एकता और अनेकता
(मूल शीर्षक — टॉंग खींच प्रतियोगिता)
हमारा प्रिय उपवाक्य है - यूनिटी इन डायवर्सिटी लेकिन वास्तविकता है इस से उलटी - डायवेिर्सटी इन यूनिटी। यह ही देखने को मिलती है। राजनैतिक दृष्टि से हम में यूनिटी है परन्तु उस के अतिरिक्त हर बात में डायवर्सिटी। हर कोई अपने को अलग मानता है और दूसरे सब को अपने हित के लिये रूकावट। किसी भी तरीके से वह चाहता है कि वह दूसरों को पछाड़ कर सब से आगे निकल जाये। यह बात केवल सड़क पर वाहन चलाने वालों के लिये ही सही नहीं है वरन् जीवन के सभी पहलुओं में इसे देखा जा सकता हैं। वह पुरानी कहानी थी कि केकड़े बेचने वाली भारतीय कम्पनी ऊपर का ढक्कन न लगा कर काफी पैसे बचा रही थी। कारण यह बताया गया कि कोई केकड़ा बाहर नहीं निकल पाता क्योंकि सब ही दूसरे से आगे निकलने के लिये दूसरेे की टाँग खींचते रहते हैं तथा इस कारण ऊपर तक कोई पहुँच ही नही पाता। ऐसे में ढक्कन लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़तीं। स्पष्ट है कि यह टाँग खींचने की क्या ज़रूरत है। हर कोई चाहता है कि वह स्वयं ऊपर चढ़ सकें। अपने लिये रास्ता बनाने का विचार रहता है।
परन्तु हमारे भारत में दूसरी दिशा देखने को मिलती है। यहाँ टाँग खींच कर ऊपर जाने की होड़ नहीं है। बल्कि हर कोई चाहता है कि उसे पिछड़ा हुआ माना जाये। शायद संसार का यह अनोखा देश हो गा जहाँ इस बात पर मुकद्दमेबाज़ी होती है कि अधिक पिछड़ा हुआ कौन है। और उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय इस पर गम्भीरता से विचार करते हैं। गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गूजर, महाराष्ट्र में मराठा, हरयाणा में जाट - हर कोई चाहता है कि उसे पिछड़ा माना जाये। जिन को पिछड़ा मान लिया गया है, उन में होड़ इस बात पर है कि उन में से अधिक पिछड़ा कौन है। दलित के साथ महादलित का नाम भी अब सुर्खियों में आने लगा है। जो लोग मसीहा द्वारा बचाये जाने से स्वर्ग पाने या जन्नत में हूरें पाने के लालच में धर्म परिचर्तन किये थे, वे भी अब माया पाने के लिये अपने को पिछड़ा घोषित करने पर ज़ोर दे रहे हैं। जो धर्म इस बात का प्रचार करता है कि उस का विश्व में समानता स्थापित करने के लिये आविर्भाव हुआ है, वह भी अपने में से कुछ बल्कि कई को पिछड़ा मनवाने के लिये अन्दोलनरत है।
इस सब में एक बात एक जैसी है कि हर कोई कहता है कि वह दूसरों से अलग है। पाटीदार में भी कहा जाता है कि उन में कई उपजाति है तथा एक जाति दूसरी जाति से अलग है और हमारी जाति ही पिछड़ेपन की वास्तविक हकदार है।
यह बात केवल आरक्षण के सम्बन्ध में ही सही नहीं है। जातिगत अथवा अन्य कारण से कई स्थानों के लोग केवल अपने निवासस्थान के कारण अपने को अलग मानते है। बंगालियो को इस बात का घमण्ड है कि उन के यहाँ टैगोर हुये और इस कारण वह संस्कृति की दृष्टि से शेष भारतवासियों से अलग हैं। तमिलनाडु वासियों का कथन है कि उन की भाषा प्राचीनतम है और इस कारण वह उन से भिन्न हैं जिन की भाषा संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं, अथवा संस्कृृत से जिन्हों ने शब्द ग्रहण