स्थिति में है। जब ऐसी कम्पनियाँ अपना लाभांश वापस भेजती हैं तो यह पूँजी लगाने के स्थान पर पूँजी निकालने का कार्य कर रही होती हैं। ऋण लिया जाना भी जोखिम की बात है क्योंकि उस का लौटाना निश्चित समय पर होता है चाहे लाभ हो रहा हो अथवा नहीं।


आँतरिक रूप से पूँजी निवेश का कार्य वर्तमान उपभोग तथा भविष्य के लाभ में से चयन का प्रश्न है। इस के लिये नागरिकों को अपने पर नियन्त्रण करना आवश्यक है। कराधान इस प्रवृति को प्रभावित कर सकता है। अनुमानित है कि जब बचत की दर सकल घरेलू उत्पादन की 20 संे 22 प्रतिशत हो जाती है तो आर्थिक प्रगति स्वयं पोषण की स्थिति में पहुँच जाती है। पर यह उक्ति भी कई देशों में सही नहीं पाई गई। बचत के होते हुए भी प्रगति हो नहीं पाई। इस के लिये कुछ अन्य आवश्यकता है, ऐसा महसूस किया गया। शिक्षा, प्रबंधन कला, उद्यमवृति इत्यादि के बारे में सोचा गया किन्तु अन्ततः तकनालोजी को ही वास्तविक कारण पाया गया जिस का अभाव आर्थिक प्रगति में बाधा था। पर इस में भी एक पेच है। तकनालोजी का अन्तरण समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि विकसित देशों की तकनालोजी श्रम कम करने वाली है जब कि विकासशील देशों को श्रम की कमी न होने की शिकायत नहीं है। फिर भी कुछ अंश तक विशेषतया उद्योग में तकनालोजी का अन्तरण आवश्यक है। तकनालोजी को श्रम में कमी के रूप में न देखा जा कर गुणवत्ता में वृद्धि के रूप में देखा जाना चाहिये।


आरम्भ में जो उद्योग शुरू हुए, वह इस प्रकार के थे जिन में श्रम के एक स्थान से दूसरे में जाने पर कोई रूकावट न थी। पर जैसे जैसे तकनालोजी आगे बढ़ी, विशेषज्ञता आने लगी तथा एक उद्योग से दूसरे उद्योग में श्रमिक तभी जा सकते हैं जब उन्हें पुनः नये उद्योग के लिये प्रशिक्षित किया जाये। श्रमिकों की गुणवत्ता का सीधा प्रभाव उत्पादकता पर पड़ता है। पाया गया कि भले ही श्रमिकों का वेतन विकासशील देशों में कम हो पर श्रम सस्ता नहीं है यदि उसे उत्पादकता की तुलना में देखा जाये। साठ तथा सत्तर के दशकों में इस ओर ध्यान दिया गया। स्वास्थ्य, साक्षरता, पोषण तथा तकनीकी प्रशिक्षण पर कुछ अधिक व्यय किया गया। पर इस से भी आँशिक सफलता ही मिल पाई है तथा गरीबी का इलाज इस से नहीं हो पाया है। ऐसा इस कारण भी है कि इस बढ़े हुए व्यय में मनोवृति में परिवर्तन का स्थान नहीं था। इस कारण केवल भौतिक लक्ष्य ही प्राप्त हो सके तथा उद्यमवृति पूर्व की भाँति बनी रही। जहॉं तक भारत का सम्बन्ध है, उस में स्वास्थ्य इत्यादि के लिये भी उपलब्ध धनराशि सीमित ही रही। वीयतनाम, श्री लंका आदि देश आगे निकल गये।


स्वास्थ्य के बारे में विकसित देशों में उच्च तकनीक वाली दवाईयाँ तथा अन्य साधन उपलब्ध है जिन्हें विकासशील देश अपने नागरिकों को मुहैया नहीं करा सकते। चीन में तथकथित नंगे पैर वाली चिकित्सा सेवा ने काफी सफलता पाई है किन्तु अन्य देश निहित स्वार्थ वर्ग के कारण ऐसा नहीं कर पाये। इसी के साथ जुड़ी हुई समस्या पोषण की है। या तो कैलोरी की मात्रा कम है अथवा सही अनुपात में विभिन्न खाद्य पदार्थ नहीं मिल पाते। इस में सामाजिक स्थिति की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। अफ्रीका में कुपोषण एशिया के कई देशों से कम है यद्यपि गरीबी की दृष्टि से अफ्रीका अधिक पिछड़ा हुआ है। कुपोषण का शिकार बच्चे अधिक होते हैं तथा त्रासदी यह है कि प्रारम्भिक वर्षों में जो हानि हो जाती है, उस की भरपाई बाद में नहीं हो पाती।


