कबीर और भक्ति मार्ग
कबीर की महानता से किसी को इंकार नहीं हो सकता। वे अपने ज़माने के बहुत बड़े संत थे। और आज भी उन की मान्यता यथावत है। उन्हों ने सरल भाषा में भकित का संदेश दिया। वह मानव धर्म के पक्ष में थे जिस में जाति भेद नहीं होता। उन की मानता थी कि सब एक राम की संतान है, नाम का भेद भले ही हो। राम सारे संसार में व्याप्त हैं और वह संसार से परे भी हैं। वह गुणमय होते हुए भी निगर्ुण हैं। उन का परिचय गुरु से मिलता है। यही गुरु शिष्य को माया मोह से मुक्त कराता है। इसलिये गुरु का स्थान बहुत ऊॅचा है। उस समय के अधिकांश भक्त कवियों की तरह वह भी करम काण्ड के विरुद्ध थे। उन का किसी से कोर्इ विरोध नहीं था। उन का वचनों का सार इस कथन में है ।
''न मंदिर में न मसजिद में न काबा न कैलाश रे।
न मैं पूजा पाठ में रहता नहीं व्रत उपवास में ।।
खोजी होये तुरन्त मिल जाऊं, पल भर की तलाश में।
कहे कबीर सुनो भर्इ साधो मैं तो हूं विश्वास में
उन का मत था कि जिस किसी में भी विश्वास हो, उसी में परमात्मा का निवास है। सच्चे मन से भकित ही उस से मिलने का साधन है। झूटे आडम्बर में कुछ नहीं रखा है। यदि मन में वासना घूम रही है तो हाथ में माला फेरने का कोर्इ लाभ नहीं होगा। उन का कहना था ''कर का मनका छाड़ दे मन का मनका फेर। र्इश्वर मन में ही वास करते हैं। हमें अन्तदृषि्ट विकसित करना चाहिये।
''घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलें गे।
आत्म ज्ञान ही सब कुछ है।
''आतम ज्ञान बिन सब सूना, क्या मथुरा क्या काशी।
घर में वस्तु धरी नहीं सूझै, बाहर खोजत जासी।।
उन का उपदेश था कि र्इश्वर से गुरु ही मिला सकते हैं। माता तो केवल जन्म देती है। गुरु ही हमें ज्ञान देते हैं जिस से हम र्इश्वर से मिल सकते हैं। अत: हमें गुरु की सेवा करना चाहिये। गुरु कृपा से हमारे बन्धन छूट जायें गे। उन के लिये गुरु का इतना महत्व था कि उन्हों ने कहा -
''गुरु गोविन्द दोउं खड़े का के लागूं पाय
बलिहारी गुरु अपने जिन गोविन्द दिये बताये
उन का सदैव मत रहा कि शुभ कर्म ही मनुष्य को जन्म मरण के बंधन से छुड़ा सकते हैं। ''ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया उन का ध्येय था।
गुरू की महत्ता भकित काल के कवियों की विशेषता है। गुरू नानक इन में अग्रणी थे। उन का कहना है -
''गुरू किरपा जेहि नर पर कीन्हीं, तिन यह जुगति पिछानी।
नानक लीेन भयो गोविन्द सों, ज्यों पानी संग पानी।।
''गुरमुख नादं, गुरमुख वेदं, गुरमुख रहिया समायी।
गुरु र्इशर गुरु गोरख बरमा, गुरु पारबती मार्इ।।
''गुरु के चरण हृदय वसाए।
करि कृपा प्रभु आपि मिलाए।।
''गुरुमुखी कृपा करे भगति कीजै
बिनु गुरु भगति न होर्इ।
आपै आपु मिलाए बूझै
ता निरमलु होवै सोर्इ।
तुलसी जी ने भी कहा है कि
''गुर के वचन परतीति न जेही। सपनेहु सुगम न सुखसिधि तेही।।
''गुर बिन भवनिधि तरै न कोर्इ। जो बिरंचि संकर सम होर्इ।।