किये हैं। स्वयं उन्हों ने अपने को अलग सिद्ध करने के लिये संस्कृत से आये शब्दों को निकाल बाहर करने के लिये अन्दोलन चलाया। एक समूह है जिस में वह लोग हैं जिन में अंग्रेज़ों ने भारतीय से विवाह कर लिया था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें एंग्लो इण्डियन कहा ताकि वह अलग रहें। संविधान बनाने वाले काले रंग के अंग्रेज़ों ने इस विभाजन को यथावत रखने का निर्णय लिया तथा उन के लिये लोकसभा तथा विधान सभाओं में नामांकन की व्यवस्था भी रखी क्योंकि वह संख्या में इतने नहीं थे कि स्वयं चुन कर आने की स्थिति में होते। आज तथाकथित स्वतन्त्रता के सत्तर वर्षों के बाद भी उन का अलगावपन नहीं जा पाया है। अलगाव में ही प्रगति है, ऐसा उन का विश्वास है जिस में वह अन्य भारतियों से भिन्न नहीं हैं।
स्वतन्त्रता के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि आदिवासियों को अलग रखा जाये गा। उन पर संविधान के सभी प्रावधान लागू नहीं हों गे। अनुसूची पाँच और छह इसी आश्य से शामिल की गई। उन के विकास के लिये कोई कार्यक्रम लेने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि इस से वह दूसरों के समकक्ष आ जाते और उन का अलगावपन समाप्त हो जाता। उन्हें अलग रखने की नीति का पूर्ण रूप से पालन किया गया।
यह बात धर्म के लिये भी उतनी ही सही है। उन के लिये भी थके हारे लोगों द्वारा बनाये गये संविधान में उन्हें अलग रखने के लिये प्रावधान किये गये। और उन्हें पिछड़े रखने के लिये सभी प्रकार के प्रयास किये गये ताकि कहीं वह अन्य के साथ मिल कर काले अंग्रेज़ों को सत्ताच्युत न कर दें। समय के साथ इस भावना की लगातार पुष्टि की जा रही है।
राजनैतिक दलों का तो काम ही बाँट कर रखना है। यदि जनता आपस में एक हो गई तो उन्हेें खतरा हो सकता है। इस कारण येण केण प्रकारेण उन्हें अलग रखना ही है। इस के लिये इतिहास के साथ भी खिलवाड़ किया जाता है। कानून के साथ भी आँखमचैली खेली जाती है। जातियता का रोना रोया जाता है क्योंकि वह फैशन है पर उसी को प्रोत्साहित किया जाता है।
यह जातियता का रोना आरम्भ ही इस लिये किया गया कि अलगाव की भावना को पोषित किया जाये। इस का वास्तविक प्रयोजन यह था कि सिद्ध किया जा सके कि हमारा भूतकाल ऐसा था जिस में केवल शोषण था और कुछ नहीं। उपनिवेशवादियों का तो सतत सन्देश था कि वह भारत के नागरिकों को सच्चे धम्र में ले जा कर बचाने के लिये ही भारत में आये हैं। भारत की जो स्मृद्धि थी वह तो संयोगजन्य थी। उस से उन को लाभ हुआ तो वह भी संयोग ही था। वास्तविक लक्ष्य तो समाजसुधार का था, लोगों को सही धर्म में लाने का था।
दुर्भाग्य की बात यह है कि तथाकथित शिक्षित वर्ग भी इस अलगावपन की नीति के विरुद्ध नहीं है बल्कि इस का परोक्ष रूप से स्वागत करता है। इस में उन का भी इतना दोष नहीं है क्योंकि बचपन से ही उन्हें इस बात के दुष्प्रचार के साथ ही रहना पड़ता है। वह लोग जो अलगाव के वातावरण में पले बढ़े, वह इस के इतने मानूस हो चुके हैं कि उन के लिये इस से बाहर की दुनिया से सरोकार नहीं रह गया और कुयें के मैंढक की तरह वह उस कुँयें को ही संसार मानते हैं। आसमान उन्हें दिखता तो है किन्तु वह इसे केवल कल्पना भर मानते हैं जिस का वास्तव में कोई आस्तित्व नहीं है। पंथनिर्पेक्षता के नाम पर वह इस अलगावपन को न केवल स्वीकार करते हैं वरनृ इस को सुदढ़ करने के लिये भी कार्यरत रहते हैं।