मानव संसाधन का अर्थ हर आयाम में शिक्षा से है। प्रारम्भिक शिक्षा से ले कर तकनीकी तथा सेवा दौरान प्रशिक्षण तक इस में शामिल हैं। इस में भी वर्तमान उपभोग का त्याग कर भविष्य के लिये निवेश की बात निहित है। बच्चों के कार्य करने से जो आय हो सकती है, उस से वंचित रहना पड़ता है तथा साथ ही उन की शिक्षा पर व्यय भी करना पड़ता है। इस के अतिरिक्त अधिकतर बच्चे पढ़ना सीख तो लेते हैं किन्तु साक्षरोपरान्त कुछ पढ़ने योग्य न होने से फिर से निरक्षरता के शिकार हो जाते हैं। अधिक सौभाग्यशाली ग्रामों को छोड़ कर नगरों में आ जाते हैं जिस से ग्राम पिछड़़े हुए ही रह जाते हैं। निरक्षरता के प्रति अभियान का सब से महत्वपूर्ण अन्दोलन पालो फ्रीरे का लातीनी अमरीका में था। उन का मत था कि साक्षरता का अर्थ लोगों को अपने जीवन का नियन्त्रण अपने हाथ में लेने का है न कि केवल कुछ अक्षर ज्ञान। संगठन बनाने की कला, राजनैतिक सूझ बूझ, सामाजिक कार्रवाई करने की क्षमता, यह ही उपलब्धियाँ हैं। कई अर्थों में माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक शिक्षा केवल स्रोत्रों तथा समय का नष्ट करने जैसा है। वह लोगों को स्वरोज़गार के लिये अथवा रोज़गार के लिये तैयार नहीं करते। परीक्षा उत्तीर्ण करना उन का एक मात्र उद्देश्य रह जाता है। इस से शिक्षित बेरोज़गार की एक बड़ी फौज तैयार हो जाती है जो असंतोष की भावना को जन्म देती है। सही अर्थों में प्रशिक्षित व्यक्ति ही राष्ट्र की प्रगति के लिये कार्य कर सकते हैं।


विश्व के इतिहास में कभी कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब प्रतीत होता है कि विकासशील देश प्रगति की राह पर हैं परन्तु यह प्रयास कुछ समय के बाद फीका पड़ जाता है। 1973 से 1983 के बीच कच्चे तेल के मूल्य में तेज़ी से वृद्धि हुई। तेल उत्पादक देशों ने अपने उत्पादन को सीमित रख इस तेज़ी का लाभ उठाया। पूर्व में अमरीकी तथा युरोप की कम्पिनियाँ कम भाव पर तेल खरीद का अत्याधिक लाभ अर्जित करती थीं। उस में से कुछ भाग तेल उत्पादक देशों को भी मिलने लगा। इस से उन देशों में प्रगति के लिये साधन उपलब्ध होना आरम्भ हुए। परन्तु यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। इस का एक कारण विभिन्न तेल उत्पादक देशों द्वारा अपने उत्पादन पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण हुआ। चाहे दबाव में आ कर अथवा लालच के कारण आपस के करारनामे को कुछ देश पूरा नहीं कर पाये। कुछ नये क्षेत्रों का भी विकास किया गया जो पूर्व में कम कीमत के कारण लाभ देने की स्थिति में नहीं थे।


दशक की तेल मूल्य की वृद्धि के दौरान इस बात का प्रयास किया गया कि एक नवीन आर्थिक ढाँचे को अपनाया जाये। संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने भी इस की वकालत की तथा यह माँग की गई कि न केवल तेल के मामले में वरन् अन्य कच्चे माल के लिये भी अमीर देश गरीब देशों को सहायता दें। तेल की कीमतें कम होने के साथ इस बात पर भी चर्चा समाप्त हो गई।


अस्सी की दशक में ऋण समस्या ने विश्व की अर्थ व्यवस्था को भारी झटका दिया। इस का आरम्भ सत्तर की दशक में हुआ जब तेल की भारी आय को विकसित देशों के बैंको में जमा कराया गया। इस जमा राशि को देखते हुए बैंको द्वारा भारी परिमाण में ऋण दिये गये। तेल आयात करने वाले देशों में तेल के लिये अधिक पैसा देना पड़ा जिस में यह ऋण काम आये। यह ऋण उत्पादन बढ़ाने के काम में न आ सके। व्याज का भुगतान तथा कच्चे माल की कीमत में वृद्धि न होने के कारण ऋण का भार बढ़ता गया। 1980 में मैक्सिको का निर्यात होने वाली सामग्री का 50 प्रतिशत भाग ऋण की मूल राशि तथा व्याज में व्यय होता था। ब्राज़ील में यह प्रतिशतता 63 थी, पेरू मे 47; चिल्ली में 43। भुगतान की कठिनाईयों के कारण पूरे विश्व की अर्थ व्यवस्था पर ही खतरा मण्डराने लगा। 1981 में विकसित देशों से विकासशील देशों को 42.6 अरब डालर का हस्तान्तरण हुआ। 1988 में स्थिति इस के उलट हो गई तथा विकासशील देशों ने विकसित देशों को 32.5 अरब डालर का शुद्ध भुगतान किया।


