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kewal sethi

अंजाना टापू

Updated: Aug 23, 2020

story for the children, er grand children (maybe great grand children) written in seventies (not my seventies, seventies of the last century).


अंजाना टापू

भाग एक

किसी समय में एक राजा था। उस की दो रानियां थी लेकिन उस की कोई संतान नहीं थी। इस कारण वह बहुत उदास रहा करता था। एक दिन शिकार खेलते खेलते राजा एक जंगल में जा निकला। उस समय उस के साथ कोई नहीं था। जंगल में एक आश्रम था यहां पर एक महान तपस्वी रहता था। राजा घूमते घूमते उसी आश्रम में जा पहुंचा। स्वामी जी उस समय समाधि में थे। उन के चेहरे से अपूर्व छटा बरस रही थी। राजा एक टक वही खड़ा रह गया। वे थोड़ी देर खड़ा रहा या ज्यादा देर, यह तो नहीं मालूम लेकिन जब स्वामी जी की समाधि पूरी हुई तो राजा उसी प्रकार हाथ जोड़े खड़ा था।


स्वामी जी ने उसे इस प्रकार खड़ा देख कर कहा, ‘हे राजा, तेरी उदासी का क्या कारण है। इस का हल तो निकाला जा सकता है। तू अपनी चिंता के बारे में बता’।


राजा ने हाथ जोड़े हुये अर्ज़ की।” स्वामी जी, आप सब जानते हैं। मैं संतान के अभाव के दुख से परेशान हूं”।

स्वामी जी मुस्कुराये। उन्होंने अपने झोले में से एक सेब निकाल कर कहा,” इसे ले जा कर अपनी रानी को खाने को देना। इस के प्रताप से तुम्हारी संतान होगी”।


राजा खुशी-खुशी स्वामी जी को प्रणाम कर घर लौटा। लेकिन घर पहुंचते ही उसे फिर चिंता ने घेर लिया। वह यह नहीं तय कर पा रहा था कि सेब किस रानी को खाने के लिये दिया जाये। दोनों रानियां उसे एक समान प्रिय थीं। वह दोनों आपस में भी एक दूसरे को प्रेम करती थी। उन में से किसी को भी सेब दिया जाता तो वह एक दूसरे को सेव खाने को दे देती। राजा यह सब सोचता हुआ अपने सिंहासन पर बैठा था। वह किसी से इस बारे में पूछना भी नहीं चाहता था। जब वह सिंहासन पर बैठा था तो पंखा झलती हुई दासी अचानक पूछ बैठी ''इस परेशानी का क्या कारण है,महाराज''। राजा ने सोचा कि इसी से समस्या का समाधान कराया जाये लेकिन वह साफ-साफ पूछना भी नहीं चाहता था ताकि बात रानियों तक ना पहुंचे। इस लिये उस ने कहा, “ मेरे पास एक व्यक्ति आया था। उस की एक समस्या है। उस के दो लड़के हैं पर उस के पास एक ही मकान है। वह तय नहीं कर पा रहा है कि मकान किसे दे। दोनों लड़के उसे बराबर बराबर प्रिय है। वह मेरे द्वारा इस समस्या का उत्तर चाहता है। यही मैं सोच रहा हूं।” दासी ने सहज भाव से कहा, ’ इस में क्या बड़ी बात है। मकान आधा आधा बांटा जा सकता है।’


राजा को बात लग गई। उस ने आधा आधा सेब दोनों रानियों को खिला दिया। समय पा कर दोनों रानियों की संतान हुई। पर यह क्या। बड़ी रानी की संतान के सिर्फ दाहिना हाथ, दाहिना पैर, दाहिनी आंख, दाहिना कान अर्थात पूरे शरीर का आधा दायां भाग था। छोटी रानी की संतान का सिर्फ बाया हाथ, बायां पैर, बाईं आंख, बायां कान अर्थात पूरे शरीर का बायां भाग का। दोनों भाग ऐसे थे कि मिला दे तो एक सुंदर सी गुड़िया तैयार हो जाये। अब राजा को पता चला कि मकान तो आधा आधा बांटा जा सकता है पर शरीर नहीं।


भाग 2

राजा उसी समय भागता हुआ स्वामी जी के पास पहुंचा। स्वामी जी उसी समय समाधि से उठे थे। राजा ने अपनी विपदा बताई।


