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खाना और संस्कृति

  • kewal sethi
  • Nov 22, 2021
  • 5 min read

खाना और संस्कृति


खाना एक ऐसी चीज़ है जो आदमी को जानवर से अलग करती है। वैसे तो खाना सभी खाते हैं - जानवर भी खाते हैं। पक्षी भी खाते हैं। और आदमी भी खाते हैं। पर फिर भी खाने खाने में अन्तर है। जानवर वही खाते हैं जो खाना चाहिये। शेर घास नहीं खा सकता] हिरण मांस नहीं खा सकता। कौवा जो मिल जाता है] वही खा लेता है। बन्दर तो पेड़ पर लगे फल खाता है। कहते हैं कि हॅंस सिर्फ मोती ही चुगता है। पता नहीं उसे मोती कहॉं से मिल जाते हैं। आदमी को उस जगह का पता चले तो तुरन्त ही वहॉं पहुंच जाये और ......


आदमी पर खाने के मामले में कोई बंदिश नहीं है। वह घास भी खा ले गा - यह अलग बात है कि वह उसे घास न कह कर साग कह देता है। उस ने बन्दर को फल खाते देखा] वह भी उसे खाने लगा। आदमी मांस भी खा ले गा। उस की यह पुरानी आदत है। आदि पुरुष शिकार करता था और खा लेता था। एक बार जब वह खाने बैठा तो आग लग गई। भागा। पर आग तो थोड़ी देर बाद बुझ गई। लौट कर आया और मांस जो छोड़ कर गया था, खाने लगा। पर यह क्या ... स्वाद ही बदल गया था। पर उसे अच्छा लगा। अब उसे यह चस्का पड़ गया कि आग में पका कर ही मांस खाये गा।

मांस फल] मांस फल खाते खाते वह परेशान हो गया। तब इधर उधर देखने लगा। देखा बकरियॉं पेड़ों से कुतर कुतर कर कुछ खा रही हैं। उस ने कहा - यह भी देख लेते हैं। वह उसे खाने लगा। फिर उसे भी आग में पका कर खाने लगा। उस के बाद कहते हैं कि खुद उगा कर खाने लगा। पता नहीं] यह बात उसे कब सूझी पर यह बात सही है कि इसी से तथाकथित सभ्यता का आरम्भ हुआ। उस के खाने में विविधता आती गई। शिकार की मेहनत छोड़ उस ने घर पर ही शिकार को पाल लिया।


इस सभ्यता ने धीरे धीरे संस्कृति का रूप ले लिया। अब वह देख भाल कर अपना खाना तय करने लगा। इस में भूगोल आड़े आया। कहीं फसल उगती नहीं थी इस लिये मांस ही प्राथमिक भोजन बना। कहीं फसल इतनी होती थी कि मांस खाने की इच्छा ही नहीं होती थी। अलग अलग स्थानों पर संस्कति का अलग अलग रूप हो गया। पर खाने में उस की रुचि बढ़ती ही गई।


फेसबुक पर अभी एक समाचार आया। वैसे उसे समाचार कहना गल्त है। किसी के दिमाग की पैदावार भी हो सकतेी है। पर बताया गया कि एक मौलाना ने कहा है कि खाना बनाते वक्त उस में थूकना भी आस्था है। परन्तु लगता है कि जिस ने देखा] उस ने गल्त समझ लिया। वास्तव में खाना जब बनता है तो उस की खुशबू फैल जाती है। उस से मुंह में पानी भर आता है। लार टपकने लगती है। अब उस वक्त मुंह खाने के बर्तन के ऊपर हो गा तो उस में गिरे गी ही। और खाना बनाते समय लार न टपके तो मतलब खाना ठीक से बन ही नही रहा है। ठीक बन रहा है तो अपने पर नियन्त्रण रखना कठिन है। रेगिस्तान में जहॉं ऐसा मौका कम आता था] इस लिये लज़ीज़ खाने को संस्कृति का अंग मान लिया गया। यदि लार नहीं टपकी तो खाना खाना नहीं है] ऐसी मान्यता बन गई। यही तो संस्कृति का कमाल है। ऐसे ही तो वह फलती फूलती है।