परिणाम यह हुआ कि विकासशील देशों में वास्तविक मज़दूरी में भारी कमी आई। मैक्सिको में यह कमी 40 प्रतिशत हुई। नाईजीरिया का प्रति व्यक्ति आय दो वर्ष 1985 से 1987 के बीच आधी रह गई। इस में तेल में हुई कमी का भी योगदान था। इस से निपटने के लिये कुछ परिवर्तन किये गये। ऋण लौटाने की शर्तों में ढील दी गई। कुछ ऋण माफ भी किये गये। पर इस का परिणाम यह भी हुआ कि विश्व बैंक के माध्यम से विकासशील देशों को अमीर देशों द्वारा निर्धारित नियमों को अपनाने के लिये मजबूर होना पड़ा।


नई व्यवस्था में बाज़ार को मुक्त करने की दिशा में कार्य हुआ। नियन्त्रण को समाप्त तो नहीं किया गया पर शिथिल किया गया। निजी क्षेत्र को उद्योग तथा सेवा क्षेत्र में आमंत्रित किया गया। मूल्य नियन्त्रण समाप्त किया गया तथा अनुदान की राशि कम अथवा समाप्त की गई। लाभ की अवधारणा को पुनः प्रतिष्ठित किया गया। राज्य की भूमिका को कम करने का प्रयास किया गया। स्वयं पूर्ती की भावना को एक रूकावट मान कर निरुत्साहित किया गया। इस भावना में सोवियत रूस के खंडित होने के कारण भी बल मिला। उल्लेखनीय है कि भारत में अनुदान की राशि को कम नहीं किया जा सका वरन् इस में खाद्य सुरक्षा अधिनियम तथा नरेगा के कारण अनुदान पहले की अपेक्षा बढ़ा है।


पर यह उल्लेखनीय है कि जिन देशों के निर्यात से वहाँ की अर्थ व्यवस्था सुधरी है, उन में से कई कपड़े के निर्यात पर अवलम्बित हैं। भारत में इस के अतिरिक्त सूचना तकनालोजी का बड़ा योगदान रहा है। पर अपवाद भी है जैसे कि दक्षिण कोरिया ने अधिक उन्नत वस्तुओं का निर्यात भी आरम्भ किया है। कुल मिला कर मुक्त वपार की इस नई व्यवस्था से विकासशील देशों की स्वायतता में कमी आई है। वह विकसित देशों पर अधिक निर्भर हो गये हैं।


यह अध्ययन करने योग्य विषय है कि इस वृद्धि का कितना अंश देश की गरीबी हटाने के काम आया है। बाज़ार पर निर्भर रहने से उन्हें अपनी हालत पर छोड़ दिया गया। स्थानीय छोटे उद्योगपति बहु राष्ट्रीय कम्पनियों का मुकाबला नहीं कर पाये तथा या तो बाज़ार से बाहर हो गये या बहु राष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा हस्तगत कर लिये गये। कुछ देशों में फिर से सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। विश्व व्यापार संगठन की मुक्त व्यापार नीति ने कुछ विशेष प्रभाव नहीं डाला इस कारण विभिन्न देशों को आपसी समझौते करने पड़े। इन में नाफता (नार्थ एटलांटिक फ्री ट्रेड एग्रीमैण्ट), एशियान, सार्क इत्यादि समझौते शामिल हैं।


मुक्त व्यापार के विरोधी कई स्थानों पर सक्रिय हैं। उन का विचार है कि इस नीति से कमज़ोर देश कभी आगे नहीं बढ़ पायें गे। मैक्सिको, बोलिविया, अर्जनटीन इत्यादि कई देशों में विरोध स्वरूप प्रदर्शन भी हुए। वास्तव में दक्षिण अमरीका में गरीबी में कमी न आने की सब से गम्भीर स्थिति है। बाज़ार को प्रधानता मिलने के कारण कई देशों में अशासकीय संस्थाओं का महत्व बड़ा है। चूँकि राज्य ने नागरिकों की रक्षा से अपने को अलग कर लिया है अतः इस का बीड़ा कुछ सीमा तक इन संस्थाओं ने उठाया है। वैसे कई अशासकीय संगठन काफी समय से कार्यरत हैं। उदाहरणतया रैड क्रास। पर कई नई संस्थायें भी आई हैं। यह संस्थायें कई प्रकार की हैं। ऋण देने के लिये बंगलादेश की ग्रामीण बैंक ने काफी अच्छा काम किया है। कमज़ोर लोगों को छोटे छोटे ऋण दिये गये तथा व्यक्ति के स्थान पर समूह को वापसी के लिये उत्तरदायी बनाया गया। इन स्वैच्छिक संस्थाओं में उत्साह का वातावरण तैयार होता है। कई राज्यों ने इन के माध्यम से ही कार्य करना आरम्भ किया है। यहाँ तक कि शासन ने स्वयं ऐसी संस्थायें स्थापित की हैं जैसे भारत में राष्ट्रीय महिला कोष।


