आज कल इतिहास के भगवाकरण की बात हो रही है तथा इस से तथाकथित इतिहासकारों को बहुत कष्ट हो रहा है। उन को डर है कि उन के किये कराये पर पानी फिर जाये गा। वैसे इतिहास को कौन अपने पक्ष में बदलने का प्रयास नहीं करता। यह केवल इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं होता बरन् सभी उपलब्ध साधनों से इसे किया जाता है। आज एक उपन्यास की बात आप के समक्ष प्रस्तुत है। लेखक है कुर्रा अल्हीन हैदर। पुस्तक है 'कारे जहां दराज़ है'। बात शुरू होती है 11 मई 1857 से।
''मनका मीर अहमद तरन्दी इब्न हज़रत अखोंद इमाम बख्श तरन्दी नहटोरी मेरठ छावनी में तैनात था। जब कमान अफसर ने हुक्म दांतों से कारतूस काटने का दिया। सिपाहियों ने इंकार किया। बगावत शुरू हुई। कुछ देर बाद इतफाकिया तोपखाना का खलासी लेन में से गुज़रा और बोला आज परेड के मैदान में न ठहरना, हमें हुक्म मिल चुका है कि बागियों को तोप से उड़ा दें।
दूसरे रोज़ एक सूबेदार ने अंग्रेज़ अफसर से चुगली खाई। फलां फलां मुफसदीन हैं, इन को कैद कीजिये। कमान अफसर ने 70 सवारों को जेल में डाल दिया। बाद अज़ां इन को मैदान में लाये। पाबजोलां बाज़ार से गुज़ारा। बालाखानों पर से अरबाब निशात ने गैरत दिलाई कि चूडि़यां पहन लो।
दूसरे दिन 15 माह रमज़ान अल्मुबारक बाद नमाज़ ज़हर इस रसाले के सिपाही मसलह हो कर छावनी पहुंचे। बंगलों में आग लगाई। शदीद नुकसान जान व माल फिरंगी् हुआ।
हम भी इस महरके में शरीक थे क्यों कि दीन खतरे में था।
आधी रात को दिल्ली मार्च किया। 16 तारीख माह रमज़ान मुताबिक 11 मर्ह हमारें एक सवार ने सुमन बुरज के झरोंके के नीचे पहुॅंच कर मीर फतह अली खां दारोगा तख्त शाही से बात करना चाही। मीर साहब इस वक्त किनार जुमना असरी दरवाज़े के सामने नमाज़ पढ़ते थे। सलाम फेर कर उन्हों ने इस्तफुसार किया - क्या काम है। सवार ने कहा फौज लाया हूं। फौरन जहां पनाह से अरज़ कीजिये कि हम ने साहबान का मेरठ में क्त्ल किया, अब इस इरादे से दिल्ली आये हैं।
बाद इस के जो कुछ हुआ, सारे आलम को मालूम है।
हम इस महरके में जा बजा लड़े। बाढ़ बंदूक की, गरार तोप का हर सू पड़ने लगा। हमने अपाने मोरिस आली के फरज़न्द मलिक इब्राहिम निशांची लश्कर शहाबुदीन मोहम्मद गोरी को याद किया और नारा तकबीर ओर नारा हैदरी बुलन्द कर के दुश्मनों पर जा पड़ें। मतहद फिरंगियों को तलवार के घाट उतारा।
(बेचारे मंगल पाण्डे तो रह ही गये)
किस्सा बजनोर का
....... जो रईसान जि़ला हकूमत की कुमक को बुलाये गये थे, इन में चौधरी रंधीर सिंह, रईस हलदोर, और चौधरी प्रताप सिंह ताजपुर मह सिपाहियों के अहाता कोठी कलैक्टर साहब में मुकीम हो गये।
....... शेरकोट की दूसरी लड़ाई में अहमद अलाह की सपाह मगलूब हुई। इस के बाद हलदोर के चौधरियों ने बिजनोर पर चढ़ाई कर दी। चौधरियों ने कलैक्टर की कोठी पर कब्ज़ा कर लिया। गंवारों ने खूब सिविल लाईन्स की कोठियां लूटीं।
अब डोंडी पिटी - खलक खुदा की, मुल्क् बादशाह का, हुक्म चौधरी नैन सिंह बिजनोर वाले और हल्दोर के चौधरियों का। हिन्दु मुसलमानों ने एक दूसरे के मौहल्ले लूटने शुरू किये। महज़बी अदावत का जो बीज शेरकोट में बोया गया था बहुत बुलन्द हो गया।
तो यह हाल है तथाकथित पहले स्वतन्त्रता संग्राम का, इस लेखक की नज़र में। कहां गई मंगल पाण्डे और संयुक्त अभियान की बातें। पूरा लेख लिखना कठिन है पर एक नमूना पेश है। वैसे पूरा मज़मून ही इसी प्रकार का है।
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