वैसे देखा जाये तो पूरी पाश्चात्य संस्कृति खाने पर ही आधारित है। यदि आदम और हव्वा वह सेब नहीं खाते तो उन्हें स्वर्ग से निकाला नहीं जाता। सेब खाने से ही यह सारा झगड़ा आरम्भ हुआ। पता नहीं स्वर्ग में औलाद होती है या नहीं पर होती तो वह भी स्वर्ग में ही रहती। न पाप होता न पुण्य होता। आनन्द ही आनन्द होता। पर सेब खा लिया। निकाल दिये गये और अब तक भुगत रहे हैं। इतने पैगम्बर आये] सन्देश दिये] सब समाप्त होने का आश्वासन दिया। फिर से स्वर्ग मिले गा और सभी आनन्द से रहें गे। स्वर्ग उतनी ही दूर है जितना उस समय था। अभी तक तो समाप्ति के आसार नज़र नहीं आ रहे।


यहूदी धर्म में खाने का महत्व देखिये। परमात्मा ने इसराईल को तीन वार्षिक दावतों का निर्देश दिया था जिस में पासओवर की दावत भी शामिल थी। यह दावत उस समय की याददाश्त थी जब ईश्वर ने यहूदियों को मिस्र में बचाया था। यहूदी तथा ईसाई दोनों धर्मों में विश्व का अन्त एक दावत से ही हो गा जिस में शेर और भेड़ियों की खाने की आदत भी परिवर्तित हो जाये गी। हर एक अपनी ही रोटी खाये गा। मांस के बारे में नहीं कहा गया।


भारत में सब्ज़ी का रिवाज अधिक रहा। उपजाउ भूमि है] फसल सब्ज़ी फल बहुतायत में होते हैं। इस लिये यहॉं पर खाने को ढकना पड़ता है नहीं तो स्वाद तो भाप के साथ ही भाग जाये। इस लिये लार टपके भी तो उस का खाने में गिरना मुश्किल है। वैसे सनातन धर्म में सदैव अपने पर नियन्त्रण रखने पर बल दिया गया है। इस लिये यहॉं की संस्कृति अलग है। खाना पकने में जो समय लगता है उस में विचार उस खाने के कारण बहुत ऊॅंची उड़ान भरने लगते हैं। भोजन बनाना भी पूजा मान ली जाती है।


खाने का महत्व इतना अधिक है कि इसे तो जीवन ही मान लिया गया। ऐतरेयोपनिषद् के तृतीय खण्ड के प्रथम दस श्लोक पूरे अन्न के बारे में ही हैं। इस का पहला श्लोक है

स ईक्षतमे तु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति।

अर्थात इन सब की रचना हो जाने पर ईश्वर ने फिर विचार किया कि इन के निर्वाह के लिये अन्न भी होना चाहिये। मुझे अन्न की रचना करना चाहिये।


तैत्तिरीयोपनिषद् की बह्मानन्दवल्ली के द्वितीय अनुवाक में कहा गया है -

अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते। याः काश्च पृथ्वी ॅं्श्रिताः। अथो अन्नेनैेव जीवन्ति। अथैनदपि यन्त्यन्ततः। अन्न ॅं हि भूतानां ज्येष्ठम्। तस्मात्सर्वौषधमुच्यते। सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति येऽन्नं ब्र२ोपासते। अन्नाöूतानि जायन्ते जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेऽत्ति च भूतानि। तस्मादन्नं तदुच्यत् इति।।

अर्थात पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। अन्न से ही जीते हैं। फिर अन्त में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सब भूतों में श्रेष्ठ है। इस लिये सर्वौषधरूप कहलाता है।


प्रश्नोपनिषद् के 14वें श्लोक में कहा गया है

अन्नं वै प्रजापतिस्ततो ह वै तद्रेतस्तस्मादिमाः प्रजाः प्रजायन्ते इति।

अर्थात अन्न ही प्रजापिता है क्योंकि उसी से यह वीर्य उत्पन्न होता है जिस से सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं।


इसी प्र्रकार तैत्तिरीपनिषद की भृृगुवलि के द्वितीय अनुवाक का प्रथम श्लोक है -

अन्नं ब्रह्मति व्यजानात्। अन्नाद्धयेव रवल्विमानि भूतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मोति।

अर्थात अन्न ही ब्रह्म है। इस से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस से ही जीते हैं। प्रयाण करते हये इस में ही प्रविष्ट होते हैं। अतः अन्न ही ब्रह्म है।


उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि अन्न ही जीवन है। अन्न ही संस्कृति है। अन्न ही औषध है। अन्न के महत्व को स्वीकार कर के ही जीवन पूर्ण हो सकता है, इस बात को सभी धर्म और दर्शन स्वीकार करते हैं।


और अब आप के खाने का समय है सो नमस्कार।


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