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kewal sethi

किराया

किराया

सन पचपन की बात है। भाई साहब के यहॉं जयपुर जाना था। सोचा आगरे का ताजमहल देखते चलें। सो आगरा पहॅंच गये। आगरा फोर्ट स्टैशन के कलोक रूम में संदूक रखा और ताजमहल देखने चल दिये। चार आने तो किराया था। आधे रास्ते खयाल आया कि हम तो कैमरा भी लाये थे कि ताजमहल की फोटो लें गे। रिक्शा छोड़ी और पैदल ही वापस स्टेशन पर लौट आये। क्लोकरूम अटैण्डैण्ट को कहा कि कैमरा निकालना है। वह ज़माना अच्छा था, इतनी अैापचारिकता नहीं थी। संदूक खोलने की इजाज़त मिल गई। कैमरा निकाल लिया।

फिर ताजमहल के लिये रिक्शा वाले को पुकारा। उस ने कैमरा देख लिया।

ताजमहल - हम ने कहा।

दो रुपये - रिक्शा वाले ने कहा।

चार आने - हम ने कहा।

आईेये बैठिये - रिक्शा वाले ने कहा।

वह मेरा जिंदगी की पहली फोटो थी। कैमरा भाई का था।

बदलता स्वरूप

सन पचपन की बात है। कालेज में एक पत्रिका निकलती थी। उस का एक लेख याद है। शीर्षक तो याद नहीं है पर कहानी इस प्रकार थी -


बाबू महीने के पहले सप्ताह में कैपेटैलिस्ट होता है।

शाम को निकलता है। टॉंगे पर बैठता है और कहता है - कनाटप्लेस।


दूसरे सप्ताह वह सोशिलिस्ट हो जाता है।

शाम को निकलता है। टॉंगे वाले से पूछता है - कनाटप्लेस चलो गें

जी हज़ूर - टॉंगे वाला कहता है।

- किराया

- आठ आने, हज़ूर।

बाबू टॉंगे पर बैठ कर कनाट प्लेस जाता है।


तीसरे सप्ताह वह क्म्यूनिस्ट हो जाता है।

शाम को निकलता है। टॉंगा देखता है। टॉंगे वाले को कहता है

- क्यों भाई साहब, कनाट प्लेस चलो गे।

- जी बिल्कुल। और हम हैं किस लिये - टॉंगे वाला कहता हैं

- कितना लो गे।

- बस, आठ आने ही

- आठ आने। सब तो चार आने लेते हैं। किसी को बिठा लेना।

- चलिये, चार आने ही सही।

और बाबू कनाट प्लेस हो आता है।


चौथे सप्ताह वह अनार्कास्टि हो जाता है।

शाम को निकलता है।

टॉंगे वाला कहता है -

- साहब जी, कनाटप्लेस चलें गे।

- क्या रखा है कनाट प्लेस में। घूम ही तो सकते हैं। मेरा बस चले तो उसे बन्द करा दूॅं। यहीं घूम लेता हूॅं।

(भाव वही है, शब्द मेरे हैं)

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