एक और आरक्षण।
लगता है हमारे नेतागण यह नहीं चाहते कि कोई भी वर्ग अपने दम पर आगे बढ़े।
उन के विचार में हर वर्ग को हमेशा बैसाखी का सहारा ही चाहिये।
यह बीमारी आज की नहीं है, पूना पैक्ट से ही चल रही है। 1950 में इसे संवैधानिक स्वरूप दे दिया गया।
और यह मर्ज़ बढ़ता ही गया।
ऐसा क्यों?
इस लिये कि सभी के पास केवल नारे हैं, ठोस काम करने की न आदत है न इच्छा शक्ति।
और इसी बीमारी का दूसरा रूप है रेवड़ी बण्टन। सभी दल इस दलदल में हैं। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे हम नीलाम घर में हैं। वोट के लिये बोली लगाई जा रही है। एक कहता है दो सौ यूनिट, दूसरा कहता है तीन सौ यूनिट। एक कहता है एक हज़ार, दूसरा कहता है दो हज़ार, तीसरा तीन हज़ार। जाने यह बोली कहॉं रुके गी।
कहीं उत्पादक को संरक्षण चाहिये, कहीं उपभेक्ता को। जैसे संरक्षण के बिना कुछ संवर ही नहीं सकता।
बाज़ारवाद का ढंढोरा पीटा जाता है और बाज़ारवाद का गला भी घोंटा जाता है। तुष्टिकरण ही एक मात्र सच्चाई है, शेष सब ढकोसला।
जापान में भी कठोर जातिगत विभाजन था। हर एक वर्ग का अपना कार्य क्षेत्र था और दूसरा वर्ग वह कार्य नहीं कर सकता था। फिर मैजी क्रॉंति आई। एक झटके में जातिवाद समाप्त। न किसी को आरक्षण न किसी को राहत। सब बराबर। और अपने दम पर हर वर्ग आगे बढ़ा और 1905 आते आते, जापान की शक्ति यूरोपीय शक्ति को हराने की हो गई।
इच्छा शक्ति होना चाहिये, तुष्टिवाद नहीं।
कार्य होना चाहिये, केवल प्रचार नहीं।
कैसे हो गा यह?
एक क्रॉंति होना आवश्यक है।
स्लेट साफ कर फिर से लिखना आरम्भ करना हो गा।
तथा इस बार लिखावट स्पष्ट, सारपूर्ण और अनुकरणीय होना चाहिये।
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