सुन कर स्वामी जी बोले, “राजन, जो हो गया है, उसे लौटाया नहीं जा सकता। पर तुम्हारा विचार उत्तम था, इस लिये मैं यह भस्म देता हूं। इसे दोनों भागों पर छिड़क देना। दोनों भाग अपने-अपने स्थान पर समय के अनुसार बढ़ें गे। समय आने पर कोई हल निकल आये गा”।


राजा ने कहा,” मुझे इस का हल बताइये। मैं उसे हर हाल में पूरा करूं गा”।

स्वामी जी ने कहा,” राजन, इस में जल्दी नहीं हो सकती। सुनो, हल मैं बता सकता हूं पर समय आने पर ही यह पूरा हो गा। यहां से हज़ार योजन पूर्व में सागर के बीच एक टापू है। रास्ता भयानक है। जंगल पहाड़ लांगने हो गे।“

राजा ने कहा,” यह तो मैं कर सकता हूं”।

स्वामी जी बोले, “ ठहरों, किनारे और टापू के बीच के सागर में दो जल मगर रहते हैं। प्रत्येक का बल 7 हाथियों के बराबर है।”।

राजा ने कहा,” मुझे इस की परवाह नहीं। मेरी सैना में बहुत से वीर हैं। उन पर विजय पाने में मेरी सहायता करें गे”।

स्वामी जी बोले, “ठहरो, उस टापू पर एक पहाड़ है। उस पहाड़ के शिखर पर एक किला है। रास्ता कठोर है। घना जंगल है। “

राजा ने कहा “ परवाह नहीं, मुझे अपने व्यक्तियों पर भरोसा है। कठिन से कठिन जगह पर उन्हों ने रास्ता बना लिया है। वे मेरे साथ हों गे। हम किले पर पहुंच जाएं गे।”

स्वामी जी बोले, ''ठहरो, उस जंगल में चार राक्षस रहते हैं। उन के दो दो सिर हैं और चार चार हाथ।’

राजा इस भी नहीं डरा नहीं। वह राक्षसों से निबटने के लिये तैयार था।

स्वामी जी फिर बोले, ”उस किले में एक आंगन है। आंगन के बीच में एक पिंजरा है। उस पिंजरे में एक तोता है। उस आंगन में आठ चुड़ेलें उस पिंजरे की रक्षा कर रही है। उन में हर एक के चार चार सर है और आठ आठ हाथ। लेकिन एक समय में एक सर ओर दो हाथ ही दिख सकते है, ।


राजा सोचने लगा। कौन हो गा उस की सेना में जो इन चुड़ेलों से निपट सके गा। उसे कोई आदमी ऐसा नजर ना आया। लेकिन उस को अपने आप पर भरोसा था।

उस ने कहा,” कोई बात नहीं, मैं खुद ही उन चारों राक्षसों से और आठ चुड़ेलों से निपट लूं गा पर संतान के सुख से वंचित नहीं रहूं गा”।


स्वामी जी फिर बोले, ” राजन, पूरी बात सुनो। उस पिंजड़े में तोता है। उस तोते के पेट में वह मणी है। पीस कर पानी में घोल कर उस घोल को दोनों भागों को मिलाकर छिकड़ने से दोनों भाग एक हो जाएंगे। लेकिन सावधान उस तोते के शरीर को वही हाथ लगा सकता है जो पवित्र हो और जिस ने कोई बुरा काम ना किया हो।”


स्वामी जी को धन्यवाद देकर राजा लौट आया। सब से पहले आते ही उस ने भस्म को दोनों भागों पर छिड़का। फिर सभी सरदारों को बुलाया। सब को स्वामी जी द्वारा बताया गया समस्या का समाधान बताया कि मणी को लाना है। यह मणी पूर्व में सागर के बीच टापू के बीच में बने किले में रखे तोते के पेट में है। मणी को लाने से दोनों भाग एक हो सकते हैं। यह सुन कर बहुत से लोग एक दम जाने को तैयार हो गये। फिर राजा ने समुन्दर में जल मगरों की बात की। उसे सुन कर कुछ लोग हट गये। फिर राजा ने राक्षसों के बारे में बताया। कई ओर लोग यह सुन कर हट गये। जब राजा ने चुड़ेलों के बारे में बताया तो बहुत से लोग दूर हो गये। फिर जब तोते को हाथ लगाने की कठिनाई के बारे में बताया तो एक भी व्यक्ति वहां पर नहीं बचा। यह देख कर राजा बहुत उदास हुआ। उस ने पूरे राज्य में मुनादी करा दी कि जो भी इस कार्य को पूरा करे गा, उस का विवाह राजकुमारी से किया जाये गा। घोषणा का ब्यौरा पढ़ते-पढ़ते सब पीछे हट जाते।