भारत का मूल मन्त्र सदैव अनेकता में एकता रहा है। एक दूसरे को समझना, एक दूसरे की भावनाओं का आदर करना, इस देश के मानसिकता में सदैव रहा है। एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति हमारा आदर्श रहा है। जिस देश में एक साथ छह छह दर्शन तथा अनेकानेक उप दर्शन साथ साथ विकसित हो रहे थे, उस में अनेकता में एकता ही प्रदर्शित होती है। इस देश में किसी सुकरात को विष पीना नहीं पड़ा। किसी गैलेलियोे का अपने मत का सार्वजनिक रूप से त्याग नहीं करना पड़ा। इस सब अनेकता के बीच एकता प्रवाण चढ़ती रही। इस में संदेह नहीं कि समय समय पर कुछ बुराईयाँ भी जीवनचर्या में, पंथ विशेष में प्रवेश कर गईं परन्तु इस देश में ही उस के विरुद्ध सुधारक भी समय समय पर जन्म लेते रहे तथा देश की परम्पराओं को पुनः पटरी पर लाते रहे। विश्व में इस प्रकार का एक ही अन्य उदाहरण मिलता है - ईसाई धर्म में प्राटैस्टैण्ट सुधार। परन्तु उस का परिणाम भयंकर रक्तपात के रूप में प्रकट हुआ। भारत में ऐसे सुधारों से देश की सांस्कृतिक विरासत में कोई अन्तर नहीं आ पाया। किसी रक्तपात की, किसी उत्पीड़न की घटना नहीं हुई। अनेकता मे ंएकता के सिद्धाँत को आँच नहीं आई।
इस देश को बदनाम करने के लिये वर्ण व्यवस्था के बारे में जम कर दुष्प्रचार किया गया। परन्तु ऐत्हासिक तथ्य है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले वर्ण व्यवस्था के बारे में कोई विपरीत बात देखने में नहीं आती। इस्लाम में उन सभी काफिरों से समान रूप से नफरत की जाती थी जो उन के धर्म को अपनाने को तैयार नहीं थे। उन में वर्णव्यवस्था का कोई दखल नहीं था। जज़िया सब काफिरों पर, एवं ज़िम्मियों पर, बराबर लगता था। यह दुष्प्रचार किया जाता है कि तथाकथित निचली जाति के लोगों, जो ऊपर की जातियों के ज़ुल्म का शिकार थीं, ने इस्लाम धर्म को स्वीकार किया। यदि वास्तव में ऐसा होता तो अ्रगेज़ों के आने तक सनातन धर्म में केवल तीन ही वर्ण रह गये होते। वास्तव में सभी लोगों को उस काल में इस्लाम धर्मावलम्बी शासकों का कोप भाजन बनना पड़ा। देखा जाये तो इस ंवर्ण व्यवस्था का प्रभाव ही सनातन धर्म को यथावत रखने का कारण रहा। मिस से मोरोक्को तक के देशों में वर्ण व्यवस्था नहीं थी पर वहाँ पर वे अपने मूल धर्म को कायम नहीं रख पाये। ईरान में वर्ण व्यवस्था नहीं थी किन्तु उस का पूर्ण रूप से इस्लामीकरण हुआ। इस बात को समझने की आवश्यकता है।
आज के तथाकथित बुद्धिजीवी जो पाश्चात्य दूषित शिक्षा के कारण वर्ण व्यवस्था को सब से बड़ा दोष तथा अपराध मानते हैं, को अपने समाज के बारे में सर्वांग रूप से सोचना चाहिये कि यह प्रचार केवल अलगाव के लिये तथा कुछ तात्कालिक लाभ पाने के लिये ही इस्तेमाल किया जा रहा है। इसे अलगाववाद के प्रोत्साहन के लिये ही मुद्दा बनाया जा रहा है। इस समस्या का समाधान केवल अनेकता में एकता का सिद्धाँत अपनाने का ही है। अलगाववाद में नहीं।
