एक अन्दोलन की मौत
जन अन्दोलन तथा राजनीतिक गतिविधि में अन्तर है। जन अन्दोलन किसी एक विषय को ले कर होता है जिस की अपील सीघे जनता को प्रभावित करती है। राजनीतिक दल में कई मुद्दों को साथ में ले कर चलना पड़ता है। इस कारण सफल अन्दोलन चलाने वाले सफल राजनीतिक दल भी चला पायें गे, इस में संदेह है। पर यह सदैव सच भी नहीं होता। तेलुगु देशम का उदाहरण हमारे सामने है। तेलुगु आत्म सम्मान को केन्द्र में रख कर रामा राव ने जो अभियान छेड़ा, उस की परिणिति चुनाव में भारी विजय से हुई। रूस में श्रमिक अन्दोलन को केन्द्र बिन्दु मान कर चलाये गये अभियान में लैनिन के बालश्वेक दल ने सदन में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। हिटलर के यहूदी विरुद्ध अभियान तथा जर्मन आत्म सम्मान के नारे ने उन्हें चुनाव में विजय दिलाई। परन्तु यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरुद्ध अन्दोलन को वह सफलता मिलना संदिग्ध है, कारण इन उपरिलिखित सफल अभियानों के पीछे संगठन था जो काफी समय से कार्यरत था। वर्तमान भ्रष्टाचार विरुद्ध अन्दोलन की आयु अल्प है। मध्य वर्ग भले ही इस से जुड़ा हो किन्तु ग्रामीण वर्ग तथा नगरों का निम्न वर्ग इस में जुड़ नहीं पाया तथा इस का प्रयास भी नहीं हुआ। आगे हो गा, इस के भी आसार नज़र नहीं आते।
क्या अन्ना अन्दोलन को असफल कहा जा सकता है? इस अन्दोलन ने, चाहे कुछ दिनों के लिये ही सही, पूरे देश को तथा सरकार को हिला कर रख दिया था। इस बात की याददाश्त वर्षों तक बनी रहे गी। वही इस की सफलता है तथा इसे कभी कम नहीं किया जा सकता। भविष्य में भी इस प्रकार के अन्दोलनों को इस से प्रेरणा मिलती रहे गी। अत: इसे असफल नहीं कह सकते।
परन्तु इसे सफल भी नहीं कह सकते क्योंकि इस के इचिछत परिणाम नहीं निकले। जन लोक पाल सम्भवत: आज उस से भी अधिक दूरी पर है जो इस अन्दोलन के पहले था। कुछ समय पूर्व तक विधि मन्त्री इसे मानसून सत्र में लाने की बात कह रहे थे, अब 2014 के पूर्व इसे पारित कराने की बात कर रहे हैं। इस छोटे से शब्दिक परिवर्तन में सरकार की मंशा झलकती है। इसे ही टीम अन्ना की कमज़ोरी कहा जा सकता है। कहां गलती की उन्हों ने?
मेरे विचार में उन्हों ने इस अन्दोलन को देश का अन्दोलन समझने तथा उस के अनुरूप इस के संचालन के स्थान पर अपना अन्दोलन समझ लिया तथा वहीं वे मार खा गये। कांग्रैस ने अपनी आदत के अनुसार इस के पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक का हाथ बताया। जब सारा देश इस के साथ था तो संघ भी कैसे अछूता रह सकता था अथवा उस के सदस्य कैसे दूर रह सकते थे। परन्तु तुरन्त ही टीम अन्ना ने इस का विरोध करना आरम्भ कर दिया। उन को भय लगा कि कहीं उन का अन्दोलन कोई दूसरा मार न ले जाये। स्वयं अन्ना ने इस का आरम्भ राम लीला मैदान पर दो लड़कियों - एक मुसिलम, एक दलित - के हाथें फलों का रस पी कर किया। यह एक गलत सन्देश था। अन्दोलन में कुछ सम्प्रदायिक नहीं था भले ही मौलाना बुखारी से इस को वैसा रंग देने का प्रयास करवाया गया। ऐसी टिप्पणी को अनदेखा किया जाना चाहिये था परन्तु संघ से अलग दिखाने की भावना ने इस के लिये प्रेरित किया।
