उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार
उपनिषद का अर्थ सामान्य तौर पर ‘करीब बैठ कर सुनना’ किया जाता है। किन्तु इस का एक अर्थ नीचे बैठ कर सुनना भी हो सकता है अथवा भीतर की बात सुनना भी हो सकता है। जो भी हो, उपनिषद में मुख्य रूप से ब्रह्म तथा आत्मा के बारे में बात की गई है तथा इन के आपसी सम्बन्ध के बारे में भी बतााया गया है। यहाँ हम कुछ उपनिषदों के तत्सम्बन्धी विचारों की बात करें गे।
वेद में आरम्भ में स्तुतिगाण एवं देवताओं के आवाहन सम्बन्धी ऋचायें इत्यादि हैं परन्तु इस का यह अर्थ नहीं है कि इन में विश्व के बारे में बात नहीं की गई है। सामाजिक सरोकार का भी वेद में उतना ही अंशदान है। इन विचारों को उपनिषदों में और विस्तार से बताया गया है। इन में भारतीय दर्शन का आरम्भ हुआ माना जाता है। यह सही है कि उपनिषदों के विचारों में एक रूपता नहीं है। हर एक ने अपनी तरह से आत्मा तथा ब्रह्म के बारे में विचार व्यक्त किया है। अधिकतर उपनषिद वार्ताललाप के रूप में लिखे गये हैं तथा यह भी सम्भावना है कि एक ही उपनिषद किसी एक समय में नहीं लिखे जा कर किस्तों में लिखे गये हैं जिस से आरम्भिक भाग में तथा बाद के भाग में विचारों में विसंगति भी पायी जाती है। इसे दो तरह से देखा जा सकता है - एक ज्ञान मेवृ द्धि; दूसरे भीतरी समझ में गूढ़ता।
उपनिषद के विचार हमें रोज़मर्रा के जीवन से ऊपर उठ कर सोचने पर मजबूर करते हैं क्योंकि यह उन ऋषियों द्वारा लिखे गये हैं जो विश्व को समझने का प्रयास कर रहे थे, जो अदृश्य के बारे में अपने विचार व्यक्त रहे थे। राधा कृष्णन के अनुसार ज्ञान के लिये ज्ञान की परिकल्पना के बारे में विचार कर रहे थै। एक बात और यह कि उपनिषद के विचार सार्वजनिक प्रसारण के लिये नहीं थे वरन् यह योग्य शिष्य को ही दिये जा सकते थे।
यह उल्लेखनीय है कि वेद की तरह उपनिषद भी श्रुति साहित्य में आते हैं। यह गुरू द्वारा शिष्य को बताया जाता था यदि उसे इस के लिये उपयुक्त माना जाता था। इन में से कुछ ऋषियों के नाम आते हैं पर कई गुमनाम भी हैं। कई नाम अलग अलग उपनिषदों में आते हैं परन्तु यह एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं।
यह समय इस पर विस्तार से जाने का नहीं है। हमारा आश्य केवल उन में आत्मा तथा ब्रह्म के बारे में विचार जानने का है।
बह्म, पुरुष एवं आत्मा
आम तौर पर बताया गया है कि ब्रह्म तथा आत्मा एक ही हैं पर इस में कुछ अन्तर एक से दूसरे उपनिषद में आता है। इस के अतिरिक्त पुरुष का वर्णन भी आता है। पुरुष तथा ब्रह्म का क्या सम्बन्ध है, यह भी विचार किया गया है। बृहदनायक उपनिषद में याज्ञवल्कय इसे सभी का शासक तथा स्वामी बताते हैं। यह हृदय में चावल अथवा जौ के आकार का है।
इस तरह कहीं पर आत्मा तथा पुरुष को एक माना गया है। चण्डोग्य उपनिषद में पुरुष को सूर्य के प्रतिबिम्ब के रूप में बताया गया है जो हर मनुष्य की आँख के भीतर रहता है। इस प्रकार पुरुष एक व्यक्ति भी है तथा लौकिक भी। इस बारे में इन्द्र तथा विरोचन की कथा आती है जिस में विरोचन केवल अपने में ही पुरुष देखता है जब कि इन्द्र उस से संतुष्ट नहीं होता है।
तैत्रिय उपनिषद में पुरुष को सर्वोत्तम सिद्धाँत माना गया है जो प्रत्येक हृदय में रहता है।
कठो उपनिषद में कहा गया है कि द्रव्य से बढ़ा मन है; मन से बड़ी बुद्धि है; बुद्धि से बडी आत्मा है; आत्मा से बडा़ अव्यक्त है। अव्यक्त से बड़ा पुरुष है। पुरुष से बड़ा कोई नहीं है।
इन्द्रिभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
सस्तु परा बुद्धिर्युद्धेरात्मा महान परः।।
मनमहतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।।
तो पुरुष की बात ऋगवेद के काल से ही आती है किन्तु उसे सब से परे मानने का विचार कठोपनिषद से ही शुरू होता है। इस में कहा गया है -
अव्यक्तातु परः पुरुषो व्यापपकोऽलिङ्ग एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति।।
वैसे इसी उपनिषद में यह भी कहा है कि वही पुरुष ही ब्रह्म है।
ब्रह्म का विचार ईशावास्य तथा कठोपनिषद में भी आया है किन्तु इस में उसे एक मूर्त रूप का माना गया है जिस की पूजा की जाना आवश्यक है। बाद के उपनिषदों में उसे निर्गुण उच्चतम सत्ता माना गया है। बुहदवाक्य उपनिषद में याज्ञवल्कय इसे मूल कारण मानता है जिस से सृष्टि का आरम्भ हुआ तथा उस का सृजन किसी ने नहीं किया। वह स्वयंभू है। ऋगवेद में ब्रह्मेक्म् अक्षरम् कहा गया हैं। अक्षर का अर्थ यहाँ न समाप्त होने वाला माना गया है।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने ब्रह्म का अर्थ शक्ति भी लगाया है - शक्ति जो प्रार्थना में निहित है। इसेी का अगला रूप अलौकिक शक्ति भी माना गया है। वहाँ से आदि शक्ति की कल्पना दूर नहीं है।
कर्म तथा पुनर्जन्म
उपनिषदों में दूसरा बड़ा दार्शनिक बिन्दु कर्म की कल्पना है। यह पुनर्जन्म के सिद्धाँत से अभिन्न है। कर्म ही अगले जन्म में साथ रहते हैं। कर्म के कारण ही आगे जन्म होता है। आरम्भ में ब्राह्यण साहित्य में पुनर्मृत्यु की बात आई है। वैदिक धर्म में अंतिम लक्ष्य अमरत्व है। तैत्रीय उपनिषद में मृत्यु पश्चात उस विश्व का सोचा गया है जहाँ खाद्यान्न असीमित है। शुभ कर्म ही इस अन्तहीन खाद्यान्न के स्रोत है। जब यह समाप्त हो जाते हैं तो उस लोक में भी मृत्यु हो जाती है और आत्मा का पुनः इस जगत में लौटना पउ़ता है। यही पुनमृत्यु ही पुनर्जन्म है।
ओम
भारतीय दर्शन में सब से महत्वपूर्ण स्थान ओम का है। इस के बारे में कई बार विचार किया गया हैं। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मानना है कि इस का आरम्भ पुरोहित द्वारा मन्त्र के अन्त में गुनगुनाने की ध्वनि को \ कहा गया क्योंकि उस की आवाज़ वैसी थी। इसे मन्त्र की शक्ति के रूप में देखा गया। समय से यह केवल शक्ति रह गया तथा फिर परम शक्ति। कठोपनिषद में कहा गया कि ‘‘वह शब्द जो सारे वेद प्रकट करते हैं; वह शब्द जिस में सब तप में कहा गया है; वह शब्द संक्षेप में ओम है। तैत्रीय उपनिषद में कहा गया है - ब्रह्म ही ओम है। पूरा विश्व ही ओम है। माण्डूक्योपनिषद में कहा गया है
ओमित्येतदक्षमिदँ सर्वे तरूस्योपव्याख्यानं भूतं भवöविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव।
यच्चान्यत् विकालातीतं तदप्योङ्कार एव।।
ओम यह अक्षर ही सम्पूर्ण जगत उसी का उपाख्यान है। भूत वर्तमान भविष्य तीनों कालों से अतीत कोई तत्व है तो \ है।
एक अन्य विषय सत् तथ असत् के बारे में है। चण्डयोग्य उपनिषद में कहा गया है कि प्रारम्भ में केवल असत् था। इस से सत् की उत्पत्ति हुई। किन्तु इसी उपनिषद में स्वेकेतु को उस के पिती बताते हैं कि सत् की उत्पत्ति असत् से हो ही नहीं सकती। तैत्रिय उपनिषद में भी असत् केां प्रथम कारण बताया गया है। बाद के उपनिषदों में जैसे ईश उपनिषद में कहा गया है कि प्रथम कारण ब्रह्म है जो सत् और असत् से भी परे है। वेदान्त में भी इसे स्वीकार किया गया है।
अब ब्रह्म तथा आत्मा के बारे में उपनिषदवार विस्तारपूर्वक बात की जा सकती है।
(उपरोक्त विचारों का उद्गम स्थान text and authority in the older upnishads -- sigme cohen प्रकाशक brill, lmiden, बोस्टन 2008)
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