एकता का भाव भारत की धार्मिक व्यवस्था में सदैव रहा है। न केवल भारत भूखण्ड (जिस में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान सभी शामिल थे) एक था बल्कि इस एकता का प्रचार मध्य एशिया, दक्षिण वूर्व एशिया से होता हुआ चीन, कोरिया, जापान तक पहुँच गया। इस एकता का भाव हमारे स्वतन्त्रता पश्चात के नये शासकों को नहीं सुहाया। वह पाश्चातय रंग में रंगे हुये थे। उन को यही सिखाया गया था। उन्हों ने कभी भारत को समझने का प्रयास ही नहीं किया। इस कारण सब से पूर्व इन काले अंग्रेज़ों ने इस बात का लागू किया कि धर्म को जीवन से अलग कर दिया जाये। पंथनिर्पेक्ष व्यवस्था केवल इस धार्मिक भावना को आहत करने के लिये लाई गई।
आज के प्रगतिशील देशों में जिस धर्म को मुख्य रूप से माना जाता है, उस में ईश्वर ने कृपावन्त हो कर छह दिनों में विश्व की रचना की। इतनी मेहनत करने के पश्चात उस ने सातवें दिन विश्राम किया। बहुत समय तक इस मत पर ही लोग अंधभक्त हो कर चलते रहे किन्तु विज्ञान ने इस कल्पना को झुटला दिया। इस समूह के लोगों के सामने समस्या उत्पन्न हो गई कि वे विज्ञान की बात को मानें अथवा प्राचीन ग्रन्थों की बात को स्वीकार करें।
इस समस्या का समाधान उन्हों ने इस प्रकार किया कि धर्म को जीवन से अलग कर लिया। अब उन्हों ने धर्म को समेट लिया है। सप्ताह के छह दिन वह वैज्ञानिक ढंग से सोचते, योजना बनाते तथा उन को लागू करने का यत्न करते है। सातवें दिन वह धार्मिक मंदिर में जा कर इस बात पर विश्वास को दौहराते है कि ईश्वर ने छह दिन में विश्व की रचना की। बाकी दिन वह करेाड़ों, अरबों वर्ष पूर्व के डायनासोर और उल्कापिण्ड और अनेकानेक ग्लैक्सी होने पर अनुसंधान करते हैं, उन्हें सत्य मानते हैं। केवल एक दिन यह सब बातें अविश्वसनीय हो जाती है।
अन्य धर्मावलम्बी वर्ग जो इस वैज्ञानिक सोच में प्रवेश नहीं कर पाया है, वह भी सातवें रोज़ तो अपने धार्मिक स्थल पर आ कर इस के बारे में सुनता और विश्वास करता है पर बाकी दिन वह केवल अपनी जीविका साधन जुटाने में ही व्यस्त रहता है। इस विशेष दिन ही उसे बताया जाता है कि वह अलग है। अनेकता में एकता की बात उसे नहीं बताई जाती। जो विज्ञान से उत्पन्न सुविधायें हैं, उन का वह उपयोग करता है पर यह अलग बात है कि वह इस के विकास में भागीदार नहीं बन पाता अथवा बनना ही नहीं चाहता।
भारतीय धर्म में यह बात नहीं थी। यहाँ पर धर्म जीवन का ही हिस्सा हैं। उसे किसी विशेष दिन के लिये बचा कर रखने की आवश्यकता नहीं है। ओशो का कहना था कि यह विश्व भगवान की लीला है। विश्व बनाने में परिश्रम होता है तथा इस कारण छह दिन मेहनत करने के बाद विश्राम की आवश्यकता होती है। लीला में तो परिश्रम नहीं है, इस कारण किसी विशेष दिन को आराम करने की आवश्यकता नहीं है। विश्व तो एक सतत विकासशील प्रक्रिया है।