देखना यह है कि यह स्वैच्छिक संस्थायें आगे किस प्रकार कार्य करती हैं। अभी भी कई नाम मात्र की संस्थायें बन गई हैं जो गरीबी के नाम पर केवल व्यक्ति विशेष के हित के लिये हैं। इसी प्रकार बाज़ार पर पूर्ण निर्भरता की भी परीक्षा है और देखना है कि कहीं वह भी अन्य प्रयासों की तरह, जिन के इरादे तो बहुत अच्छे थे, असफल न हो जायें।


सात . विदेशी नीति


आम तौर पर देखा जाये तो विकासशील देश गरीबी के विरुद्ध युद्ध में विकासशील देशों के प्रति सहृदय नहीं हैं। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात उन की नीतियाँ शीत युद्ध से प्रभावित रहीं। अमरीका तथा रूस की प्रतिद्वन्द्वता में तीसरे विश्व के देशों को केवल मोहरा समझा गया। सोवियत रूस के विखण्डित होने के बाद आशा जगी कि गरीबी के विरुद्ध कुछ किया जा सके गा किन्तु यह आशा अभी तक पूरी होती नज़र नहीं आती। 11 सितम्बर के न्यू यार्क पर हमले के बाद तो यह प्रायः समाप्त ही हो गई है।


शीत युद्ध के समय अरबों डालर सुरक्षा के नाम पर व्यय किये गये। रूस की शक्ति को उस समय भारी चुनौती मिली जब वह अफगानिस्तान में अपनी पसंद की सरकार कायम नहीं रख पाये। धीरे धीरे पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया, हंगरी, पूर्वी जर्मनी तथा अन्य देश भी उन के प्रभाव से मुक्त होते गये। स्वयं रूस में आर्थिक सुधार का दौर आरम्भ हुआ पर उन की स्थिति अभी तक ऐसी नहीं है कि वह किसी को चुनौती दे सके।


शीत युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमरीका की पूरी विदेश नीति केवल साम्यवाद विरोध की रही। स्थानीय झगड़ों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। तानाशाहों को, जनता के शोषण कर्ताओं को समर्थन दिया गया जब तक यह विश्वास था कि साम्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में वे उस के साथ है। जहाँ पर शासक विरोध में थे वहाँ पर उन के विरोधियों को शह दी गई यदि ऐसा करने की गुंजाईश थी। बीच में काटर्र ने कुछ मानव अधिकारों की बात सोची पर उन का भारी विरोध हुआ। साथ ही अपने निहित हितों को भी पूर्णतया अनदेखा नहीं किया जा सका। रीगन के लौटने के साथ यह प्रवृति समाप्त हो गई। 1984 में रीगन ने मानव अधिकार दिवस पर बारह ऐसे व्यक्तियों का स्वागत किया जो मानव अधिकार से वंचित रखे गये थे पर यह सब रूस, पोलैण्ड, क्यूबा, निकारगुआ, अफगानिस्तान, कम्पूचिया से थे जो अमरीका के मित्र देश नहीं थे। मित्र देश - ईराक, दक्षिण कारिया, फिलीपीन, दक्षिण अफ्रीका, ग्वाटेमाला इत्यादि से कोई व्यक्ति उन में नहीं था। वीयतनाम में हो ची मिन्ह आरम्भ में अमरीका का साथ चाहते थे पर उन के इंकार पर उन्हें रूस की सहायता लेना पड़ी। दक्षिण अमरीका में भी जब अमरीका ने भूमिस्वामी गुट का साथ देना पसंद किया तो शासकों को रूस की ओर झुकना पड़ा।


पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस कारण से संयुक्त राज्य अमरीका सुरक्षित है अथवा वह विश्व के सभी मामलों पर नियन्त्रण रख सकता है। उस ने अरबों के विरुद्ध इसराईल का सदैव समर्थन किया है पर फिर भी वह अपनी शर्तों पर शाँति स्थापित नहीं करवा पाया है। ईराक में तथा अफगानिस्तान में अभी तक शाँति स्थापित नहीं हो पाई है वरन् अफगानिस्तान में तो विरोधी और सशक्त हो रहे हैं। पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि विदेश नीति बनाते समय कोई भी देश अमरीका के विरोध को अपनी नीति का आधार नहीं बना सकता। ईरान को भी समझौता करना पड़ा।


