राज्य और नेशन
(कुछ लोग अंग्रेज़ी शब्द नेशन का हिन्दी में अनुवाद करते है राष्ट्र। इसी कारण भ्रम में रहते हैं)
एक टिप्पणी देखने को मिली। कहा गया कि भारत अंग्रेज़ों के आने से पहले कभी भी एक राष्ट्र नहीं रहा। अनेक राज्य देश में थे जो राष्ट्र की अवधारणा की पुष्टि नहीं करते। रामायण तथा महाभारत काल का हवाला दिया गया है। यह समझ में नहीं आता कि वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। उन का वास्तवविक मतलब नेशन से है। राज्य की परम्परा बहुत पूरानी है, नेशन की बहुत नई। यह पश्चिमी सभ्यता की देन है। युरोप में अनेक राज्य थे पर वे सभी पोप को अपना सर्वोच्च शासक मानते थे। फिर उन के विरुद्ध विरोध आरम्भ हुआ और अलग अलग नेशन की कल्पना की जाने लगी। और वही सिद्धॉंत उन्हों ने भारत में भी लागू किया। और हम लोग उस के इतने आदी हो चुके हैं कि उस के अतिरिक्त कुछ सोच नहीं पाते।
परन्तु एक तत्व और भी होता है। वह अधिक महत्वपूर्ण है। संस्कृति एक व्यापक अवधारणा है। उस में राज्य की स्थिति क्षीण हो जाती है। जब हम रामायण की अथवा महाभारत की बात करते हैं तो उस संस्कृति के आधार पर अखण्ड भारत को देखते हैं। रावण सीता के स्वयंबर में आये या नहीं, इस के बारे में अलग अलग राय है। आये और प्रतियोगिता से पहले चले गये, ऐसा मत भी व्यक्त किया जाता है। पर पूरे देश के राज्य आये थे, यह तो बताया गया है। महाभारत में अनेक राजाओं ने भाग किया और उन में आपस में सम्बन्ध भी विवरण में आते हैं। इस को देखा जाये तो एक राष्ट्र की बात सहज में समझ आ जाती है। यह नई अवधारणा नहीं है पर पश्चिम की परिभाषाा से भिन्न है अत: इस को अपनाने में कुछ लोगों को कठिनाइ्र होती है।
पर एक नई प्रकार की कठिनाई भी उत्पन्न हो गई है। चूॅंकि हमारे राजनैतिक विरोधी एक राष्ट्र की बात करते हैं अत: हमें उस को अस्वीकार करना ही हो गा। इस लिये कभी 1935 के अधिनियम की बात की जाती है कि बरमा उस समय भारत का अंग नहीं था, कभी दक्षिण के ब्राह्मण विरोध तो कभी हिन्दी विरोध की बात की जाती है, यह दिखाने के लिये कि हम एक राष्ट्र नहीं हैं। वैसे हिन्दी विरोध 1950 तक नहीं था, राजा जी स्वयं दक्षिण हिन्दी प्रचार सभा के अध्यक्ष थे। नायकर का अन्दोलन ब्राह्मण विरोध से आरम्भ हुआ था। यह संस्कृति के विरुद्ध नहीं था, एक वर्ग विशेष के वर्चस्व के विरोध में था।
हिन्दी विरोध का रंग तो 1955 के बाद में दिया गया जो केवल राजनीति से प्रेरित था। स्मरण हो गा कि पंजाब में अकाली दल ने गुरूद्वारों की मुक्ति के लिये उग्र अन्दोलन किया था पर यह संस्कृति के विरोध में नहीं था वरन् महंतों के, मठाधीशों के विरोध में था।
दक्षिण में कुछ हिन्दु समुदाय शवदहन नहीं करते हैं, यह उन की पुरानी परमपरा है। हिन्दु मत में पुरानी परम्पराओं को तिलॉंजलि नहीं दी जाती है, उन्हें अपना लिया जाता है पर इस से मौलिक विश्वासों पर प्रभाव नहीं पड़ता है। कुछ व्यक्ति ज़बरदस्ती इसे हिन्दू धर्म् का निषेध मानते हैं क्योंकि यह उन के वर्तमान रवैये के अनुरूप पड़ता है।
इसी प्रकार हिन्दु का शाकााहारी होने का भ्रम भी पैदा किया जाता है यद्यपि ऐसा कोई निर्देश हिन्दु धर्म में नहीं है। समय समय पर राजनैतिक अन्दोलनों को राष्ट्रीय भावना के विरुद्ध होने की कल्पना की जाती है पर यह केवल अल्पकालिक ही सिद्ध हुई हैं जैसे शिवसैना का उत्तरभारतीयों के विरुद्ध होना। भारत को बॉंटने का प्रयास बराबर इस के विरोधी दल करते रहे हैं। खेद इस बात का है कि सत्ताधीन वर्तमान राजनैतिक दन के विरोध में कुछ भ्रमित लोग उस में शामिल हो जाते हैं।
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