धर्म को जीवन का अभिन्न भाग मानने की बात दूसरे धर्म वालों को खटकती थी। इस कारण उन्हों ने इस बारे में भारत के समस्त साहित्य को कपोल कल्पित बताया। उसे केवल कहानियों की संज्ञा दी। अधिक से अधिक उसे कल्पना की उड़ान बताया। उसे अर्नगल प्रचार तथा एक वर्ग विश्ेाष द्वारा शोषण का माध्यम बताया। उन का पूरा प्रयास अलगाव दिखाने पर हुआ। इस के लिये भूगोल बदला गया। इतिहास बदला गया। एक भाषा को दूसरी भाषा से भिन्न बताया गया। भारत में 565 तथाकथित स्वतन्त्र रियास्तों को रखा गया। वर्ग विशेष के शोषण की बार बार बात की गई और फिर उन्हें कुली बना कर त्रिनिदाद, सुरीनाम, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, पूर्वी अफ्रीका में भेजा गया। यह विडम्बना ही है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को इस में शोषण नज़र नहीं आया। जो अभियान चले, उस में स्थानीय शोषण को ही निशाना बनाया, इस अन्तर्देशीय, अन्तर्महाद्वीपीय शोषण के बारे में किसी बुद्धिजीवी ने कोई अभियान नहीं छेड़ा। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा केवल अपनी बुराईयों को चिन्हित किया गया। अच्छाईयों का प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। ब्र२ोसमाज वाले तो यहाँ तक गये कि अपने को हिन्दु कहने से भी कतराने लगे। अपने को भारतीय कह लेते थे, यही उन की कृपा थी। होमरूल की बात भी इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने नहीं की। उस के लिये ए ओ हयूम को सामने आना पड़ा।
इस बात का जितना भी विस्तार किया जाये कम है किन्तु मुद्दे की बात यह है कि इन के द्वारा अलगाव का ही प्रचार किया गया, एकता का कभी नहीं। और दुर्भाग्यवश यह परिपाटी चली आ रही है। जो लोग इस मौलिक एकता की ओर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करते हैं, उन्हें प्रतिक्रियावादी, दकियानूसी, भूतकाल में रचित लोगों की संज्ञा दी जाती है। उन के विरुद्ध बनावटी बातें कह कर उपहास का पात्र बनाया जाता है। कहीं किसी आशाराम का नाम ले कर, कहीं इतिहास का भगवाकरण कह कर, कहीं फलित ज्योतिश के नाम पर सनातन धर्म को लांछित, किया जाता है। चाहे वामपंथी हों अथवा तथाकथित उदारवादी, सब का उद्देश्य एक ही है - अलगाववाद को जिंदा रखों। उस के नाम की रोटियाँ सेको और खाओ।
पर नहीं यह भी पूर्ण सत्य नहीं है। कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी हैं जो यह काम लाभ की इच्छा से नहीं करते। वह केवल अपने वृत में ही रहने में आराम महसूस करते हैं। इस से बाहर निकलने में उन्हें भय लगता है। कहते हैं कि एक माली की बेटी की शादी एक मोची के घर में हो गई। सुसराल में सड़ांध के मारे परेशान हो गई। उस के सुसर ने कहा कि वह कुछ करे गा इस के बारे में पर यह बू तो कई सालों से है, कुछ समय लगे गा। उस ने किया कुछ नहीं, केवल दिखावे के लिये इधर उधर किया। चार माह बाद बहु से पूछा, अब तो ठीक है न। बहु ने भी हाँ में जवाब दिया बल्कि अब तो उसे मायके में अजीब लगने लगा। वही हाल इन बुद्धिजीवियों का है। वह इस वातावरण से, इस पर्यावरण के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि उन्हें किसी भी परिवर्तन से कष्ट होने लगता है। वह अपने सदैव के विचारों से संतुष्ट हैं तथा उन्हीं में उन को आराम मिलता है।