उल्लेखनीय है कि शीत युद्ध के चर्म सीमा पर होने के समय कई देशों ने मिल कर घोषणा की कि वे किसी भी विश्व शक्ति के साथ नहीं हैं। उन का तर्क था कि इस पूर्व पश्चिम के झगड़े के स्थान पर उत्तर दक्षिण के अन्तर पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये। 1961 में नाम (नान एलाईण्ड मूवमैण्ट - तटस्थ अन्दोलन) तथा 1973 में ‘‘77 के समूह’’ के माध्यम से इस बात को उठाया गया। 1974 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ‘‘आर्थिक अधिकार तथा राज्यों के कर्तव्य’’ नाम से एक चाटर्र को अपनाया। 1980 में विल्ली बाँट की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र आयोग ने नये आर्थिक कार्यक्रम के सुझावों के अनुरूप अपनी सिफारिशें दीं। पर तब तक तेल संकट समाप्त हो गया था तथा विकसित देश कोई भी रियायत देने को तैयार नहीं थे। तृतीय विश्व के पास सिवाये तेल के कोई सौदेबाज़ी की शक्ति नहीं थी तथा वह शक्ति भी पर्याप्त नहीं रह गई थी।


मानव अधिकारों की उपेक्षा की इस नीति में कोई परिवर्तन निकट भविष्य में नज़र नहीं आता है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि विकसित देशों की स्मृद्धि पूरे विश्व की स्मृद्धि से जुड़ी है। दूसरे सभी देशों के भीतर स्मृद्धि इस बात से जुड़ी है कि वहाँ पर सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये जायें। यदि देश के भीतर शोषण जारी रहता है तो गरीबी उन्मूलन केवल कल्पना ही रह जाये गी। पर क्या इस शोषण को समाप्त करने के लिये बाहरी हस्तक्षेप आवश्यक है चाहे वह सैनिक हस्तक्षेप की सूरत में ही हो। सोमालिया में हस्तक्षेप को कुछ अंश तक मानव अधिकारों की रक्षा के समर्थन में कहा जा सकता है। रवांडा के नरसंहार में हस्तक्षेप भी मानव सहायता के लिये था किन्तु यह बहुत कम, बहुत विलम्ब से हुआ। बोसनिया में हस्तक्षेप भी इसी श्रेणी में आता है। कोसावो में हस्तक्षेप समय रहते होना कहा जा सकता है पर अमरीका द्वारा केवल बम्ब फैंकने तक अपने को सीमित रखने तथा पैदल सैना न भेजने की नीति ने बजाये सहायता करने के अल्बानिया के लिये अधिक कठिनाई पैदा करने वाली थी।


हैती का किस्सा अजीब है। अरिस्टाईड को सत्ता सौंपने पर आना कानी करने पर अमरीका ने आपन सैना भेजने का निर्णय लिया पर उस से पूर्व ही सत्ता अरिस्टाईड को सौप दी गई तथा अमरीकी सैनायें शाँति में वहाँ पहुँची। पाँच वर्ष बाद चुनाव में अस्टिाईड ने 1996 में चुनाव हारने पर सत्ता शाँतिपूर्वक सौंप दी जो हैती के इतिहास में पहली बार हुआ। वर्ष 2000 में पुनः सत्ता में आने पर अरिस्टाईड का शासन अफरातफरी के माहौल में चल रहा है। सहायता देने वाले देशों ने अपनी सहायता निलम्बित कर रखी है। क्या यह कठपुतली शासन के अभाव के कारण है, यह स्पष्ट नहीं है। इसके पश्चात भी हैती की हालत में विशेष सुधार नहीं आया हे यद्यपि 2010 में 5.3 अरब डालर की सहायता का वायदा किया गया। इस से पहले 2009 में 1.2 अरब डालर का ऋण माफ भी किया गया था।


इस पूरी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र की क्या स्थिति है। जब तक शीत युद्ध था तब तक रूस की वीटो शक्ति के कारण वह कुछ कर पाने में असमर्थ थी। विखण्डन के पश्चात रूस ने अधिक लचीला रुख अपनाया है पर अभी भी ईराक में अमरीका ने बिना संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृति के ही सैना भेजी। म्यानमार में कुछ भी कार्रवाई करने की बात सोची भी नहीं गई यद्यपि वहाँ का मानव अधिकार इतिहास चिन्ताजनक थी।