दिनों के सप्ताह बने। सप्ताहों के महीने और महीनों के वर्ष पर कोई व्यक्ति वहां जाने को तैयार नहीं हुआ। दोनों भाग धीरे-धीरे बड़े होते गये। दोनों भागों को मिलाने पर एक अति सुंदर कन्या का रूप दिखाई देता। उन के होंट हिलते से लगते जैसे कुछ कहना चाहते हो। पर ये ख्याल ही रह जाता।


धीरे धीरे अठारह साल बीत गये। बीच में एक दो व्यक्ति आये और मणी की तलाश में निकले लेकिन फिर उन का कुछ पता नहीं चला। आखिर एक दिन एक सुन्दर सा लड़का आया जिस ने यह कार्य करने का इरादा ज़ाहिर किया। राजा के मन में उस के प्रति हमदर्दी पैदा हुई। उस ने उसे जाने से मना किया पर वह युवक ना माना। राजा से सब समाचार ले कर और उन को प्रणाम कर वह चल पड़ा।

भाग तीन

वह लड़का, जिस का नाम सिंदी था, वहां से निकलकर पूर्व की ओर ना चलकर उत्तर की दिशा में चल पड़ा। चलते चलते वह उसी जंगल में पहुंचा जहां स्वामी जी रहते थे। उन का आश्रम खोज कर वे उन से मिलने गया। प्रणाम कर अपने बारे में बताया। स्वामी जी ने कहा, “ तुम छोटे बालक हो। रास्ता कठिन है। कठिनाइयां बहुत हैं। तुम्हें यह काम नहीं करना चाहिये”।


पर सिंदी अडिग रहा। स्वामी जी ने फिर कहा,” तुम मेरे पास क्यों आये हो। तुम्हें तो पूर्व की दिशा में जाना चाहिये था”।

सिंदी ने कहा,’आप के प्रताप से राजा को यह संतान प्राप्त हुई है। आप ने ही इस समस्या का हल बताया है। मुझे विश्वास है कि आप के प्रताप से ही मैं सफल हो सकूंगा। इसलिये मैं आप का आशीर्वाद प्राप्त करने आया हूं”।

स्वामी जी सिंदी के अडिग हौसले और उस की भावना को देख कर प्रसन्न हो गये।


उन्हों ने कहा,” मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम अपने कार्य में सफल हो। लेकिन केवल आशीर्वाद से ही तुम्हें सफलता मिलना कठिन है। मैं तुम्हें यह थैली देता हूं। इस में चावल है। रास्ता लंबा है। खाने के लिये कुछ नहीं मिले गा। यह चावल तुम्हारे काम आएं गे। लेकिन थैली के चावल इस प्रकार के हैं कि वह समाप्त नहीं हों गे। परन्तु तुम्हें एक समय में एक मुट्ठी चावल ही निकालना हों गे। ऐसा करो गे तो थैली फिर से भर जाये गी। पर यदि तुम ने सभी चावल निकाल लिये तो थैली खाली ही रहे गी। लेकिन याद रखो यह थैली तब तक तुम्हारा साथ देगी जब तक तुम इसका अच्छा प्रयोग करो गे”।


सिंदी थैली ले कर और आशीर्वाद ले कर चल पड़ा। चला चल चला चल कई पड़ाव उस ने तय किये। थैली के कारण उसे खाने पीने की कोई तकलीफ नहीं हुई। एक दिन चलते चलते एक स्थान पर शाम हो गई। वह चावल निकाल कर पकाने को भिगोने लगा। वहां पर एक बूढ़ा आदमी आ गया। उस ने कहा,” मैं बहुत भूखा हूं। दो दिन से मुझे खाने को कुछ नहीं मिला। तुम्हारे पास चावल हैं। शायद कुछ चावल मुझे दे सकते हो।”

सिंदी ने कहा,” क्यों नहीं। आओ बैठो। अभी चावल पकें गे और हम मिल कर खायें गे”। लेकिन बूढ़े ने कहा कि चावल तो एक मुट्ठी ही है, इस में दोनों कहॉं पेट भर सकें गे। सिंदी ने थैली में से एक मुठृठी और चावल निकाल कर दिखाएं। बूढ़ा कहने लगा,” यह थैली तो फिर से भर गई है। चमत्कारी मालूम होती है। मेरे गांव में अकाल पड़ा हुआ है। उस में तीन चार सौ लोग हैं लोग भूखे मर रहे हैं। मैं उन का सरदार था इसलिये मेरे पास अभी तक कुछ खाना बचा हुआ था लेकिन दूसरों की हालत तो और भी खराब है। मुझे यह थैली दे दो तो मैं बदले में तुम को मुंह मांगा धन दूॅं गा।”

