उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार
(पूर्व अ्ंक से निरन्तर)
अब ब्रह्म तथा आत्मा के बारे में उपनिषदवार विस्तारपूर्वक बात की जा सकती है।
बृदनारावाक्य उपनिषद
आत्मा
याज्ञवल्कय तथा अजातशत्रु आत्मा को ब्रह्म के समतुल्य मानते हैं। याज्ञवल्कय का कथन है .
अयम आत्मा ब्रह्म सर्वानुभवः।
यह आत्मा ही ब्रह्म है जो सब बातों का अनुभव करती है।
अजातशत्रु कहते हैं . आत्मा ही सब का प्रथम उद्भव स्थान है। जिस प्रकार मकड़ी अपने भीतर से जाला बनाती है वैसे ही ब्रह्म ने पूरा विश्व बनाया है। गार्गी याज्ञवल्कय संवाद में गार्गी का अंतिम प्रश्न है . ब्रह्म के पूर्व कौन था जिस के उत्तर में याज्ञवल्कय का कहना है कि यह प्रश्न पूछने योग्य नहीं है क्योंकि ब्रह्म के आगे कुछ भी नहीं है।
याज्ञवल्कय कई बार कहते हैं कि ब्रह्म ही आत्मा है। आत्मा न तो छोटी है, न बड़ी, न इस में रस है, न गंध, न दृश्य शक्ति, न अन्य कोई गुण। जो व्यक्ति प्राण को जानता है, वह सब आत्माओं का जान लेता है जिस से यह अंदाज़ लगाया जाता है कि आत्मा सब में एक ही है।
एशः ता आत्मा सर्वतः। आत्मैव अग्र आसित।
आत्मा ही पूर्व में समस्त विश्व थी। आत्मा को अन्तर्यामी भी कहा गया है।
चाण्डोगय उपनिषद
उद्दालक ने अपने पुत्र को पानी में नमक घोल कर दिया और पूछा कि यह किस अंग में नमकीन है। पुत्र ने पाया कि पानी सभी ओर से नमकीन था। उद्दालका ने कहा कि इसी प्रकार आत्मा सभी स्थान पर विद्यमान है।
जैमनिया ब्राह्यण के अनुसार यह सृष्टि यज्ञ का निचौड़ा गया रस है। तथा आत्मा भी इस यज्ञ के प्रताप का निचौड़ ही है। प्रजापति ने पूरी सृष्टि पर गम्भीरता से विचार किया और तीन वेद उस में से आये। उन वेदों पर गहन विचार किया तो भूः, भवः, स्वः आये। जब इन का दोहन किया गया तो ओम का आर्विभाव हुआ। यही बात चाण्डोग्य उपनिषद में आत्मा के बारे में कही गई है। उपनिषद में यह भी बताया गया कि देवताओं ने मृत्यु से बचने के लिये तीनों वेदों की शरण ली। जब मृत्यु ने वहाँ भी देख लिया तो ओम की शरण ली।
चाण्डोगय उपनिषद में ब्रह्म को आकाश के रूप में वर्णन किया गया है। आकाश मनुष्य के भीतर भी है तथा बाहर भी। सामवेद में आकाश को विशेष महत्व दिया गया है क्योंकि संगीत का निवास स्थान ध्वनि में है तथा ध्वनि आकाश में ही स्थित है। पूरे विश्व को ब्रह्यपुर कहा गया है। सभी वस्तुयें विश्व के भीतर ही हैं। इसी बात को चार पशुओं की क्था में भी सत्यकाम को बताया गया है। बैल इसे चारों दिशायें बताता है। अग्नि इसे भूमि, अन्तरिक्ष, आसमान और सागर बताती है। हॅँस उसे अग्नि, सूर्य, चन्द्र तथा विद्युत बताता है। जल पक्षी इसे प्राण, दृष्टि, श्रवण तथा मन बताता है। निहित विचार ब्रह्म को पूरा विश्व दिखाना ही है।
ब्रह्मपुर के साथ ब्रह्मलोक की बात भी आती है। ब्रह्मलोक सीमा रहित है जब कि ब्रह्मपुर सीमित है। ब्रह्मलोक में जाने वाला फिर वापस नही ंआता। इसे मोक्ष के समकक्ष माना जा सकता है।
आत्मा को उपनिषद में दोष, वृद्धता, मृत्यु, दुुख, भूख प्यास से मुक्त बताया गस है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, आत्मा सर्वव्यापी है। आत्मा को मनुष्य के हृदय में स्थित बताया गया है। इस को ब्रह्म ही के समान माना गया है। जब मनुष्य आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तो वह ब्रह्यलोक जाने की पात्रता प्राप्त कर लेता है।
