ऑंखों देखी कानों सुनी
(अस्सी की दशक में लिखी गई)
मैं यहॉं पर एक अधीक्षण यन्त्री और ओवरसियर के बीच हुई गुफ्तगू के बारे में बताने जा रहा हूॅं। यह वार्तालाप मेरे और तीन और व्यक्तियों के सामने हुआ था। इन व्यक्तियों के नाम मुझे मालूम नहीं है। पर देखा जाये तो उस ओवरसियर का नाम भी मालूम नहीं है। पर यह महत्वपूर्ण नहीं है कि किसी का भी नाम बताया जाये। ध्यान तो वार्तालाप पर ही होना चाहिये। केवल अभिलेख के लिये यह कहना आवश्यक हो गा कि अधीक्षण यन्त्री और ओवरसियर दोनों पंजाबी थे।
मैं ने जब कमरे में प्रवेश किया तो अधीक्ष्रण यन्त्री अपनी डाक देख रहे थे और साथ साथ बात भी कर रहे थे। पूरा समय यही माहौल रहा। मैं ने फोन पर उन से मिलने का समय ले लिया था, इस लिये मैं कमरे में बिना सूचना के दाखिल हो गया और उन के काम में विघ्न न डालने के इरादे से एक खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। अधीक्षण यन्त्री ने मुझे देखा, एक मुस्कराहट फैंकी और अपने काम में लौट गये। यानि कि वार्तालाप जारी रखा।
— तो बताओ भई, क्या किया जा सकता है।
— आप सब कुछ कर सकते हैं।
— कैसे
— आप को तो सिर्फ भोपाल से जो आर्डर आया है, उस का पालन करना है।
— लेकिन तुम तो रिलीव हो चुके हो।
— दो महीने की ही तो बात है। आप का क्या जाता है।
— सवाल दो महीने का नहीं है। और जब तुम्हारा ई ई ही खुश नहीं है तो फिर क्यों तुम वहॉं रहना चाहते हो।
— मेरे बोर्ड आफ रैवेन्यू में दो केस हैं। उन को देखना है।
— अच्छा तो तुम ने ज़मीन भी ले मारी। शाबाश, बाल गोपाल को भी मात कर रहे हो।
— मैं ने थोड़ी ही ली है। वह तो बाप दादों के ज़माने की है।
— या सुसराल वालों से पैसा मिला हो गा।
— वह तो ठीक है साहब , इस से क्या फर्क पड़ता है। दो महीने का झगड़ा है। स्टे ही तो करना है।
— रिलीव होने के बाद स्टे?
— पर आर्डर तो है न।
— आर्डर तो देर से लाये हो। कब हुआ था आर्डर और कब तक का स्टे है।
— 31 मई तक का
— और अब। जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर। चार महीने हो गये। अब तो खेल खत्म हो गया। अब क्या है।
— ऐसे तो होता ही रहता है। और फिर देखिये, आप ने ही तो रिलीव किया है। मैं ने कौन लिख कर दिया है।
— तुम्हारे लिखने से क्या हो गा। मेरे दफतर में तो जानकारी आ गई है। (दूसरों को सम्बोधित करते हुये) मैं ने तो आर्डर आते ही कह दिया था सब ई ई को कि अगर तुम ने रिलीव नहीं किया तो तन्ख्वाह तुम्हारे वेतन में से काटी जये गी।
— तभी तो गड़बड़ हुई है साहब। और तो किसी जगह ऐसा नहीं हुआ। इंदौर, भोपाल, कहीं भी एक भी ओवरसियर रिलीव नहीं हुआ।
— यही तो मज़ा है। जब आर्डर हो जायें तो फिर पूरे होना चाहियै।
— पर आर्डर तो कैंसल हो गया है।
— रिलीव होने के बाद।
— उस से क्या होता है। इतने सारे तो रिलीव हो गये है। एकाध नहीं हुआ तो क्या। कौन आप से सैंण्ट परसैण्ट सफाई करने का ठेका लिया हुआ है।
(इस बात पर सब हंसने लगे)
— वह तो ठीक है पर ज़रा पहले सोचना चाहिये। वह एक ओवरसियर थे उदय वीर सिंह या ऐसा ही कोई नाम था।
— उदय सिंह भदौरिया।
— हो गा कोई नाम। उन को ट्रांसफर किये तो सीधे मन्त्री से कैंसल करा लाये। मैं ने भी कहा कि करवा लाये तो अपनी बला से। मन्त्री जानें, तुम जानो। ई ई को नाराज़ कर के रहना अच्छा नहीं है। सीधे जा कर जाईन करना चाहिये।
— वह तो देखें गे साहब, अभी तो जाईन करने दीजिये।
— तो ठीक है, लिख कर डयूटी जाईन कर लो।
— वह कैसे कर लें साहब। कोई घर का राज है।
— तो फिर खेमानी साहब (सी ई) ही करें गे यह काम तो।
उस के बाद एस ई सब को सुनाने लगे किस्सा
वह एक ओवरसियर थे न। ट्रांसफर हुआ तो सी एल ले लिये। कैंसल कराने की कोशिश की पर जब मैं ने कहा कि रामाचन्द्रन से मिलो तो दमोह पहुंच गये। वहॉं पर वह सी पी श्रीवास्तव हैं। उन को मसका लगाया या कीर्तन किया हो गा। उन्हों ने जाईन करा लिया। पर अब यहॉं से एल पी सी मॉंगते हैं। अब एल पी सी कैसा। अरे ढंग से रिलीव होवो तो एल पी सी भी मिले। सी पी श्रीवास्तव ने लिखा तो मैं ने कह दिया कि खुद बड़े अफसरों को चाहिये कि डिसिपलिन रखें। यह क्या हुआ कि आप उस की मदद करना चाहते हो। अरे हम भी कीर्तन किया करते थे। अफसर खुश हो जाता है। पर कुछ तो ध्यान रखना चाहिये।
— पर कब तक रोके गे एल पी सी उस का। दो चार साल। उस को तन्ख्वाह भी नहीं मिले गी क्या?