लेकिन ज़िंदी जानता था कि यह थैली का सही उपयोग नहीं हो गा। उस ने इंकार कर दिया। बुढ़े ने कहा,” अगर रास्ते में खाने में चिंता हो तो मैं इस में से ढेर सारे चावल तुम्हारे साथ कर दूं गा पॉंच सात आदमी भी तुम्हारे साथ कर दूंगा। वे तुम्हारा सामान भी उठा लेंगे और तुम्हारी रक्षा भी करेंगे। “


सिंदी ने कहा,” यह बात नहीं। मुझे अकेले में डर नहीं है लेकिन यह थैली देना मेरे लिये संभव नहीं है”।

बूढ़े ने कहा,” लेकिन तुम यह तो सोचो कि 400 लोग भूखे हैं। क्या तुम्हारा यह कर्तव्य नहीं है कि तुम उन की सहायता करो।”

सिंदी ने कहा,” मुझे इस से इंकार नहीं है। मैं भरपूर सहायता करूंगा। चलो मैं आप के साथ चलता हूं क्योंकि यह अच्छा नहीं है कि हम यहां बैठ कर खायें और दूसरे लोग भूखे रहे।’

बुढ़े के साथ सिंदी उसी समय चल दिया। बुड्ढा उसे अपने गांव में ले गया। सिंदी ने अपनी थैली से मुट्ठी भर भर कर चावल निकालने शुरू कर दिये। ढेर लगने लगा।

बूढ़े ने कहा,” अरे भाई, इस में तो तुम्हें बड़ी देर लगे गी। कब तक ऐसे लगे रहो गे। थैली को क्यों नहीं उलट देते। सारे चावल बाहर आ जाएं गे। ऐसा करते हैं कि किसी ऊंची जगह खड़े होकर चावल निकालना शुरू करते हैं ताकि देर न लगे और ढेर सारा इकट्ठा होता जाये। और आप अपने रास्ते पर जा सको”।

लेकिन सिंदी को पता था कि थैली को उलटना नहीं है। उस ने कहा,” मुझे समय की चिंता नहीं। वह काम तो बाद में भी हो जाये गा। पहले आप लोगों की सहायता करना जरूरी है।”


अचानक सिंदी ने देखा, न वहॉं पर बुड्ढा था, न कोई गांव, न कोई आदमी। स्वामी जी सामने खड़े मुस्कुरा रहे थे। उन्हों ने कहा,’ सिंदी, तुम इरादे के पक्के हो लेकिन साथ ही साथ रहमदिल भी हो। तुम्हारे कर्म मुझे अच्छे लगे। मैं फिर अपना आशीर्वाद तुम को देता हूं। साथ ही यह छड़ी भी देता हूं। यह छड़ी तुम्हारे बहुत काम आये गी। जब तुम इसे कहो गे 'बढ़' तो यह लंबा होना शुरू हो जाये गी। और जब तुम 'रुक' कहो गे तो यह बढ़ना रुक जायेगा और जब 'कम' कहा गे तो यह छोटा होना शुरू हो जाये गी और इसी लंबाई की हो जायेगी जितनी अभी है। अगर तुम चाहो यह सब काम जल्दी जल्दी से हो जाये तो तुम को 'जल्दी बढ़' और 'जल्दी कम' कहना होगा। साथ ही तुम ने इसे ऊपर से सिरे पर तुम ने इसे पकड़ा हो गा तो तुम उसी से ऊपर हो जाओगे इसलिये ज़मीन पर टिका कर यह सब काम करना’।

सिंदी ने स्वामी जी को धन्यवाद दिया और फिर अपने रास्ते पर चल पड़ा।


चला चल, चला चल रास्ते में कई पड़ाव तय करता सिंदी के रास्ते में नदी आ जाने पर छड़ी को जमीन पर टिका कर कहा 'बढ़'। छड़ी बढ़ने लगी और उस के सहारे वह आगे बढ़ने लगा दूसरे सिरे पर पहुंच कर सिंदी कहता रुक। छड़ी रुक जाती। सिंदी नीचे उतर कर कहता कम और छड़ी अपनी पहली हालत में आ जाती। इसी प्रकार कई मंजिलें तय होने लगती।


