- kewal sethi
कितनी देर
कितनी देर
हवा में आज़ाादी घुली थी। हिन्दुस्तान आज़ाद होने वाला था। यह मौका खुशी का था पर मन में खुशी न थी। हिन्दुसतान जो आज़ाद हो रहा था, वह हिन्दुस्तान नहीं था जिसे हम अर्से से जानते थे। अभी आज़ादी का दिन दूर था लेकिन जो खबर आ रही थी, वह काफी तकलीफदेह थी। जिंदगी भर जिन के साथ रहे थे और दोस्ती निभाई थी, वह अब नज़र नहीं आ रहे थे। कब शहर दंगे की चपेट में आ जाये, हर एक इसी ख्याल में था। लाहौर से खबर आ रही थी जो खतरनाक थी। लायलपुर, मुलतान वगैरा का भी वही हाल था। पर उम्मीद के सहारे ही तो रहा जाता है। यह शहर हमेशा से अमन पसंद रहा है। चोरी चकारी भी सुनने में नहीं आती। यहॉं कुछ नहीं हो गा।
पर यह भ्रम कितने देर तक बना रहता। एक ने कहा कि फलाने मौहल्ले में दुकाने जला दी गईं। दूसरे ने कहा, फलाने में मकान। हर तरफ एक ही बात थी। यह जगह छोड़ना पड़े गी। कहॉं जायें गे, इस का ठिाकाना नहीं। आपस में सलाह हु्ई ओर जाने का तय हो गया। पिछले दिन रात को हल्ला मचा पर सब ठीक रहा। सुबह सब से पहले यह काम किया कि औरतों बच्चों को तो गुरूद्वारा पहुॅंचा दिया जाये। वहॉं थोड़ा भरोसा है। फिर वहॉं से स्टेशन जायें गे। पर कपड़ा लत्ता। कुछ तो पहनने को होना चाहिये। क्या पता कितने दिन गुरूद्वारे में रहना पड़े। रेल गाड़ी का भी तो पता नहीं। कभी आ गई, कभी नहीं आई। और रास्ता कौन सा सुरक्षित है।
कुछ सामान बटोरने के फिराक में वह सात आठ आदमी एक घर में इसी पर बात कर रहे थे कि गली से शोर आया। नारा तकबीर। सब के चहेरे ज़र्द पड़ गये। एक आदमी भाग कर अन्दर आया। बताया, हजूम इधर ही आ रहा है। शेरू उस के आगे है। शेरू तो इस घर का नौकर था। वफादार नौकर। कुछ राहत रहे गी। वह इस घर में नहीं आये गा। शोर पास आता गया। घर में कोई हथियार भी नहीं कि मुकाबला करें। और फिर दरवाज़े पर चोट पड़ने लगी। दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश की जा रही थी। दरवाज़ा भी पुराना था, कब तक बचे गा। क्या करें। कुछ समझ मे नहीं आ रहा था। मौत जब पास आती है तो दिमाग काम कहॉं करता है।
दरवाज़ा अब टूटा, अब टूटा। कुछ समझ नहीं आई तो एक कोठरी नमा कमरा था, छोटा सा। सब उस ओर लपके। कुछ देर तो और ज़िन्दा रह सकें गे। जब तक दरवाज़ा टूटा तब तक अन्दर आ गये थे। पर नहीं एक की कमीज़ दरवाज़े में ही फंसी रह गई। दरवाज़ा टूट गया। हजूम अन्दर दाखल हुआ। कमीज़ दिखी। पकड़ लिया। बाहर खैंच लिया।
तो वहॉं छुप रहे थे। और कौन कौान है।
कोई नहीं है। मैं ही अकेला हूॅं। सब तो गुरूद्वारे चले गये। मैं कुछ कपड़े लेने रुक गया।
झूट बोलता है। दरवाज़ा तोड़ो अभी पता चल जाये गा।
और इस का क्या करें।
बाहर ले चलो, यहॉं मारें गे तो कालीन खराब हो जाये गा। यह मेरा कालीन है, किसी ने कहा।
यह संदूक देखो, इस में क्या है।
कुछ नहीं, सिर्फ कपड़े हैं। ले जाना चाहते हों गे अपने प्यारे हिन्दुस्तान मेें। हमारे तो पहनने लायक भी नहीं।
इधर उधर देखो, कुछ तो कीमती माल हो गा।
तभी एक और आवाज़ आई। साथ में लाला हरी राम का गोदाम है, बहुत माल है, वहॉं चलें। यहॉं कुछ नहीं मिले गा। भुक्खड़ घर था। क्या यह शेरू की आवाज़ थी। धबराहट में क्या पता चलता है।
आवाज़ें थम गई। शायद लोग अधिक पाने के लालच में चले गये।
राहत।
पर कितनी देर तक? खून सर पर सवार है। अभी लौटें गे। फिर?
मौत तो सर पर है। क्या पता, कितनी देर? कितनी दूर?
कितनी दूर। आज्रादी का जश्न?