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एक दिन की बात

kewal sethi

एक दिन की बात


पहले मैं अपना परिचय दे दूॅं, फिर आगे की बात हो। मैं एक अधिकारी था, दिल्ली से बाहर नियुक्ति थी पर घर दिल्ली में था। आता जाता रहता था। मैं कुंवारा था और उस स्थिति में था जिसे अंग्रेज़ी में कहते है एलिजीबल बैचलर। जहॉं नियुक्त था, वहॉं भी रिश्ते आ रहे थे। जबलपुर में एक बुआ रहती थीं। उन्हों ने बताया। लड़की का घर उन के घर की बगल में ही था। लड़की दूर से दिख गई। उस का डील डौल देख कर ही डर लगा। जहाूं नियुक्त थे वहॉं एक साथी ने कहा कि हॉं बोलो ताकि अम्बैडसर बुक कराई जाये। भोपाल एक मीटिंग मं आये तो एक कलैक्टर ने अपनी बहन के लिये बात की। पर इस सब से बचने के लिये मैं ने एक काल्पनिक प्रेमिका भी डूॅंढ ली। नाम रखा स्नेह प्रभा। उस के कारण मेरी मॉंग कम हो गई। थोड़ी राहत हुई।


पर दिल्ली में घर वालों द्वारा तलाश तो जारी रही। एक रिश्तेदार ने एक रिश्ता बताया। उन के परिचित थै। लड़की - नाम था नीति - मीराण्डा हाउस में एम ए कर रही थी। माता और भाई के साथ उस के घर जा कर देख भी आये। पर तुरन्त फैसला नहीं कर पाये।


अगले रेाज़ मैं मौसी के घर से आ रहा था और रामजस कालेज जा रहा था जहॉं मैं पहले अध्यापक रह चुका था। रास्ते में नीति दिख गई। वह कालेज जा रही थी। आमने सामने पड़ गये तो नमस्ते तो करना ही थी। उस ने कहा कुछ नहीं, बस मुस्करा दी। इस से पहले कि बात आगे बढ़ती, मैं कुछ कहता, वह कुछ कहती, उस के साथ जो सहेली थी, वह बोल उठी। ‘‘आप कौन’’? मैं ने कहा - मैं बलदेव। फिर पता नहीं क्यों जोड़ दिया - पटेल नगर में रहता हूॅं। शायद नमस्ते करने का कारण बता रहा था। सहेली ने अपना परिचय दिया - मैं अपर्णा हूॅं। मीराण्डा हाउस में ही। बस इतना ही। नीति तथा अपर्णा अपने कालेज की ओर बढ़ गईं और मैं रामजस कालेज की ओर।


दो एक पुराने साथियों से मिल कर मोरिस नगर से बस पकड़ी घर आने के लिये। अगला स्टाप मीराण्डा हाउस ही था। संयोग देखिये कि नीति भी उस बस में चढ़ी। मेरे साथ की सीट खाली थी। मैं ने कहा - आईये। इधर उधर नीति ने देखा और कोई सीट शायद नहीें दिखी तो बैठ गई। अब यह मुश्किल आ पड़ी कि बात क्या करें। पिकचर में तो देखा है कि मॉं बाप कहते हैं बेटा तुम अलग कमरे में बैठ कर बात कर लो। पता नहीं क्या बातें करते हैं क्योंकि पिक्चर में कभी दिखाया नहीं गया। पर यहॉं तो ऐसा हुआ नहीं था। क्या बोलें, मैं यह सोच रहा था और उस की तरफ से भी वैसी ही चुप थी। पर कितनी देर। कुछ तो बोलना ही था सो रस्मन बात शुरू की। क्या रोज़ इसी समय कालेज समाप्त हो जाता है। ओर इसी तरह की बातें। उस की तरफ से - कितने दिन रामजस में रहे। कौन सी कक्षा को पढ़ाते थे। और इस तरह की बातें। पर यह सिलसिला कितनी देर चलता। फिर खामोशी।


शायद यह यात्रा ऐसे हीे समाप्त हो जाती पर भाग्य में कुछ और लिखा था। लाल किले से थोड़ा आगे चले तो बस ने जवाब दे दिया। हमेशा की तरह बसें तो खटारा रहती ही हैं। ड्राईवर ने कहा - अब आगे नहीं जाये गी। कायदा है कि ऐसे मौके पर बस कण्डक्टर सब यात्रियों को दूसरी बस में बिठा देता है। और उस बस के कण्डक्टर को अपनी टिकटों का नम्बर भी बात देता है ताकि फिर से टिकट न लेना पड़े। अब सर्विस तो थी बीस एक मिनट की। एक बस आई पर भरी हुई। सात आठ लोग उस में चढ़ पाये। बाकी अगली बस के इंतज़ार में खड़े रहे।