दुर्भाग्यवश यह बात अभी भी दौहराई जा रही है जबकि हम एक महामारी से युद्धरत हैं। दो तरफा कवायद चल रही है। एक तरफ तो अपने लिये अधिक से अधिक चाहिये चाहे उस में दूसरों की हानि ही होती हो। दूसरे सरकार पर दोषारोपण करते रहो। बात वही है, एक दूसरे की टाँग खींचते रहो। शायद इस से ही ऊपर चढ़ने का मौका मिल सके। महामारी से, जो मानव मानव में भेद नहीं करती है, से भी लड़ने के लिये एकता नहीं दिखाई जा सकी है।
इस एकता में अनेकता देखने की परिपाटी को बल मिला है हमारे प्रजातन्त्र के दिखावे से। जब धर्म को शासन से अलग कर दिया तो राजनीति को नैतिक मूल्यों से भी अलग कर दिया गया। आज की राजनीति केवल सत्ता की राजनीति है। राज है, नीति नहीं है। आज का भारत इसी राज की भूख की जकड़ में है। किसी भी विषय को सत्ता प्राप्ति के परिपेक्ष्य में ही देखा जाता है। कोई भी समस्या हो, उसे उसी पहलू को देखा जाता है जिस के प्रति हमारा रुझान होता है। और वह रुझान केवल सत्ता प्राप्ति पर केन्द्रित है।
इस का एक परिणाम यह हुआ है कि पूरा देश नायको और खलनायकों में बट गया है परन्तु यह नायक और खलनायक दोनों पक्षों के लिये अलग अलग हैं। जो एक का नायक है, वह दूसरे का खलनायक। इस दोरंगी भावना में सामाजिक मीडिया ने सोने पर सुहागे का कार्य किया है।
किसी भी बात को तोड़ने मरोड़ने के लिये बुद्धिशील व्यक्ति तैयार बैठे हैं। हाल का एक समाचार लें। काँग्रैस नेत्री प्रियंका ने कहा है कि उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में 170 व्यक्ति मारे गये हैं जो सरकार की मूर्खता का द्योतक हैं। परन्तु इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है कि उच्च न्यायालय ने पंचायत चुनाव के स्थगन से इंकार कर दिया था और इस कारण चुनाव कराने पड़े। तो सामान्य प्रश्न है कि इन मृत्यु के लिये दोषी कौन है। इस पर विचार किया जाना चाहिये पर बात तो हमें उन की करना है जिन्हें हम खलनायक मानते हैं। तथ्यों्र से इस का सम्बन्ध नहीं है।
यह बात हर क्षेत्र में देखी जा सकती है। जो बात कर्नाटक में एक राजनैतिक दल के लिये सही है, वही बात छत्तीसगढ़ में उसी दल द्वारा गल्त बताई जाती है। जो बात एक धर्म के लिये सही है, वही दूसरे धर्म के लिये सही नहीं मानी जाती। दोनों के नायक अलग है। दोनों के खलनायक अलग हैं। एक के नायक दूसरे के खलनायक हैं।
आम व्यक्ति ही नहीं, बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, समाज शास्त्री, शिक्षक वर्ग सभी बटे हुये हैं। इसी कारण तब भी किसी को आश्चर्य नहीं होता जब कोविड के टीका को एक पक्ष सही मानता है तो दूसरा पक्ष इसे खतरनाक।
पूछा जाता है कि जब मतदाताओं ने एक दल को बहुमत दी है तथा उन का रुझान धर्म की ओर है तो कोई परिवर्तन क्यों नहीं हो पा रहा। प्रश्न वाजिबी है। इस को थोड़ा विस्तार से समझना हो गा।