विदेश नीति के इस झुकाव में आर्थिक नीति की भी वही कहानी है। विश्व बैंक ने एक बार 1968 में कनैडा के पीयरसन की अध्यक्षता में एक समिति बनाई धी जिस ने अनुशंसा की कि विकास के लिये विकसित देशों को विकासशील देशों की सहायता करना चाहिये। उस ने सकल घरेलू आय का 0.7 प्रतिशत इस कार्य के लिये रखने का प्रस्ताव किया। वर्ष 2000 में केवल डैनमार्क, नार्वे, हालैण्ड तथा स्वीडन ने ही 0.7 प्रतिशत की सीमा तक पहुँचे हैं। इस के दस वर्ष बाद विल्ली बाँट समिति ने भी व्यापार, निवेश, औद्योगिक नीति तथा मुद्रा नीति के बारे में सहयोग की अनुशंसा की। पर इन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। आर्थिक नीति का पूरा ज़ोर मुक्त व्यापार को बढ़ाने पर ही है। युरोप के देशों की नीति इस से कुछ अधिक उदार थी पर बहुत अधिक नहीं। जापान वर्ष 2000 में सकल आय का 0.22 प्रतिशम विदेशी सहायता के रूप में देता है जब कि संयुक्त राज्य अमरीका का योगदान सकल आय का 0.1 प्रतिशत है। पर इस से भी अधिक उल्लेखनीय है कि इस में से अधिकतर राशि इसराईल तथा मिस्र को गई है और वह भी सैनिक सामग्री के रूप में। अमरीका कभी कभी खाद्यान्न के रूप में सहायता करता है पर उस के पीछे प्ररेणा अपने किसानों को लाभ पहुँचाने की होती है। यह बात और है कि यह सहायता भी प्राप्त करने वाली सरकारों द्वारा बेची जाती है न कि निशुल्क वितरित।


पर सभी व्यक्ति विदेशी सहायता के पक्ष में नहीं हैं। उन के द्वारा विदेशी सहायता के विरुद्ध दो तर्क दिये जाते हैं। एक यह कि इस से प्राप्तकर्ता देश अधीनस्था की स्थिति में आ जाते हैं। दूसरा यह कि इस से उन में आत्म निर्भर होने की इच्छा समाप्त होती है।


व्यापार के बारे में विकसित देशों की चिन्ता अधिक है। इस का कारण यह है कि संयुक्त राज्य अमरीका तथा ब्रिटेन का व्यापार संतुलन इस समय उन के विपरीत है। उन की शिकायत है कि जापान अपने बाज़ार खोल नहीं रहा है जिस से वे अपना माल वहाँ निर्यात नहीं कर पा रहे हैं। वह जापान के विरुद्ध कुछ करना कठिन है अतः संतुलन बनाये रखने के लिये वे विकासशील देशों से आयात कम करना चाहते हैं। पर इस से क्या वास्तव में अमरीका को लाभ होता है? इस का एक परिणाम यह होता है कि विकासशील देश उन के द्वारा तैयार माल को आयात नहीं कर पाते हैं। इस कारण यद्यपि दबाव तो रहता है किन्तु यह देश मुक्त व्यापार को समाप्त नहीं कर पाते हैं।


नाफता का करार कनैडा, संयुक्त राज्य अमरीका तथा मैक्सिको, में से किसी के भी नागरिक को पसंद नहीं था। कनैडा का विचार था कि इस से अमरीकी प्रभुत्व, जो पहले ही बहुत अधिक है, और बढ़ जाये गा। अमरीका को डर था कि मैक्सिको की सस्ते श्रम के कारण उन को हानि हो गी। मैक्सिको का विचार था कि अमरीका के आने से उन का उद्योग चैपट हो जाये गा। पर फिर भी तीनों सरकारों ने यह समझौता किया है। कारण उन का विश्वास है कि दीर्घ अवधि में इस से सब का लाभ हो गा। माना जाता है कि मुक्त व्यापार से विकसित देशों का श्रम कम उत्पादकता वाले उद्योगों से हट कर अधिक उत्पादकता वाले उद्योगों में जाये गा। आवश्यकता केवल पुनः प्रशिक्षण की हो इस के लिये इन देशों में उदार मन से प्रतिपूर्ति दी गई है तथा प्रशिक्षण के अवसर दिये गये हैं।


तृतीय विश्व के लिये मुक्त व्यापार का महत्व इस में है कि नये उद्योग स्थापित हो सकते हैं। अधिकतर देशों में मुक्त व्यापार के लिये सहमति विकसित देशों के दबाव में दी गई है। यह अजीब हो गा कि इस से वही मुँह मोड़ लें। कुछ त्याग अवश्य करना पड़े गा पर अन्ततः इस से सब का भला हो गा। शीत युद्ध के दौरान पश्चिम के देशों का मानना था कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारे विरुद्ध है। वास्तव में ऐसा नहीं था। नये स्वतन्त्र देश चिर काल तक उपनिवेशवादियों द्वारा शोषण के विरुद्ध अपना रोष प्रकट कर रहे थे। उन में से अधिकतर यह चाहते थे कि उन्हें भी बढ़ने का अवसर दिया जाये। क्या आगे विकसित देश तथा विकासशील देश आपस में सहयोग कर पायें गे, यह केवल भविष्य ही बताये गा।


