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इंतज़ार

  • kewal sethi
  • Oct 5, 2022
  • 3 min read

इंतज़ार


वह कालेज में व्याख्याता था और वह तृतीय वर्ष की छात्रा।

कक्षा के बाद भी वह बैठता था ताकि छात्र उस से किसी प्रश्न के बारे में सहायता ले सकें। केवल कक्षा में ही पढ़ा देना उस के लिये काफी नहीं था। सहायता लेने वालों में वह भी थी। पर वह भेंट तो सब के लिये बराबर थी। मुश्किल तब हुई जब वह कक्षा के बाहर भी मिलने लगी। पर मुश्किल क्यों, यह तो अच्छी बात थी।

फिर परीक्षा आ गई। तैयारी के लिये अवकाश, फिर परीक्षा, फिर परिणाम का इंतज़ार। मिलने का कोई अवसर नहीं था।

उधर उस की अस्थायी नियुक्ति को स्थायी नहीं किया गया और उसे दूसरी जगह डूॅंढना पड़ी। व्याख्याता तो फिर बन गये पर दूसरे शहर में। पास में ही था, इस कारण आना जाना लगा ही रहता था।

एक दिन वह बस स्टाप पर दिख गई। कनाट प्लेस में, बस की प्रतीक्षा में। मौका मिला। नमस्ते हुई और कुछ बात चीत और फिर बस आ गई। अगली बार जब वह आया तो उसी समय उसी बस स्टाप पर पहुॅंच गया। किस्मत साथ थी, फिर मुलाकात हुई और यह सिलसिला चल पड़ा।

फिर व्यवधान आ गया। वह कई महीनों तक आ नहीं पाया। एकाध बार आया तो बात नहीं बनी। शायद कालेज बदल लिया हो। वह कालेज पास में हो या दूसरे रास्ते पर।

परन्तु एक बार फिर किस्मत ने साथ दिया और वह दिख गई। इस बार उस ने जोखिम नहीं उठाया। जब बस आई तो वह भी बस में सवार हो गया। कण्डक्टर ने पूछा - कहॉं का? समझ नहीं पाया, क्या कहे। उस के पास तो शायद पास था। उस ने ही कहा - एण्ड्रयू गंज और उस ने वही दौहरा दिया। एण्ड्रयू गंज आया और वह उतर गया पर वह नहीं उतरी। शायद उसे आगे जाना था। बस मालवीय नगर तक थी। निराश लौटना पड़ा।

चार वर्ष गुज़र गये। अता पता था नहीं। क्या कर सकता था। पर एक बार कनाट प्लेस में एक दुकान में मुलाकात हो गई। साथ में एक बच्ची भी थी। तीन एक साल की हो गी। शिकायत तो लाज़िमी थी।

‘उस दिन बड़ा धोका दिया। एण्ड्रयू गंज कह कर उतरवा दिया’।

‘और क्या करती, साथ घर ले जाती?

‘तुम मुझे अपने घर ले जाती, मैं तुम्हें अपने घर ले आता।’

‘मेरी शादी तय हो गई थी।’

‘वह तो ज़ाहिर है। पर पति साथ नहीं हैं। क्या बात है?’

वह एक दम उदास हो गई। लगा कुछ चुभती बात कह दी उस ने। कौन जाने किस के घर की क्या स्थिति है।

थोड़ी देर में सम्भल कर उस ने कहा, ‘वह पिछले साल हमारे स्कूटर का एक्सीडैण्ट हो गया था। मैं तो बच गई पर .....’

‘सारी, मुझे नहीं पता था’

‘पता भी कैसे होता। खैर, तुम्हारी श्रीमती कहॉं हैं, कैसी हैं’

‘अभी तो कोई है ही नही। कहॉं है, क्या पता’।

‘क्यों’

‘अभी तो इंतज़ार कर रहा था कि कोई अच्छी मनपसंद मिल जाये तो! खैर, मालवीय नगर कैसा है’।

‘मैं अब मालवीय नगर में नहीं हूूॅं, साकेत में हूॅं’।

‘साकेत क्या किसी बंगले का नाम है, पूछूॅं तो मिल जाये गा’।

‘ओह! तो तुम्हें घर का नम्बर भी चाहिये। जे 16’

‘थैंक्स’

‘अच्छा चलती हूॅं। जब इंतज़ार खतम हो जाये तो बताना’।

इंतज़ार? अब कैसा इंतज़ार, अब तो घर का नम्बर भी मालूम हो गया’।


(निवेदन - भोपाल में साहित्य सम्मेलन में जया आर्य और कान्ता राय ने अपनी कृतियॉं भेंट में दीं। दोनों लघु कथा की विशेषज्ञ हैं। कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा इनाम मिल चुके हैं। उन्हों ने कहा कि मैं भी लघु कथा पर प्रयोग करूॅं। उन के कहने पर यह पहली लघु कथा प्रस्तुत है। कृप्या इसे अवश्स पसन्द करें ताकि मेरा उत्साह बना रहे।)



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