इस प्रकार के कर्इ उदाहरण तत्कालीन भक्त कवियों के बारे में दिये जा सकते हैं जिन में यह दृढ़ विश्वास व्यक्त किया गया हैं कि गुरु के शरण में जाने से सदगति हो सकती है।
कुछ लोगों का मत है कि कबीर ने वेदों के विरुद्ध आवाज़ उठार्इ। वह वेदों के प्रखर, मुखर विरोधी थे। ( भास्कर दिनांक 19 मर्इ 2000 - कमलेश्वर ) पर यह धारणा सही नहीं है। यह बात केवल अज्ञान पर ही आधारित कही जा सकती है। विरोध की बात तो दूर, वेदों में वह सभी कुछ है जिस का प्रचार कबीर कर रहे थे। इस को थोड़ा ध्यान से देखें।
सब से प्रथम अंश तो उन की गुरु महिमा का है। वेदों में भी गुरु की महिमा का गुण गाण किया गया है। श्वेताÜवतर उपनिषद में कहा गया है।
यस्य देवे परा भकितर्यथा देवे यथा गुरौ।
तस्यैते कथिता áर्था: प्रकाशन्ते महात्मन:।
''वही मनुष्य परमतत्व पाने का अधिकारी है जिस के हृदय में भगवान परमदेव परमेश्वर के साथ साथ उसी मात्रा में अपने गुरूदेव के लिये भी एकनिष्ठ भकित है।
तैत्तिरीयोपनिषद में तो ''आचार्यदेवो भव का सूत्र दिया ही गया है। श्रीमदभागवत में श्री कृष्ण तथा उद्धव के वार्तालाप में श्री कृष्ण कहते हैंं।
आचार्य मां विजानियान्नावमन्येत कर्हिचित।
न मत्र्यवुद्धया•सूयेत सर्वदेवमयो गुरु:।।
''आचार्य को मेरा ही रूप समझो। कभी उस का तिरस्कार न करो। गुरु को कभी भी मनुष्य की दृषिट से न देखो, गुरु सर्व देवमय हैं, गुरु सर्व देवताओं के केनिद्रभूत रूप हैं।
श्री गीता में भी कहा गया है कि '' देव द्विज गुरु प्राज्ञ पूजनम। श्रुति में तो यहां तक कहा गया है कि
गुरु पादोदकं सम्यक संसारार्णव तारणम।
अज्ञान मूल हरणं जन्म कर्म निवारणम।।
''गुरुचरणामृत सम्यक प्रकार से संसार समुद्र से त्राण करता है, अज्ञान का नाश करता है एवं जन्म कर्म से मुक्त करता है।
तथा
गुरुरेव परंब्रह्रा गुरुरेव परागति:।
गुरुरेव पराविधा गुरुरेव परायधम।।
इन सब से प्रमाणित है कि गुरु को उच्च स्थान देने में कबीर वैदिक काल से चली आ रही परम्परा का ही निर्वाह कर रहे थे। उन्हों ने भी उसी गुरु महिमा का वर्णन किया है जो अनादि काल से चली आ रही थी।
कबीर की शिक्षा का दूसरा पहलू कर्मकाण्ड का विरोध है। यह बात सर्वमान्य है कि वेद प्रकृति पूजा के सिद्धांत पर आधारित है। पर वह इस से भी आगे निकल गए तथा वे मानते थे कि प्रकृति के सभी प्रत्यक्ष वस्तुओं यथा सूर्य, शशि, वायु इत्यादि के पीछे एक अदृश्य शकित काम कर रही है। प्रकृति अन्तत: र्इश्वर का ही रूप है। सांख्य योग के अनुसार यह संसार पुरुष तथा प्रकृति के संयोग से बना है। श्री गीता में पुरुष को ही जीव कहा गया है। जीव ही र्इश्वर की परा प्रकृति अर्थात श्रेष्ट स्वरूप है। जिसे सांख्य योग ने प्रकृति कहा है उसे गीता में र्इश्वर का अपर अर्थात कनिष्ट रूप कहा गया है। पर हैं दोनों ही र्इश्वर का रूप। आदिगुरु शंकराचार्य ने अद्वैतवाद में केवल एक ब्रह्रा को ही मान्यता दी गर्इ है। र्इश्वर की सार्वभौम सत्ता को सदैव स्वीकार किया गया है। केवल पूर्व मीमांसा में करम काण्ड के बारे में कहा गया