इस के दो कारण हैं। एक यह कि संविधान निर्माताओं ने इतने जटिल प्रावधान किये हैं कि उन्हें बदलना टेढ़ी खीर है। अदालतों को जो अधिकार दिये गये हैं तथा जो अधिकार उन्हों ने कमज़ोर शासन के समय में हस्तगत कर लिये हैं, किसी भी सुधार को उसी नज़रिये से देखती हैं जिन का हम ज़िकर कर चुके हैं। उन की शिक्षा दीक्षा भी उसी वातवरण में हुई जो धर्म से विच्छेद को ही सार मानता है। इस के साथ ही अधिकार, वह भी बिना किसी उत्तरदायित्व के, ही महत्वपूर्ण हैं, समस्या का समाधान नहीं। उन का अनेकता में एकता का सिद्धाँत को परखने का नज़रिया वही है जो अन्य बुद्धिजीवियों का है।
इस के साथ ही भारत की एक अन्य कमज़ोरी भी शामिल हो जाती है। यह है अपने अधिकारों की रक्षा तथा उस में वृद्धि के प्रयास। इसी कारण वह इस बात को जायज़ समझते हैं कि कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करते रहें। इस से अहं की तुष्टि तो होती ही है भले ही इस से महामारी से लड़ने में अथवा अन्य किसी पक्ष में कोई सहायता नहीं मिलती। दूसरी ओर जो प्रशासकीय सेवा के अधिकारी हैं (जिन में वैज्ञानिक संस्थाओं में प्रशासकीय पदों पर नियुक्त वैज्ञानिक भी शामिल है), वह भी अपने आरामदेह परिक्षेत्र को छोड़ना नहीं चाहते। उन का प्रशिक्षण भी उसी नैतिकता विरक्त एवं धर्म विरक्त माहौल में हुआ है। अन्ततः राजनैतिक नेतृत्व दिशा निर्देश दे सकता है पर मैदानी कार्य तो उन्हों स्थायी सेवा वालों को करना है जिन की इस में रुचि नहीं है। उन का उसी अलगाववाद में विश्वास है जिस से अन्य बुद्धिजीवी ग्रस्त हैं। उन में परिवर्तन के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है। उन का प्रशिक्षण उन्हीं लोगों के द्वारा हुआ है जो यथस्थितिवाद में विश्वास रखते हैं, जिन का विश्वास है कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश था तथा पाश्चात्य संस्कृति ही उसी उभारने का एक मात्र तरीका है। अन्य कोई भी रास्ता केवल अंधकार की ओर ही ले जाये गा। इसी कारण यदि राजनैतिक निर्देश मिलता भी है तो वे उस को या तो अव्यवहारिक कहते हैं अथवा उस के क्रियान्वयन में विलम्ब करते हैं। उस में उसे थोड़ा तोड़ना मरोड़ना भी शामिल होता है।
समस्या का पर्याप्त विवरण हो गया परन्तु समाधान की बात रह गई। वास्तव में हम रोग को तो जानते हैं पर उस का उपचार सुझाने में डरते हैं। हमारी एक नज़र इस ओर रहती है कि कोई समाधान दूसरों को कैसा लगे गा। वरना देखा जाये तो समाधान स्वयं स्पष्ट है। रोग है धर्म का प्रशासन से विच्छेद और उपचार है प्रशासन में धर्म की स्थापना।
परन्तु यह कार्य प्रशासनिक स्तर से आरम्भ नहीं हो पाये गा। तब तक तो व्यक्ति परिपक्व हो जाता है। इस का आरम्भ शालाओं से ही करना हो गा। यह कार्य स्वतन्त्रता के समय ही आरम्भ हो जाना चाहिये था पर शासकों की इस ओर रुचि नहीं थी। बहुत सारे मौलिक अधिकारों का ज़िकर किया गया किन्तु शिक्षा का नहीं। जब इस को इंगित किया गया तो इसे निर्देशक सिद्धाँतों में शामिल कर दिया गया जो केवल संविधान की शोभा बढ़ाने के लिये ही थे तथा जिन के बारे में कभी गम्भीरता से विचार भी नहीं किया गया। न जाने किस धुन में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मौलिक आधार मानने की बात कह दी तथा सरकार को अनिवार्य शिक्षा अधिनियम लाना पड़ा। पर फिर सर्वोच्च न्यायलय भी दो कदम पीछे हट गया। प्रथमतः कहा गया कि यह अल्पसंख्यक वर्ग पर लागू नहीं हो गा। अलगाववाद को पोषित करने की ओर यह पहला कदम था। फिर कहा गया कि यह प्रावधान आवासीय शालाओं पर लागू नहीं हो गा। यह मालूम था कि यह आवासीय शालायें केवल धनाढय लोगों के लिये हैं। उन के लिये भी अलगाव बहुत आवश्यक माना गया। बात वहीं की वहीं रही। शिक्षा का स्वरूप क्या हो, इस के बारे में ज़िकर ही नहीं किया गया। केवल अनिवार्य शब्द का प्रयोग ही कर्तव्य की इतिश्री मान ली गई।