ऐत्रैय उपनिषद
इस उपनिषद में ब्रह्म के बारे में केवल दो स्थान पर नाम आया है। मुख्य ज़ोर आत्मा पर है।
इस उपनिषद में तीन भाग हैं।
प्रथम भाग में आत्मा को इन्द्र के रूप में परिचय कराया गया है। आत्मा को ही सृष्टि का आरम्भ करने वाला बताया गया है।
दूसरे अध्याय में थोड़ा अन्तर आ जाता है। इस में आत्मा के तीन जन्म की बात कही गई है। प्रथम जन्म गर्भ का ठहरना बताया गया है। दूसरा जन्म गर्भ में पल रहे शिशु का है। तीसरा जन्म मृत्यु के बाद का है। इस विवरण में आत्मा को शरीर तथा चेैतन्य दोनों रूप में देखा गया हैै।
तीसरे अध्याय में आत्मा के स्वरूप के बारे में विचार किया गगया है। इस में इसे ब्रह्य, देवता तथा सभी मनुष्य जाति के रूप में देखा गया है।
कौशतिकी उपनिषद
यह तुलनात्मक रूप से कम जाना गया उपनिषद है। इस में आत्मा का विवरण किसी वस्तु अथवा मनुष्य के भीतर मूल तत्व के रूप में किया गया है। इस प्रकार अन्नसयात्मा, तेजस आत्मा, शब्दज्ञसात्मा, सत्यस्यात्मा, चाचात्मा का कहा गया है। मृत्यु उपरात ब्रह्म के साथ वार्तालाप में आत्मा को समस्त वस्तुओ में बताया गया है। इस प्रकार आत्मा को शरीर तथा सर्वस्व के रूप में देखा गया है।
इसी प्रकार ब्रह्म को भी अमूर्त सिद्धाँत तथा पौरानिक के दो रूप में बताया गया है। एक ओर उसे सिंहासन पर बैठे व्यक्ति के रूप में मृत व्यक्ति से बात करते बताया गया है। दूसरे में ब्रह्म को प्राण बताया गया है तथा सब देवताओं को उस के आधीन बताया गया है।
त्रैतीय उपनिषद
इस उपनिषद में दो भाग है जिन में आत्म तथा ब्रह्मका विवरण में अन्तर है।
पहले भाग का नाम शिक्षावली है। इस में ब्रह्म को वायु के रूप में देखा गया है। आकाश ब्रह्म का शरीर है . आकाशाशरीरम् ब्रह्य।
ब्रह्म को उच्चतम सिद्धाँत कहा गया है जो मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है। वह पूर्णत्या शाँत एवं अमृत है।
आत्मा को शिक्षावली में शरीर के रूप में देखा गया है। मनुष्य के चैतन्य को यहाँ पुरुष कहा गया है न कि आत्मा। पुरुष का आत्मा का यह सानिन्ध्य शिक्षावली के अतिरिक्त कठोपनिषद तथा श्वेताशवर उपनिषद में भी आया है। आत्मा को शिक्षावली में सार के रूप में देखा गया जैसे सत्यात्मा . सत्य का सारय पुरुष पवित्र मन्त्र भूः, भवः, स्वः, तथा महत् को जान कर ब्रह्म बन सकता है।
उपनिषद के दूसरे भाग में अन्न को ब्रह्म के रूप में देखा गया है . अहं अन्नम्। यहाँ अन्न ही सब मूल भूत तथा प्राण की भी पहचान है।
दूसरे भाग में आत्म को पाँच कोष के रूप में देखा गया है। अन्न, प्राण, मनस्, विज्ञान, तथा आनन्द इस के कोष हैं। मनुष्य अपनी मृत्यु के पश्चात क्रमशः इन क्षेत्रों में जाये गा।
उपनिषद के तीसरे भाग में ब्रह्म को इन्हीं पंचकोष में दिखाया गया है। इस प्रकार दोनो अध्याय में साम्य दिखाया गया है।
ईशा उपनिषद
इस उपनिषद में ब्रह्म का शब्द नहीं आया है। ईश ही सर्वोच्च सत्ता है। उस का विवरण परस्पर विरोधी गुणों से दिया गया है। वह एक है, विद्या तथा अविद्या से भी परे है, सत् तथा असत् से भी आगे है। इन सब विरोधाभासी गुणों से आगे जा कर ही मनुष्य उसे पा सकता है।
आत्मा के बारे में कहा गया है .