एक दिन चलते चलते उसे रास्ते में एक चिड़िया दिखाई दी। चिड़िया के बच्चे को एक बाज़ उठा कर ले जा रहा था। चिड़िया ज़ोर जोर से मदद के लिये पुकार रही थी। सिंदी उस समय खाना खा रहा था। चिड़िया की पुकार सुनकर एकदम उठा। जल्दी से अपनी थैली से छड़ी निकाली और कहा 'जल्दी बढ़'। छडत्री एक दम बढ़ने लगी। जैसे ही सिंदी बाज़ के पास पहुंचा, उस ने रुक कहा। छड़ी रुक गई। सिंदी ने एकदम बाज़ के पंजे से चिड़िया के बच्चे को छुड़ा लिया। इस से पहले कि बाज़ कुछ समझ पाता, तब तक सिंदी जल्दी कम कह कर वापस जमीन पर आ गया और बच्चे को चिड़िया के हवाले कर दिया। अचानक चिड़िया गायब हो गई और स्वामी जी सामने खड़े थे। उन्हों ने इस बार सिंदी को एक मोती दिया। उन्हों ने बताया कि मोती को ज़मान पर पटकने से एक देव आये गा और तुम्हारा कहा माने गा। वापस कहने पर वह फिर मोती में बदल जायेगा। सिंदी ने स्वामी जी को प्रणाम किया और आगे चल पड़ा।


चला चल चला चल एक दिन ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां एक बहुत गहरा खड्ड था। नीचे उतरने का कोई रास्ता नहीं था। सिंदी ने मोती को ज़मीन पर पटका। देव प्रकट हो गया और उस ने सिंदी को कंधे पर बिठा कर खड्ड को एक ही छलांग में पार कर लिया। मोती और छड़ी की मदद से सिंदी चलता चलता सागर के किनारे पहुंच गया।

भाग चार

सागर के किनारे खड़ा खड़ा सिंदी सोच रहा था कि सागर को पार कैसे किया जाये। सागर इतना बड़ा था कि देव के लिये छलांग लगाना मुमकिन नहीं था। छड़ी टिकाने के लिये भी कोई जगह नहीं थी और यह भी नहीं मालूम था कि सागर कितना लम्बा, कितना चौड़ा हो गा। सिंदी सोच में पड़ गया। नाव बना कर जाना भी मुश्किल था क्योंकि रास्ते में दो जल मगर थे। खड़े-खड़े और सोचते सोचते काफी समय निकल गया। सिंदी का ध्यान पानी की तरफ ही था।


अचानक पानी में कुछ हलचल हुई। सिंघी ने देखा कि एक छोटी मछली के पीछे दो बड़ी मछलियॉं पड़ी हुई हैं। छोटी मछली पूरी ताकत से भागने की कोशिश कर रही है पर वह सफल नहीं हो पा रही है। सिंदी ने अपने तलवार से दोनों पर वार किया बड़ी मछलियॉं इस के लिये तैयार न थीं। वह एक दम दूसरी ओर चली गई। छोटी मछली के दम में दम आया। उस ने सिंदी से पूछा कि वह कौन है और कहां जा रहा है। सिंदी ने सारा हाल बताया। छोटी मछली ने कुछ देर सोचा और फिर बोली,” मैं जाती है ओर अपने मित्रों से सलाह करती हूं”।


कुछ देर बाद छोटी मछली लौट आई। उस के साथ हजारों छोटी मछलियां थी। छोटी मछली ने सिंदी की मुलाकात अपने सरदार से कराई। सरदार मछली सिंदी से बोली, “ हम छोटी-छोटी मछलियां हैं। जल मगरों से तो क्या लड़ें गी। पर एकता में बड़ा बल होता है इसलिये हमें भरोसा है कि हम तुम को टापू तक पहुंचा दें गे। तुम ऐसा करो कि एक मजबूत रस्सी लो जिस के दूसरे सिरे पर बहुत सी मछलियां होगी और एक सिरे पर तुम पकड़ लेना। सरदार मछली ने सिंदी को और भी बहुत सी बातें समझाई।


सिंदी ने रस्सी तैयार की जिस के सिरे पर बहुत सारे छोर थे। सरदार मछली के कहने पर सभी मछलियों ने उन छोरों को पकड़ लिया। सिंदी ने दूसरे सिरे को अपनी कमर से लपेट कर कस कर बांध लिया। फिर वह लकड़ी के एक तखते पर बैठ गया ताकि वह पानी में तैरता रहे। सरदार मछली पर कहने पर उस ने अपने हाथ में एक मौटी सी वृक्ष की शाख भी अपने पास रख ली और तख्ते पर कस कर बैठ गया। मछलियां सिंदी को ले कर चली।