आठ - भविष्य


जो जोश तथा अपेक्षायें दिल्ली में यूनियन जैक का उतारते तथा तिरंगे को चढ़ाते समय थीं, जो उत्साह घाना में अफ्रीका का प्रथम स्वतन्त्र देश बनने का था, जो प्रसन्नता एलैण्डे के राष्ट्रपति बनते समय चिल्ली में थी, वह आज भूत काल का हिस्सा बन चुकी हैं। यह उम्मीदें, यह अपेक्षायें सफलीभूत नहीं हो पाईं। आज गरीबों की संख्या 1947 में गरीबों की संख्या से कहीं अधिक है। इस बीच कई प्रयोग हुए - समाजवाद, साम्यवाद, आत्म निर्भरता का प्रयास - पर वह मूल समस्या का समाधान नहीं कर पाये। आर्थिक सम्पन्नता आज भी कुछ देशों को ही उपलब्ध है।


वैश्वीकरण ने स्थिति में आमूल परिवर्तन किया है। चाहे जिन कारणों से हो, आज का युग मुक्त व्यापार का युग है। अनुज्ञापत्र, अधिक कराधान, आयात पर प्रतिबन्ध का ज़माना समाप्त हो चुका है। विश्व व्यापी निगम कई कई देशों में अपना कार्य कर रहे हैं। विश्व संगठन आर्थिक स्थिति को दिशा निर्देश देने के लिये अस्तित्व में हैं। यह सही है कि कहीं कहीं इस मुक्त व्यापार के विरुद्ध अन्दोलन भी हुए हैं पर उन की संख्या सीमित है। यह भी सही है कि कुछ देशों में अपूर्व प्रगति हुई है पर उस के साथ अस्थिरता भी आई है। रातों रात संकट उत्पन्न हो जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पूँजीवाद का वीभत्स रूप भी कभी कभी देखने को मिलता है। पर आशा है कि जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर पूँजीवाद को श्रमिक संगठनों, नियन्त्रण अभिकरणों, कर्मचारियों की सुरक्षा तथा उन की सेवा समाप्ति के नियम निर्धारण द्वारा नियन्त्रित कर लिया गया है, उसी भाँति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जा सके गा। जिस समय देश के स्तर पर यह नियम लागू किये जा रहे थे, पूँजीपतियों का कहना था कि इस से औद्योगिक प्रगति को धक्का लगे गा किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसी प्रकार विश्व स्तर पर भी कोई अन्तर आये गा, इस में संदेह है।


पर आज की स्थिति गरीब देशों के पक्ष में है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। संयुक्त राष्ट्र अपने कृत्यों के लिये पूरी तरह अमीर देशों पर निर्भर है। शाँति सैना की आवश्यकता हो तो उन्हीं का मुँह देखना पड़ता है। विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय वित्त परिसंघ अमीर देशों के नियन्त्रण में हैं। मुक्त व्यापार पर तो ज़ोर दिया जाता है परन्तु श्रम के आने जाने पर प्रतिबन्ध पूर्ववत कायम हैं। पर दूसरी ओर परिक्षेत्रीय तौर पर ही सही, स्थिति में परिवर्तन भी आ रहा है। उदाहरणतया नाफता ने न केवल मुक्त व्यापार की बात कही है वरन् पर्यावरण, स्वास्थ्य के बारे में भी नियम बनाये हैं। कठिनाई यह है कि यह नियम देशों पर तो लागू होते हैं किन्तु बहु राष्ट्रीय निगमों पर नहीं। निगमों के बारे में नवीन आर्थिक कार्यक्रम में अस्सी के दशक में प्रस्ताव किये गये थे पर उन पर आगे कार्रवाई नहीं हो पाई। अब सम्भवतः इन पर विचार किया जा सकता है। इस में निम्नानुसार मुद्दे निहित हों गे।


1. मज़दूरी को सभी देशों में एक समान करना तो सम्भवतः व्यवहारिक नहीं हो गा किन्तु यह प्रावधान अवश्य किया जाना चाहिये कि न्यूनतम मज़दूरी की दरें तय की जायें।

2. दैनिक कार्य की अवधि निर्धारित की जाये जिस से अधिक कार्य करने पर अतिरिक्त भुगतान देय हो गा।

3. कार्य करने के स्थान पर सफाई, विषैले रसायन, सुरक्षा इत्यादि के मापदण्ड सभी देशों में एक समान होना चाहिये।

4. कर्मचारियों को संगठित होने की स्वतन्त्रता होना चाहिये तथा उन्हें सामूहिक सौेदेबाज़ी के लिये अधिकृत होना चाहिये।

5. जाति, लिं्रग, राष्ट्रियता, धर्म तथा राजनैतिक विचार के आधार पर कोई भेद भाव नहीं किया जाना चाहिये।