आखिर कब तक। नीति और मैं साथ साथ ही उतरे थे और साथ साथ ही खड़े थे। एक बस तो निकल ही गई थी और दूसरी का भी भरोसा नहीं था। अतः मैं ने कहा - क्यों न स्कूटर से चलें (उस ज़माने में आटो को स्कूटर ही कहते थे, पता नहीं क्यों)। नीति ने कुछ नहीं कहा। मौनं स्वीकृृति लक्षणम - सोच कर मैं ने अगले स्कूटर को रोक लिया। और नीति को कहा - आईये। अब उस से इंकार करते नहीं बना। हम दोनों बैठ गये और स्कूटर वाले का अपना गणतव्य बता दिया।


दिक्कत अभी भी वही थी। बात चीत कैसे शुरू करें। पर इस की ज़रूरत नहीं थी। हमारे ड्राईवर महोदय ने हम दोनों की चुप्पी को अपनी बातों से तोड़ दिया। उस का प्रथम वचन था - साहब, यह तो हमेशा ही का किस्सा है। ऐसी खटारा बसें हैं कि कहीं न कहीं तो बिगड़े गी ही। और ऐसे मौकों पर ही हमारी सवारी मिल जाती है। उस में बहुत तरह के तजरबे भी होते हैं।


फिर उस में किस्सा सुनाया। कैसे दो दिन पहले दो महिलायें बैठीं और रास्ते भर एक दूसरे को सुनाती रहीं। किसी तीसरी महिला, जो दोनों की रिश्तेदार थी, के बारे में क्या क्या बातें सुनने को मिलीं। क्या खाती है। एक ने कंजूस बताया तो दूसरी ने दिलदार। एक ने एक वाक्या सुनाया, दूसरी ने उस से उलटा। ड्राईवर महोदय ने वह बातें हमें काफी विस्तार से बताईं। कुछ हंसी की बात भी थी और इस हंसी ने ही मेरे और नीति की चुप्पी को तोड़ दिया। हम दोनों दिल खोल कर हंसे।


उस के बाद ड्राईवर जी ने दूसरा किस्सा सुनाया। किस तरह एक मियॉं बीवी बैठे और बैठते ही झगड़ा शरू कर दिया। बीवी का कहना था मैं तो शुरू से ही कह रही थी - स्कूटर से चलो पर आप सुनें तब न। पति ने भी माकूल उत्तर दिया। रास्ते भर तू तू मैं मैं होती रही। कभी बच्चें को ले कर - मोनू की टयूशन नहीं लगाई न; अब फेल हो गया है तो भुगतो। कभी कपड़ों को ले कर। मुझे तो बोलने का मौका ही नहीं दिया। स्पष्ट था कि ड्रईवर को बोलने का शौक था जिस से उसे रोक दिया गया। उस का गुस्सा शायद जायज़ था। मैं ने उस से हमदर्दी जताई। और उस में थोड़ी बहुत कुछ टिप्पणी की। आटो में बैठ कर झगड़ा नहीं करना चाहिये। उस के लिये तो पूरा घर पड़ा है। वह टिप्पणी भी कुछ हल्के मूड में ही थी। मुख्तसर किस्सा यह कि इसी बात चीत में पटेल नगर आ गया।


अब मैं ने सोचा कि यह तो ठीक नहीं लगे गा कि घर तक साथ जाऊॅं। आखिर हमारा परिचय अभी तो औपचारिक ही था। इस लिये मैं ने कुछ पहले ही मारकेट के पास स्कूटर रुकवा लिया। नीति भी समझ गई। शायद उस का भी यही विचार था। दोनों उतरे। मैं ने ड्राईवर को पैसे दिये। उस ने लिये और फिर कहा - आप की जोड़ी बहुत अच्छी लग रही है। बड़ी खुशी हुई आप को यहॉं ला कर। शायद वह हमारे उस के किस्से ध्यान से सुनने के कारण ही ऐसा कह रहा था। पर जो भी कारण रहा हो, उस की टिप्पणी तो आ ही गई।


नीति के घर की ओर चले तो मैं ने कहा - लो अब तो ड्राईवर ने भी मंज़ूरी दे दी। तुम्हारी तुम जानो (आप से तुम पर अनजाने में ही आ गया), मैं तो घर जा कर बीजी को कहने वाला हूॅं कि मेरी तो हॉं है।


मोड़ आने पर मुझे मुड़ना था। नीति को सीधा जाना था पर मैं मुड़ नहीं पाया। वहीं खड़ा रह गया। नीति अपने घर के पास पहुॅंची, मुड़ कर देखा और मुझे वहीं पर पाया तो एक मुस्कराहट उस के चेहरे पर आ गई।

(नोट - यह किस्सा पूर्णतः काल्पनिक है)

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