— अरे! हमें इस से क्या? हमें तो श्रीवास्तव ने खत लिखा, हम ने जवाब दे दिया।
— इस तरीके से तो आप सब को परेषान ही कर रहे हो। इस से कोई यह गड़बड़ी दूर होने वाली थोड़ी है।
— हम ने तो पहले ही भोपाल वालों को कहा था कि हमें ग्वालियर मत पोस्ट करो पर माने ही नहीं। परेशान तो सब हों गे ही। मैं सब से ज़्यादा परेशान हूॅं।
अब ओवर सियर की बारी थी।
— तो बताईये मैं क्या करूॅं।
— भई, हम क्या बतायें। यह तो तुम जानो। अब स्टे करवाया है तो कुछ और भी लिखवाओ। मैं तो झमेले में पड़ता नहीं। कुछ करूॅं गा तो लोग कहें गे, पंजाबी ने पंजाबी की मदद कर दी। आगे ही तुम्हारी वजह से काफी बदनाम हूॅं।
— मेरी वजह से क्यों बदनाम हों गे?
— लोग कहते है वह फलाना ओवरसियर यह गड़बड़ कर रहा है। रोज़ दस पैसे की एकाध चिठ्ठी आ जाती है। तुम को जाईन करा लूॅं तो कल ही तीन चार खत पहुॅंच जायें गे सब के पास। अपने को नहीं चाहिये यह धंधा।
— यह तो आप की कमज़ोरी है। नहीं तो सब ही करते रहते हैं। किस किस का नाम गिनाऊॅं मैं
— अरे, नाम तो मैं भी गिना देता हूॅ। पर उस से हो गा क्या। अपने को नहीं करना हैं। मेरी सलाह मानो, चुपके चुपके जा कर जाईन करो।
— पर दो महीने के लिये तो यह स्टे दें ही।
— छुट्टी मंज़ूर कर देता हूॅं।
— सर्विस बुक तो है ही नहीं।
— सर्विस बुक की ऐसी की तैसी। वह तो बिना सर्विस बुक के चार महीने की छुट्टी मंज़ूर कर देता हूॅं।
— पर न मैं ने फार्म भरा, न आप के दफतर में कुछ है। बिना सर्विस बुक के आप करें गे कैसे।
— फार्म भर दो। बाकी यह तमाशा भी देख लो। मैं कैसे करता हूॅं।
— पर मैं छुट्टी क्यों लूॅं। मेरे तो आर्डर हो गये हैं स्टे के।
— तो फिर तुम्हारी मर्जी है। मैं ने तो तुम्हें बता दिया है।
इस के बाद पॉंच सात मिनट तक ओवरसियर चुपचाप खड़ा रहा।
{बीच बीच में एस ई ने एकाध फोन सुना। दूसरे सज्जन, जो शायद षिवपुरी या कहीं के ई ई थे, के साथ शासन से ताज़ा प्राप्त आबंटन का हवाला पढ़ कर सुनाया। एस ई राष्ट्रीय राजमार्ग के कुछ पदों के अबालिश होने की बात हुई। पर यह सब मैं ने बातवीत के फ्लो को कायम रखने के लिये शमिल नहीं किया है}
इस बीच मेरे से भी बात करनी थी और ओवरसिर से काफी बात हो गई थी। ओवरसियर बाहर जाने का कोई इरादा ज़ाहिर नहीं कर रहा था। इस कारण एस ई साहब ने पुराना आज़माया नुस्खा अपनाया।
— अच्छा तो ठीक है। सोचें गे रात को तुम्हारे केस के बारे में।
और इस तरह उसे जाने को कहा।
{इस सब में क्या मामला था, वह जितना आप को समझ आया, उतना ही मुझे भी आया था। मैं ने इस के बारे में एस ई से पूछा नहीं। अपने काम से काम था। }
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