बाबा रामदेव का इस में सर्मथन था बल्कि सकारात्मक योगदान था परन्तु अन्ना के इच्छा के विरुद्ध उसे भी नकार दिया गया। स्वयं ही सारा श्रेय लेने की होड़ ने इसे व्यापकता से दूर कर दिया। आश्चर्य यह है कि मुम्बई के विपरीत अनुभव से भी कोई सीख नहीं ली गई। जंतर मंतर पर भी वही रवैया रहा। जब भीड़ नहीं जुटी तो मीडिया को निशाना बनाया गया कि वे जान बूझ कर कम संख्या दर्शा रहे हैं। सब को साथ ले कर चलने के स्थान पर सब से अलग हो की चलने का प्रयास किया गया।
प्रजातन्त्र का मौलिक सिद्धांत है आपसी बात चीत से देश की सेवा करना। वैसे तो चाहे स्टालिन हो अथवा गद्दाफी अथवा स्वीकारनो देश की सेवा करने ही आते हैं, भले ही उन के कृत्य कालान्तर में परिवर्तित हो जायें। परन्तु वास्तविक प्रजातन्त्र में वार्ता ही प्रधान तत्व है। पर अन्दोलन के संचालकों का रुख अलग दिखा। वे वार्तालाप से बचना चाहते थे। एक ही राय सर्वोपरि थी तथा वह उन की थी। अन्ना से एक मन्त्री मिलने गये - वार्तालाप को आरम्भ करने। अब यह दिखावा था या नहीं, इस में जाने की आवश्यकता नहीं। वार्ता हुई। अच्छा रहा। आगे भी चल सकती थी। पर इस की प्रतीक्षा नहीं की गई। अन्ना ने कह दिया कि यह टीम में फूट उालने का प्रयास था। क्या टीम इतनी कमज़ोर थी कि अन्ना के अकेले में बात करने से टूट जाती। क्या टीम का विचार था कि कहीं गुपचुप समझौता न हो जाये। कहना तो अन्ना को चाहिये था कि मैं बात करने को तैयार हूूं, प्रधान मन्त्री का चपड़ासी भी सन्देश ले कर आये गा तो उस का स्वागत है। याद हो गा कि जब द्वितीय गोल मेज़ सम्मेलन लन्दन में हुआ तो कांग्रैस ने एक मात्र गांधी को अपना अधिकृत प्रतिनिधि बना कर भेजा था। बात विश्वास की थी पर टिप्पणियों से सम्भवत: अन्ना पर भी अविश्वास की बात झलकी। यदि बात चीत होती रहती तो कुछ समाधान निकल सकता था। आगे दूसरों को भी शामिल किया जा सकता था। पर अन्ना ने कहा कि अब बात चीत ही नहीं करें गे। प्रधान मन्त्री से भी नहीं करें गे। वार्ता की राह तो स्वयं ही बन्द कर दी गई। यह प्रजातन्त्र में होता नहीं है। इस से कांग्रैस का सही तौर पर कहने का अवसर मिल गया कि टीम अन्ना प्रजातन्त्र नहीं, एक तन्त्र चाहती है। भारतीय मानस इस के लिये तैयार नहीं था और न हो गा।
अन्ना अन्दोलन हुआ। सरकार ने संसद में बहस की। आश्वासन दिया गया कि लोकपाल बिल लाया जाये गा। लाया गया। यह पूर्व में ही पता था कि इस का अंजाम क्या होने वाला है। सरकार इसे चाहती ही नहीं थी। मजबूरी में लाया गया। और इसे तिकड़म से पास नहीं होने दिया गया। (परिणामस्वरूप एक व्यकित को इतिहास दौहराने का अवसर मिल गया)। कोई बात नहीं, राज्य सभा के समक्ष बिल समाप्त नहीं होते क्योंकि राज्य सभा कभी समाप्त नहीं होती। फिर पास हो जाता। उस रूप में नहीं होता जिस रूप में चाहते थे, कम में हो जाता। पर कुछ होता तो। 'आधी छोड़ सारी को धावे, सारी रहे न आधी पावे' वाली बात हो गई। याद हो गा कि कांग्रैस ने 1930 में पूर्ण स्वराज की मांग की थी। पर 1939 में उसी कांग्रैस ने चुनाव लड़ा तथा प्रांतों में सरकारें बनाई। जो मिल जाये, वह लो और आगे के लिये संघर्ष करते रहो।
