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ईश्वर चंद विद्यासागर

ईश्वर चंद विद्यासागर


उन के नाम से तो बहुत समय से परिचित थे। किन्तु उन की विशेष उपलब्धि विधवा विवाह के बारे में ज्ञात थी। इस विषय पर उन्हों ने इतना प्रचार किया कि अन्ततः इस के लिये कानून बनानया गया। इस अंदोलन में उन्होंने संस्कृत के ही प्राचीन ग्रन्थों जैसे परायार संहिता के उदाहरण देकर बताया कि विधवा विवाह कभी भी निषिद्ध नहीं था।.

उन का बहुविवाह पद्धति के विरुद्ध भी प्रचार काफी तीखा रहा यद्यपि इस में उन को सफलता नहीं मिल पाई।

इन सब बातों का ध्यान तो था परन्तु उन्हें विद्यासागर की उपाधि क्यों प्रदान की गई, इस के बारे में विवरण ज्ञात नहीं था। या यूं कहिए कि इस की जानकारी नहीं ली गई थी। आज पश्चिम बंगाल हिन्दी अकादमी द्वारा भेंट की गई एक पुस्तक के अध्ययन में उन की इस विषय में रुचि का पता चला।

अन्य सुधारकों की तरह ईश्वरचंद्र विद्यासागर भी इस मत के थे कि बिना साक्षरता के तथा शिक्षा के प्रगति संभव नहीं है।

ईश्वर सागर जी ने कोई बोझल दर्शन की पुस्तकें नहीं लिखीं, न ही उन्हों ने उत्तेजना पूर्ण भाषण दिए बल्कि वे एक गंभीर कार्यकर्ता की तरह धरातल पर काम करते रहे। उस समय एक ओर शिक्षा की प्राचीन पद्धति थी और दूसरी ओर अंग्रेजी शासन द्वारा नई पद्धति से शिक्षा देने का आयोजन था। अंग्रेजी शासन ने ज़िला स्तर पर की शालाओं पर भी कब्जा कर लिया था। इस पद्धति का एकमात्र उद्देश्य था कि बच्चे अंग्रेजी पढ़ कर सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकें।

विद्यासागरजी का मत था कि केवल अंग्रेजी पढ़ कर बच्चे इस योग्य नहीं हो पा रहे है कि वे अपनी बात की अभिव्यक्ति कर सकें। उन का मानना था कि शिक्षित बांग्लाभाषी को अभिव्यक्ति का माध्यम बंगाली ही रखना चाहिए। चूॅंकि बंगला भाषा इतनी विकसित भाषा नहीं थी इसलिए उनका विचार था कि संस्कृत का अध्ययन भी किया जाना चाहिए। वह अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ़ नहीं थे।

इस योजना को आगे बढ़ाने के लिए विद्या सागर ने संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथों और बंगला में स्तरीय पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन का काम आरंभ किया। इस प्रयोजन से उन्हों ने 1847 में संस्कृत प्रेस और पुस्तकों के विक्रय के लिए संस्कृत प्रैस डिपाजिटरी नामक संस्था स्थापित की। इन में संस्कृत शास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त इस प्रकार की पुस्तकों की भी प्रस्तुति हुई थी जो व्यक्ति को प्राथमिक स्तर से ले कर उच्च स्तर तक भाषा पर अधिकार प्राप्त करने तक ले जाती थी। उन्हों ने दो संस्कृत व्याकरण भी लिखें जो आज भी प्रचलित हैं। संस्कृत काव्य में मेघदूत, कुमारसम्भव, कादम्बरी, हर्षचरितम, उत्तररामचरितम, किरातार्जुनीय, और शिशुपालवध का प्रकाशन भी किया। बंगाली में हुए गद्य के सृष्टा बने। वैसे तो गद्य की शुरुआत तो पहले हो चुकी थी परंतु उस में लावान्य उन्हीं के प्रयास से आया।

1855 में उन्होंने वर्ण परिचय नाम से पुस्तक प्रकाशित की जिसमे सरल तरीके से वर्ण समूह का परिचय दिया गया था। इसी के बाद कुछ ऊंचे स्तर पर वर्ण परिचय भाग दो का प्रकाशन हुआ। ज्ञानवर्धन के क्षेत्र की पहल की गयी तो नैतिक ज्ञान प्रदान करने का प्रयोग भी किया गया। आदर्श चरित्रों के विवरण से नैतिक मूल्यों का विकास करने के लिए आख्यानमंजरी, बेतालपंचविशंति, शुकन्तला, सीतारबनवास की रचना की। उन्हों ने शेक्सपियर के एक नाटक कामेडी आफ एरर का बंगला में अनुवाद भी किया जिसे भ्रांति विलास के नाम से प्रकाशित किया गया।

ईश्वर सागर जी का एक मिशन यह था कि प्रदेश में उन की शालाओं की एक श्रृंखला बनाई जाये परन्तु सरकारी अनिच्छा के कारण ऐसा नहीं हो सका। फिर भी दो अपवाद रहे। 1864 में कलकत्ता ट्रेनिंग स्कूल का सचिव रूप में प्रभार सम्भाला तथा इस का नाम रखा हिन्दु मैेट्रोपोलिटिन स्कूल। एक और विद्यालय बेथून बालिका विद्यालय है। उन्हों ने शिक्षकों के अवैतनिक होने के स्थान पर उन्हें एक रुपया प्रति मास देने का नियम लागू किया।

कुल मिलाकर विद्यासागर जी ने शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रयोग किया है वे न केवल सराहनीय थे बल्कि अनुकरणीय भी हैं।


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