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kewal sethi

कवि की होली

कवि की होली


सोच रहा था बैठे बैठे होली कैसे मनाऊँ

अन्त यही सोचा कि कविता कोई बनाऊँ

कविता ही तो आखिर कवि की होली है

रंग है यह पिचकारी है हंसी है ठिठोली है


नहीं अपने पास और कुछ कविता ही तुम सुनाओ

डरते नहीं हैं लोग रंग से कविता से उन्हें डराओ

छोड़ दो कविता की बौछाड़ रंग डालने जब कोई टोली आये

उधर आये रंग की पिचकारी इधर से कविता की गोली जाये


देखो तीन मिनट में ही होता है मैदान क्लीयर

इतने में भीग गये तो - अरे मत घबराओ डीयर

रंग तो साबुन से धुल जायें गे कपड़े यह फट जायें गे

पर कविता सुन कर गये जो जीवन भर पछतायें गे

फिर तुम से होली खेलने का नाम न लें गे घबरायें गे

न ही तुम को कविता पढ़ने होली की सभा में बुलायें गे

(हरदा - 7 मार्च 1966)

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