कारण तथा कार्य
प्रत्येक कार्य के लिये कारण होता है और हर कारण का परिणाम कार्य होता है। इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता। पर कारण तथा कार्य की परिभाषा क्या है। कारण किसी कार्य का निरुपाधिक तथा अपरिवर्ती पूर्वपद है तथा कार्य कारण का निरुपाधिक तथा अपरिवर्ती अनुवर्ती है। अर्थात वही कारण वही कार्य उत्पन्न करे गा और वही कार्य उसी कारण का परिणाम हो गा। पूर्ववृति इस के लिये अनिवार्य शर्त है। दूसरी शर्त नित्यपूर्ववृति है। तीसरी बात अनिवार्यता है। कारण हो तभी कार्य होगा। पर दूरस्थ कारणों को इस में सम्मिलित नहीं किया गया।
न्याय में पाँच प्रकार के अन्यथासिद्ध कारण बताये गये हैं जो निकट पूर्ववर्ती न होने से कारण नहीं कहे जा सकते। प्रथम कारण के गुण कारण का भाग नहीं हैं। जब कुम्हार चाक से घड़ा बनाता है तो चाक का रंग वास्तविक कारण नहीं है। इसी प्रकार कुम्हार के पिता को कारण नहीं बताया जा सकता। आवाज़, जो चाक चलने से पैदा होती है, को भी कारण नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह तो स्वयं ही कार्य है। नित्य वस्तु जैसे आकाश कारण नहीं हो सकते। कुम्हार का गधा भले ही मिट्टी लाने के लिये आवश्यक हो पर वह घड़े का कारण नहीं है। केवल उपसिथति ही कारण नहीं हो सकती।
न्याय में माना जाता है कि कारण तथा कार्य एक ही समय में नहीं हो सकते। एक पूर्ववर्ती है दूसरा पश्चातवर्ती। पर पूर्ववर्ती कारण कई बातों का समूह हो सकता है जिसे कारणसामग्री कहा जाता है। यह सभी उस शर्त को पूरा करते हैं जो कारण तथा कार्य के सम्बन्ध को परिभाषित करती हैं। यदि किसी स्थिति की अनुपस्थिति अनिवार्य है तो उसे प्रतिबन्धकाभाव कहा जाता है।
कारण तीन प्रकार के हो सकते हैं। समवायी, असमवायी तथा निमित्त। समवायी कारण द्रव्यात्मक है। कपड़ा बनाने के लिये धागे की अनिवार्यता है। वह समवायी कारण है। कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता पर कारण अपने में स्वतन्त्र आस्तित्व रख सकता है। कपड़े का तंतुसंयोग असमवायी कारण है। वह समवायी कारण का गुण है और वही गुण कार्य में भी आता है। धागे का रंग कपड़े के रंग को परिभाषित करता है। असमवायी कारण सदैव गुण या क्रिया होती है। तीसरा कारण निमित्त है। बुनकर कपड़े का निमित्त कारण है। निमित्त कारण में सहयोगी कारण भी सम्मिलित रहते हैं जैसे बुनकर के साथ करघा या कुम्हार के साथ चाक।
कुछ कारण साधारण कारण होते हैं जैसे आकाश, काल, ईशवरीय ज्ञान, ईशवरीय इच्छा, गुण, अवगुण, पूर्ववर्ती आस्तित्वहीनता, प्रतिबन्धात्मक बातों का अभाव साधारण कारण हैं। असामान्य कारण वह इच्छा शक्ति है जिस से कपड़ा बुनने की प्ररेणा आती है। वह निमित्त कारण में ही समिमलित है।
न्याय तथा अन्य दर्शनों में अन्तर इस बात पर आधारित है कि क्या कार्य कारण में पूर्व से विद्धमान था और वह केवल प्रकट हुआ है अथवा वह आस्तित्व में कारण के बाद ही आता है। न्याय दर्शन की मान्यता है कि कार्य कारण में स्थित नहीं है। वह पूर्व में आस्तित्वहीन था। न्याय का कहना है कि कार्य एक आरम्भ है और पूर्व में वह असत् था। कारण के फलस्वरूप वह सत् होता है। सांख्य तथा वेदान्त दर्शन में माना जाता है कि कार्य पूर्व में ही कारण में स्थित होता है और वह केवल प्रकट होता है। उन का कहना है कि कोई आस्तित्वहीन वस्तु आस्तित्व में नहीं आ सकती। उन का कहना है कि हर वस्तु हर किसी वस्तु से उत्पन्न नहीं हो सकती है। इस का अर्थ है कि वह पूर्व में ही कारण में स्थित थी। जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं और रूकावटें समाप्त हो जाती हैं तो कारण से कार्य प्रकट होता है। तेल तिलहन में स्थित होता है। दही दूध में स्थित होती है। यदि केवल सक्षमता की बात न होती तो दही जल से भी उत्पन्न की जा सकती थी। तेल रेत के कणों से भी प्राप्त किया जा सकता था। अत: कारण में ही कार्य विधमान है। दूसरी ओर जहाँ कारण सामग्री की बात आती है तौ सांख्य दर्शन इस बात का समाधान नहीं कर पाता कि कार्य किस कारण में विधमान था। अत: यह धारणा ही सही प्रतीत होती है कि कार्य की उत्पत्ति कारण से ही होती है। वह पूर्व में विद्यमान नहीं कही जा सकती।
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