6. कतिपय देशों द्वारा कर में मुक्ति अथवा अवांछित छूट देने की प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिये तथा कर की नयूनतम दरें तय की जाना चाहिये।

7. सभी निगमों को सभी देशों में अपने क्रियाकलाप के बारे में पूरी तथा स्वच्छ जानकारी देने की बंदिश होना चाहिये।

8. विशेष तौर पर बैंको के बारे में जानकारी के लिये विशेष नियम बनाना चाहिये।

9. एक देश से दूसरे देश में राशि ले जाने पर कर की व्यवस्था होना चाहिये ताकि रातों रात किसी देश से पूँजी का पलायन न हो सके।

10. मानव अधिकारों के बारे में मापदण्ड निर्धारित किये जाना चाहिये तथा इन के उल्लंघन पर समुचित एवं समन्वित कार्रवाई होना चाहिये।

11. सभी देशों पर कर लगाया जाना चाहिये जो उन के प्रति व्यक्ति आय के अनुपात में हो। इस से प्राप्त राशि का प्रयोग गरीब देशों की स्थिति सुधारने के लिये किया जाना चाहिये।

12. सभी देशों की संस्कृति का आदर किया जाना चाहिये तथा किसी पर अपनी संस्कृति थोपने के किसी भी प्रयास की भत्र्सना की जाना चाहिये। वैश्वीकरण का अर्थ किसी की संस्कृति को नष्ट करना नहीं होना चाहिये।

13. पेटैण्ट पंजीकरण का उद्देश्य किसी परम्परागत ज्ञान अथवा रीति रिवाज को हस्तगत करना नहीं होना चाहिये।

14. उपरोक्त सभी व्यवस्थाओं के उल्लंधन करने पर कार्रवाई के लिये अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था होना चाहिये।


वैसे तो इन सभी प्रावधानों में विश्व सरकार की कल्पना निहित है पर अभी सम्भवतः उस का समय नहीं आया है। परन्तु उस ओर पहल करने की आवश्यकता है। कहने का तात्पर्य है कि असमानता के सभी आयामों को समाप्त करने की आवश्यकता है ताकि सभी लोग न्यूनतम जीवन स्तर को प्राप्त कर सकें। इस का दायित्व अमीर देशों का भी हो। उन्हें यह समझना चाहिये कि यदि असमानता बनी रहती है तो विश्व शँति के लिये हमेशा भय बना रहे गा जिस में उन्हें भी अन्ततः हानि ही हो गी।


पूर्व में हम ने तीन अवधारणाओं का वर्णन किया है जो कि वर्तमान दशा के लिये अपने अपने तर्क देती हैं। इन में से निर्भरता तथा साम्यवादी विचारधारा अमीर देशों को इस के लिये दोषी मानती हैं यद्यपि उन के विश्लेषण में अन्तर है। उन का यह भी विचार है कि अमीर देश गरीबी उन्मूलन के लिये आगे नहीं आयें गे। साम्यवादी इस के लिये क्राँति का आवश्यक मानते हैं पर पूर्व इतिहास बताता है कि ऐसी क्राँति भी समस्या का समाधान नहीं कर पाई है। निर्भरतावादी अमीर देशों के हृदय परिवर्तन की सम्भावना गत इहिास देखते हुए नहीं मानते हैं। आधुकितावादी का तर्क है कि उन के मार्ग पर चल कर गरीब देश भी सम्पन्न हो सकें गे पर ऐसा होने की सम्भावना क्षीण है। बिना सहयोग की भावना के किसी भी अवधारणा में वह शक्ति नहीं है जो वर्तमान स्थिति को बदल सके। अमीर देशों को देर सवेर समझना हो गा कि उन की खुशहाली निर्यात पर आधारित है तथा यदि अन्य देश उन के माल को क्रय करने की शक्ति नहीं रखें गे तो उन्हें उत्पादन का कोई लाभ नहीं हो गा। यह मानना कठिन है कि अमीर देश अपनी अमरीरी में प्रसन्न रहें गे तथा उन पर शेष देशों की गरीबी से केवल सस्ते श्रम के रूप में लाभ ही होगा, हानि नहीं हो गी। आज आतंकवाद एक खतरा बन कर उभरा है। कल उस का रूप और भी भयानक हो सकता है। पर्यावरण की यदि गरीब देश उपेक्षा करें गे तो अमीर देश उस के कुप्रभाव से मुक्त नहीं रह सकें गे क्योंकि धरती एक ही हैं तथा मानव जाति की संरचना भी एक समान ही हैं।


अतः हमें बिना निराशा का विचार किया सतत प्रयास करना चाहिये कि सहयोग की भावना का विस्तार हो तथा पूरा विश्व एक साथ आगे बढ़ सके।


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