यह सिद्धांत नया नहीं बहुत पुराना है। पर अन्ना यहां भी चूक गये। पूरा ही चाहिये नहीं तो कुछ नहीं लें गे। आधा पेट नहीं खायें गे, चाहे भूखे मर जायें। गत वर्ष की सफलता के पश्चात वह इस बात को भूल गये। जो मिला था, उस को ग्रहण करना चाहिये था। फिर वहां से आगे के लिये प्रयास करते। ऐसी बातों में समय महत्वपूर्ण नहीं होता है। व्यक्ति के लिये हो सकता है किन्तु राष्ट्र के लिये नहीं। और यह युद्ध लम्बा चलने वाला है, इस का अनुमान होना चाहिये था। यह पुराने ज़माने की बात नहीं कि दोनों सैनायें कुरुक्षेत्र में जमा हुई। एक बार में ही निर्णय हो गया कि कि कौन जीता, कौन हारा।
पुराना अनुभव कहता है कि सदैव शत्रु को भागने के लिये कुछ रास्ता छोड़ दो। यदि आप ने उसे चारों ओर से घेर लिया अथवा एक कोने में होने को मजबूर कर दिया तो वह बचने का कोई रास्ता न होने पर दुगने चौगुने ज़ोर से लड़े गा। इस में वह भले ही हार जाये किन्तु आप की हानि भी अधिक हो गी। टीम अन्ना की यही कमज़ोरी थी। एक ओर सरकार का जनलोकपाल बिल था जो सरकार को, वर्तमान सरकार को, जो एक संस्था विशेष की वफादारी पर, कारगुज़ारी पर, अपने दिन काट रही है और आप उस संस्था को उस से अलग कर देना चाहते हैं। यह हो नहीं सकता था। कुछ ढील भले ही सरकार दे देती मजबूरी में पर छोड़ नहीं सकती थी। इसी कारण तो हिम्मत आई पूरे देश की मांग को अस्वीकार करने की। आत्मरक्षा के लिये मनुष्य क्या नहीं करता। कुत्ता तो क्या एक खरगोश भी जवाबी हमला करता। सरकार के पास शक्ति है, संस्थायें हैं, कानून नियम हैं तथा सब को मालूम है कि न्याय प्रक्रिया ऐसी है कि एक जीवन काल में कुछ हो नहीं पाता। ऐसी स्थिति में विलम्ब की सम्भावना प्रबल थी।
अब अन्दोलन समाप्त कर इसे राजनीतिक दल बना कर आग बढ़ाने की बात कही गई है। प्रश्न यह है कि क्या राजनीतिक दल बना कर इस अन्दोलन को आगे बढ़ाया जा सकता है। इस में यह भी निहित है कि क्या एक ही मुद्दे पर कोई राजनैतिक दल चल सकता है। पहले प्रश्न का उत्तर तो हां में दिया जा सकता है क्योंकि अन्दोलन एक बिन्दु पर हो या अधिक बिन्दुओं पर, इस से असर नहीं पडता। दल की एक गतिविधि यह भी हो सकती है। समय समय पर राजनीतिक दलों द्वारा बन्द का आवाहन इसी प्रकार के गतिविधि है। बन्द चाहे स्थानीय किसी घटना विशेष से समबन्ध रखता हो अथवा महंगाई जैसे देश व्यापी मुद्दे पर। इस से दल के अन्य कार्य प्रभावित नहीं होते हैं।
दूसरी ओर एक मुद्दे या बिन्दु पर दल का संचालन कठिन है। भले ही एक समस्या मुख्य समस्या हो परन्तु जनता की एक ही समस्या नहीं होती तथा हर व्यक्ति के लिये वही समस्या प्रधान हो, इस का भी इमकान नहीं है। यहां पर बात सिद्धांत की की जा रही है वरन् वह स्थिति आ सकती है जब किसी एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर ही पूरा चुनाव लड़ा जाये तथा ऐसे भी अवसर हैं जब वह व्यक्ति तथा उस का दल विजयी भी रहा हो। परन्तु उसे भी, भले ही नाम के लिये, सभी मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करना ही पड़़ती है। परन्तु इस के लिये उस व्यक्ति में कोई विशेष गुण होना चाहिये। साथ ही उस के लिये लम्बा इतिहास भी होना चाहिये। अन्ना ऐसे पुरुष हो सकते हैं पर वर्तमान में इस तरह का वातावरण नहीं दिखता। ऐसे वातावरण के निर्माण के लिये समय लगे गा।
सब मिला कर ऐसा नहीं लगता कि राजनीतिक दल इस मुद्दे को भुना पाये गा। आने वाले समय में शायद यह अन्दोलन फिर से जीवित हो सके किन्तु वर्तमान में तो इस की सम्भावना क्षीण प्रतीत होती है।
Comments