do not remember on what provocation, i wrote this poem but it is quite depressing.
इंतज़ार
यूँ तो पहली बार नहीं आया हूँ मैं इस नगर में
पाँच बार पड़ाव भी डाल चुका हूँ यहाँ अपने सफर में
पर पहली बार मुझे अहसास हुआ यह शहर मेरा नहीं
मैं इस का नहीं बन सकता यह मेरा स्थायी डेरा नहीं
यूँ तो माना जाता हूँ एक अहम शख़्स किसी बात में
चल रहा है हकूमत का कुछ हिस्सा अपने ही नाम से
पर मुशिकल है इस शहर में मुझे आज डूँढ पाना
कहाँ हूँ मुझ को भी नहीं खबर न पता है न ठिकाना
हज़ारों उम्मीदवारों में मैं भी इक आस लगाये बैठा हूँ
वीराने में परेशान से माहौल में दीप जलाये बैठा हू।
आते हैं काफिले चले जाते हैं मुझे छोड़ जाते हैं
हर इन्सान के पुरमज़ाज़ ताने मेरी हिम्मत तोड़ जाते हैं
राहे हक में कब किस ने किस की फरियाद सुनी है
नक्कारखाने में किस ने भला तूती की आवाज़ सुनी है
पार कर चुकी है हद पस्ती यहाँ पर बदनिज़ामी भी
इन्तहा हो चुकी है बे शरमी, बेहयाई, बदज़बानी की
अब कोई दिल जला कर भी मिटा सकता नहीं अंधेरा
छोड़ दो उम्मीद-ए-सहर अब न आये गा सवेरा
(14.7.85)
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