भाजपा में सत्ता में आने पर पूरे जोश से घोषणा की गई कि नई शिक्षा नीति लाई जाये गी। हर स्तर पर बैठकें हुईं। इन की संख्या लाखां में बताइ्र जाती है उस के बाद समितियाॅं बैठी - एक नहीं, दो दो। समय टलता गया पर आखिर कितना टलता। आखिर प्रतिवेदन आया ओर घोषणा भी हुई। व्यापक प्रचार किया गया पर यथास्थिति बनी रही। न पाठ्यक्रम में परिवर्तन हुआ, न पाठ्स पुस्तकों में। वही अलगाव वाले पाठ पढ़ाये जा रहे हैं।
जब तक शिक्षा में, प्रशिक्षण में अलगाववाद को ही स्थान दिया जाये गा और अनेकता में एकता का सिद्धाँत केवल कोरे कागज़ पर अदृश्य होने वाली स्याही से ही लिखा जाये गा, तब तक परिवर्तन कठिन है। इस के लिये प्रशासनिक व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन करना हो गा। प्रजातन्त्र का वर्तमान स्वरूप भी बदलना हो गा। पूरी विधिक प्रक्रिया को नया रूप देना हो गा। स्पष्ट रूप से घोषित करना हो गा कि भारत एक राष्ट्र है और इस में किसी अलगाव का कोई प्रावधान सहन नहीं किया जाये गा। प्रशासकीय अधिकारी को, न्यायाधीश को अलगाववादी विचार को पूर्णतया त्यागना हो गा। यद्यपि इस के बारे में दुष्प्रचार किया जाये गा किन्तु स्पष्टतः ही एक राष्ट्र होने का अर्थ एक रूपता नहीं है। जिस अनेकता में एकता को हम ने सदैव अपनाया है, स्थापित रखा है, उसे ही मान्यता दी जाये गी। किसी भी आधार पर किसी को अतिरिक्त अधिकार नहीं दिये जायें गे। सब समान हों गे तथा सब के साथ समान न्याय हो गा।
परन्तु यह कहना आसान है, करना कठिन। जैसा कि पूर्व में कहा गया है। शासन से, प्रशासन से इस की आशा करना व्यर्थ है। वे यथास्थितिवाद के पोषक है तथा उन के निश्चेष्ठता को भेद पाना कठिन है। इस को जनता को ही अपनाना हो गा। जिस प्रकार सरस्वती मंदिर स्थापित किये गये हैं, उसी प्रकार अनेकानेक संगठन इस कार्य को करने के लिये सामने लाने हों गे। शालाओं की एक समानान्तर श्रृंखला तैयार करना हो गी जो धर्म को जीवन का अंग मान कर ही विद्यार्जन में अग्रणी रहे गी। स्मरण हो गा कि एक बार सरस्वती मंदिर की परीक्षाओं को पूर्ण मान्यता देने का निर्णय मध्य प्रदेश सरकार ने लिया था। इसे बाद की पंथनिर्पेेक्ष सरकार ने बदल दिया था। वैसी व्यवस्था फिर से लागू की जा सकती है न केवल मध्य प्रदेश में वरन् पूरे देश में।
इस के साथ ही प्रशासकों पर भी लगातार दबाव बनाये रखना हो गा कि वह नीति में धर्म को उस का उचित स्थान दें। अपनी संस्कृति, अपनी विरासत ही हमें पार लगा सकती है। इस के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है। एकता में अनेकता ही सार है।
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