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एक से अनेक

  • kewal sethi
  • Jul 1, 2020
  • 3 min read


एक से अनेक

दर्शन में वस्तुत: उस एक तन्त्र या सिद्धाँत की तलाश रहती है जिस से इस सारे संसार तथा सृष्टि की उत्पत्ति को समझाया जा सके। वैशेषिक दर्शन ने सात पदार्थों की कल्पना की है। इन को जाना तथा नामकरण किया जा सकता है। यह सात पदार्थ हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय तथा अभाव। द्रव्य वह वस्तु है जिस में गुण तथा कर्म वास करते हैं। गुण तथा कर्म अपने आप आस्तित्व में नहीं रह सकते। उन्हें आश्रय चाहिये द्रव्य का। द्रव्य नौ हें किन्तु वह केवल भौतिक नहीं हैं। उन में काल, दिक, आत्मा तथा मन शामिल हैं। अन्य पाँच द्रव्य हैं जिन्हें आम तौर पर पंचभूत कहा जाता है अर्थात पृथ्वी, जल, अगिन, वायु तथा आकाश। संसार की शेष वस्तुयें इन के संयोग से बनी हैं। सामान्य का अर्थ उन वस्तुओं का स्वभाव है जो एक ही वर्ग में आती हैं जैसे पुरुष में पौरुष, गऊ में गऊपन। इन से वर्ग की पहचान होती है। किन्तु हर वर्ग में अलग अलग सदस्यों की कुछ विशेषता होती हे जिस से उन में भेद किया जा सकता है। इसी को विशेषता कहते हैं। वैशेषिक दशन में विशेषता पर बल दिया गया है और यही इस दर्शन के नामकरण का कारण है। समवाय का अर्थ उस विशिष्ट पदार्थ से हे जो किसी द्रव्य से अलग नहीं किया जा सकता। जैसे कारण को कार्य से अलग नहीं किया जा सकता। अभाव को पहले तो पदार्थ नहीं माना गया था किन्तु बाद में जोड़ा गया। अभाव में आस्तित्व का भाव आ ही जाता है। किन्तु इस को अन्य किसी पदार्थ के अन्तर्गत भी नहीं रख जा सकता।

वैशेषिक की तरह पूर्व मीमांसा में भी सात पदार्थ माने गये हैं पर वह थोड़े अलग हैं। समवाय के स्थान पर परतन्त्र का नाम दिया गया है। पर विशेष तथा अभाव को मान्यता नहीं दी गई है। उस के स्थान पर शक्ति तथा सदृश्य को मान्यता दी गई है। विशेषता को पृथकत्व का गुण माना गया है।

सांख्य में केवल प्रकृति को ही एक मात्र कारण माना गया है। इस में तीन गुणों सत्व, राजस तथा तामस के मिश्रण है। इसी से महत् तथा उस के बाद अहंकार का उदय होता है जिन से पाँच तन्मात्रा और पाँच भूतों का उदय होता है। इन से ही शेष सब वस्तुओं का निर्माण होता है।

वेदान्त में सृष्टि का आरम्भ ब्रह्म से माना गया है। ब्रह्म ही अपने को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करता है। पदार्थों के निर्माण के लिये वह प्रकृति का रूप धारण करता है। प्रकृति वैशेषिक के समान ही व्यवहार करती है। यह त्रिगुणात्मक है। प्रकृति तथा ब्रह्म एक ही है। यह सत्य अविद्या या माया के कारण आत्मा से छुपा रहता है। प्रकृति से ही समस्त भौतिक संसार का निर्माण होता है।

जैन मत में सृष्टि या उदगम को अजीव का नाम दिया गया है। इस में न केवल पुदगल - द्रव्य - है वरन् आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल भी उत्पन्न होते हैं। पुदगल में अणु तथा संगठक का भेद है। अणु में चार भूत, पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु शामिल हैं। धर्म का अर्थ गतिशील पदार्थ से है। अधर्म का अर्थ स्थिर पदार्थ से है। काल निरन्तर पदार्थ है।

बौद्ध मत में यद्यपि बुद्ध ने संसार के उद्गम के बारे में अधिक विचार व्यक्त नहीं किये किन्तु उन के अनुयायियों ने दर्शन को काफी ऊँचाई तक पहुँचाया है। उन्हों ने विभिन्न प्रकार से उद्गम के बारे में विचार किया है। एक विचार तो यह है कि यह सृष्टि केवल अनुभवों का समूह है। इन्हें रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, समज्ञस्कन्ध तथा र्विज्ञानस्कन्ध का नाम दिया गया है। बौद्ध मत के सर्वास्तिवादी शाखा का मत है कि पदार्थ दो प्रकार के हैं - विशुद्ध तथा यौगिक। विशुद्ध पदार्थ में आकाश (जो नित्य, विभु है), अप्रतिसंख्यानिरोध (अन्त जो मन द्वारा नहीं जाना जाता है।) तथा प्रतिसंख्यानिरोध ( अन्त जो मन द्वारा अंतिम सत्य जानने से प्राप्त होता है) हैं। यौगिक में रूप, चित्त, चैत्य तथा चित्तविप्रावुक्त हैं। रूप में चार भूत - पृथ्वी, जल, अगिन तथा वायु - शामिल हैं। चित्त जिसे मन भी कहा जाता है, द्रव्य,गुण तथा अन्य सभी वस्तुओं का ज्ञाता है। इस में उस के स्वयं का ज्ञान भी शामिल है।


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