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आगे ही ओर

kewal sethi

आगे ही ओर


रुक कर ठहर कर धीरे धीरे बढ़ता समय आगे को

ज्यों तारों का समूहदल धरा पर देख किसी बादल को

आज बादल का वेग है न शान भरा न गुमान भरा

आंखों की भांति ही है आज सूखा उद्यान धरा का

आंखें भी हैं कुछ सूनी सूनी, ओज नहीं वह तेज नहीं

ज्यों अग्नि के हदय में आज आशा का तेल नहीं

आशा भी है ढिलमिल ढिलमिल ज्यों हो थकी थकी सी

ज्यों दीपक की बत्ती हो शाम को ही बुझी बुझी सी

और शाम आज उदास है जैसे कुछ खो गया हो

जैसे इक जीवन साथी रस्ते में ही छोड़ गया हो

रास्ता भी है आज कुछ अकेला सा जैसे मंजि़ल भूल गई हो

जैसे प्रीतम में खोई अभिसारिका आंचल संवारना भूल गई हो

और आंचल भी है कुछ ठहरा हुआ कुछ सहमा हुआ

जैसे इक दीवाना आज अचानक होश में आ गया हो

और होश तो रूप के सामने है घबराया हुआ

जैसे देख ताप जलते हदय का सूरज हो शरमाया हुआ

(होशंगाबाद 1964)


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