है। इस में विभिन्न प्रकार के यज्ञों की विधि बतार्इ गर्इ है। यज्ञ में प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों को अपना आहुति देने के नियम एवं विधि बतार्इ गर्इ है। इन्हीं विधियों के विकृत रूप को आगे जा कर कुछ व्यकितयों द्वारा धर्म के रूप में प्रचारित की गर्इ। इस प्रकार की विकृति कोर्इ भारत तक ही सीमित नहीं है। र्इसार्इ धर्म में तो पोप द्वारा जारी किये गए क्षमा पत्र को बेचने की पद्धति इस प्रकार धर्म को पथभ्रष्ट करने की पराकाष्ठा हैं। इस के विरुद्ध विद्रोह हुआ जिसे निर्ममता पूर्वक दबाने के प्रयास भी किये गए। स्पैन, फ्रांस, दक्षिण अमरीका महाद्वीप में हज़ारों लोग मारे गए। इन के लिये अब पोप माफी मांग रहे हैं। भारत में भी गोवा में ऐसा ही कृत्य हुआ।
पर भारत में हमारा धर्म कभी उस सिथति तक नहीं पहुंच पाया। यहां करम काण्ड तथा बलि को धर्म का पर्याय मानने के बारे में प्रचार किया गया पर हिन्दू धर्म की विशेषता है कि हम पुन: अपने मूल की ओर लौट जाने की शकित रखते हैं। अत: जहां इस प्रकार के विकार किसी समूह द्वारा पैदा किये जायें वहीं उस का प्रतिकार करने की भी अनुमति उसी ग्रन्थ में उपलब्ध है। इस में किसी हिंसा की आवश्यकता नहीं रहती है। इसी क्रम में महात्मा बुद्ध, महावीर इत्यादि अनेक महापुरुषों ने अपने मूल स्वरूप को वापिस लौट जाने के सफल अभियान चलाये। उसी क्रम में कबीर, नानक, चैतन्य महाप्रभु, एकनाथ, ज्ञानेश्वर इत्यादि अनेक भक्तगण हुए। स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की। यह अभियान अनन्त काल से चले आ रहे हैं पर इन का उíेश्य वेद विरोध नहीं है वरण वेदों की महिमा को पुन: स्थापित करना है। अत: यह कहना कि कबीर ने वेदों के विरुद्ध स्वर उठाया सही नहीं है। ऐसा केवल अज्ञान वश ही कहा जाता है। हां उन्हों ने धर्म में जो विकार आ गए थे उन को दूर करने का प्रयास किया। पर उन की मौलिक सोच वेद तथा अन्य धर्मग्रन्थों के अनुरूप ही रही।
कबीर जी ने न केवल हिन्दू धर्म में आर्इ विकृति का विरोध किया वरण अन्य धर्म में भी जो त्रुटियां थी उन की ओर भी ध्यान आकर्षित किया। उन का दोहा है
''ढार्इ र्इंट जोड़ कर मसजिद ली बनाए
ता उपर चढ़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा भये खुदाय
दूसरे संतों ने भी इस प्रकार की आवाज़ उठार्इ थी। बुल्ले शाह ने भी कहा
''मक्का गयां रब नाहीं मिलदा
न मिलदा ओह सजदे
बुल्लेशाह रब ताहीं मिलदा
अमल जिन्हां दे अच्छे
महंत चित्र दास जी ने कहा
''सजन नूं सब टोरन लगे, इक गंगा इक मक्के
उन्हां विचों किसे न लभा, मुड़ मुड़ ऐवें थक्के
जहां तक हमारे धर्म का सम्बन्ध है, हमारी मान्यता है कि सभी मत सत्य को ही प्रतिबिमिबत करते हैं। प्रवत्र्तक के सिद्धांतों में कोर्इ खोट नहीं है। केवल उन के अनुयायी अपने संकीर्ण विचारों को छोड़ दें। श्री गीता में कहा गया है
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधम्याहम।।