यस्तु सर्वाणि भूान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगप्सते।।
जब व्यति आत्मा के भीतर सब को देखता है तथा सब में आत्मा को देखता है, उस से कुछ छुपा नहीं रहता है।
प्रश्न उपनिषद
इस उपनिषद में पिपलाद द्वारा छह विद्वानों के प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। इन में क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ा जाता है। पहला प्रश्न है कि जीवित प्रणी आता कहाँ से है। दूसरा सब से बड़ा देवता कौन सा है जो मनुष्य का जानना चाहिये। इस का उत्तर प्राण है जो शरीर में पाँच भागों में रहता है। पर प्राण कहाँ से आता है और शरीर में प्रवेश कैसे करता है। इस से आत्मा के विषय में बताया गया है। अगले प्रश्न में ब्रह्म की बात की गई है।
प्राण के साथ रयि की बात भी की गई है। प्राण को सूर्य तथा रयि को चन्द्र कहा गया है। प्राण को जानने से ही आत्मा को जाना जा सकता है तथा आत्मा को जानने से अन्ततः ब्रह्यलोक में जा सकते हैं। प्राण को प्रजापति, इन्द्र, तथा रुद्र भी माना गया है। आत्मा मनुष्य के हृदय में निवास करती है। यह अनश्वर है परन्तु सब कर्मों के लिये है। आत्मा ही अन्ततः पुरुष हैं जिस के सोलह भाग हैं। यह हैं . प्राण, भक्ति, ज, भूमि, आकाश, वायु, अग्नि, पाँच इन्दरियाँ, मन, अन्न, शक्ति, संयम, मन्त्र, यज्ञ, विश्व तथा नाम हैं। इन को जान कर ही अमृत प्राप्त किया जा सकता है।
पुरुष के बारे में कहा गया है
एष हि द्रष्टा स्प्रष्आ श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा
कर्ना विज्ञानात्मा पुरुषः स परेऽक्षर अत्मनि संप्रतिष्ठते।।
देखने वाला, सुनने वाला, स्पर्श करने वाला, सूँधने वाला, स्वाद लेने वाला, जानने वाला, कर्मकरने वाला विज्ञान स्वरूप पुरुष जीवात्मा है। वह ही अविनाशी परमात्मा में स्थित है। वह सोलह कलाओं वाला हमारे ही शरीर में स्थित है
तस्मै स हावाच। इहैवान्तः शरीरे सोम्य स पुरुषो
यस्मिन्नि एताः षोडश कलाः प्रभवन्तीति।।
आत्मा ही अन्तिम रूप से ब्रह्म है। मैत्रीय उपनिषद के अनुरूप इस में भी ब्रह्म के दो रूप माने गये हैं। इस विचार का मैत्रीय उपनिषद में विस्तार किया गया है।
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