''जो जो भक्त जिस जिस स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है मैं उस भक्त की उस के ही प्रति श्रद्धा को सिथर करता हूं।
हमारे यहां स्वरूप को ले कर विरोध नहीं है। बस मन में श्रद्धा तथा विश्वास होना चाहिये। धन्ना भक्त को पत्थर में भी शालिग्राम के दर्शन हो गये थे। ज्ञानेश्वर की भकित की लाज रखने के लिये भैंस के मुख से भी वेद पाठ करवा दिया था। फिर कबीर और सनातन धर्म में विरोध की गुंजार्इश ही कहां थी। कबीर मानते थे कि राम पूरे जगत में व्याप्त हैं। वही तो इस के आधार हैं। उस के बिना कुछ सम्भव नहीं है। वह हर व्यकित के मन में रहता है। उसे मन की ही आंखों से देख जा सकता है।
''कस्तूरी कुंडलि बसे, मृग ढूंढे बन माहीं।
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखै नाहीं।।
इसी प्रकार कठोपनिषद में कहा गया है।
'एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रययाबुद्धया सूक्ष्मदर्शिभि:।।
''वह समस्त प्राणियों में रहते हुए भी छिपा रहने के कारण सब के सामने प्रकट नहीं होता है। केवल सूक्ष्म तत्वों को देखने वाला ही अति सूक्ष्म दृषिट से देख सकता है।
हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिये कठिनार्इ यह है कि उन्हें हर स्थान पर सनातन धर्म का विरोध देखना है। इस के लिये वह तथ्यों को इतना अनदेखा कर जाते हैं कि उन की बुद्धि पर तरस आता है। एक स्थान पर कहा गया हे कि ''परिवर्तनकामी कबीर की यही सब से बड़ी देन है कि उन्हों ने ऐसे युग का सूत्रपात किया जो अंग्रेज़ीप्रस्त मध्यवर्ग के नवजागरण से एकदम अलग और अनोखा था। कबीर का युग तो भारत में प्रथम अंगे्रज़ के आने से बहुत पहले आरम्भ हो चुका था। अंग्रेज़ी तो सदियों बाद इस देश में शिक्षा की भाषा के रूप में स्थापित हो पार्इ और अंग्रेज़ीप्रस्त मध्यवर्ग उस के भी बाद। इस दुराग्रह का ही प्रमाण है कि चार्वाक को भी बौद्ध तथा जैन मत के साथ ही देखने का प्रयास करते हैं। कहां चार्वाक का भौतिकवाद और कहां सत्य, अहिंसा, धर्म पर आधारित बुद्ध का मध्यम मार्ग और जैन मत का त्यागमय जीवन पर वह केवल तथाकथित वेद विरोध को ही अपना आधार मानते हैं। वह गुरु नानक - महान प्रचारक एवं पंथ के संस्थापक को राजनीतिज्ञ अम्बेडकर के समतुल्य रख कर चलते हैं। दोनों अपने स्थान पर बड़े हैं लेकिन दोनों का क्षेत्र अलग है। इस सोच के साथ वह इतिहास को उलटे सिर खड़ा कर देते हैं तथा चाहते हैं कि कोर्इ उस से प्रभावित हो। पर सत्य को कौन दबा सका है। उन्हें कबीर का यह वचन तो याद रखना चाहिये -
''सब काहु का लीजिये, सांचा शब्द निहार।
पक्षपात न कीजिये, कहै कबीर बिचार।।
पर क्या इस का उन पर कोर्इ प्रभाव होगा। इस में संदेह है। जो सो रहा हो उसे तो जगाया जा सकता है। पर जो जागते हुए भी आंख मूंद कर पड़ा रहे उस का क्या कीजिये। कबीर जी इन के लिये कह गए हैं -
''मूरख को समुझावत ज्ञान गांठ का जाइ।
कोयला होइ न ऊजरो नव मन साबुन लाइ।।
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