सागर के बीच में पहुंच कर मछलियां तेजी से तैरने लगी। वह सीधे जल मगर की ओर तैर चली। जल मगर भी जल में इतनी हलचल देख कर तैयार हो गये। मछलियां दोनों जल मगरों के ठीक बीच में पहुंच गईं। वहां पर पहुंच कर उन्होंने तेजी से चक्कर काटना शुरू किया। छोटी मछलियों के बीच में तख्त पर बैठा हुआ संधि को ऐसा लगा जैसे अपार जनता के बीच कोई राजा ऊंचे सिंहासन पर बैठा हो। सहज ही जलमगरों का ध्यान सिंदी की तरफ चला गया। उन्हों ने सोचा कि हाथ में रस्सी पकड़ा हुआ वह ऐसे लग रहा है जैसे वही मछलियों को चला रहा हो। जल मगरों ने उसी पर हमला करने की सोची। चक्कर लगाते हुये सिंदी एक मगर के बिल्कुल पास से निकला। मगर ने सोचा उस का खाना खुद उस के पास आ रहा है। मगर बहुत खुश हुआ। पर जब तक उस ने सिंदी को हड़पने की काशिश की तब तक मछलियॉं आगे निकल चुकी थी। मगर के मुंह में पानी भर गया। उस ने अपने को बाहर निकाला और देखने लगा कि क्या हुआ। इतने में मछलियॉं दूसरे मगर के पास पहुंच गई थीं। दूसरे मगर ने भी यही सोचा कि उस का खाना खुद उस के पास आ रहा है। उस ने झपट्टा मारा लेकिन वार खाली गया। मछलियों का बेड़े ने घूम कर सिंदी को फिर पहले जल मगर के पास पहुंचा दिया। पहली बार की तरह जल मगर ने इस बार भी पकड़ने की कोशिश की पर कुछ हो न पाया। इस तरह दोनों मगर सिदी को पकड़ने को ऊपर उड़ते और नीचे गिर जाते। अपने भारी बोझ के कारण वे थक गये। अब उन के सर की उछाल में इतनी फुर्ती नहीं थी। सरदार मछली ने सिंदी का इशारा किया। सिंदी और भी सम्भल कर बैठ गया। इस बार जब जल मगर उछला तो इस से पहले कि वह संभल पाता, सिंदी ने जल मगर का सर पर ज़ोर से वह वृक्ष की शाख दे मारी। इसी प्रकार दूसरे मगर को भी उस ने उस शाख से सर पर वार कर उसे ज़ख्मी कर दिया। देनों जल मगर इस अनोखे वार से परेशान हो गये और एक तरफ हो गये। अब मछलियां सिंदी को ले कर दूसरे तट पर पहुॅंची। टापू पर उतार कर सरदार मछली ने कहा, “ इस से आगे हम सहायता नहीं कर सकते। लौट कर आओ तो हमें बताना। हम तुम्हें सागर के दूसरी तरफ ले जाएं गी”।


मछलियों को धन्यवाद दे कर सिंदी उतर गया। उस ने अपने चावल निकाल कर खाये और सो रहा क्योंकि वह काफी थक चुका था और अभी आगे भी उस को कई मंजिलें तय करना थी।


भाग पॉंच

थोड़ी देर आराम करने के बाद सिंदी फिर चल पड़ा। वह जल्दी से जल्दी अपना काम पूरा करना चाहता था। सागर तट से लगा हुआ ही जंगल था जो कि बहुत घना था। सिंदी उस में से छुपता छुपाता चला जा रहा था। उस ने सोचा कि वह चार राक्षस जिन के बारे में स्वामी जी ने बताया था, उस जंगल में घुस नहीं पाएंगे। जंगल तो आराम से पार हो गया लेकिन आगे सिंदी ने देखा एक लंबा चौड़ा मैदान था जिस में छुपने के लिये एक भी वृक्ष नहीं था। उस देखा कि मैदान की दूसरी तरफ वह किला था जहां उस को पहुंचना था। राक्षसों के लिये एक सुंदर स्थान था। वास्तव में वे इसी मैदान के चारों तरफ ऊंचे चबूतरे बना कर बैठे रहते थे। मैदान के चारों कोनों पर वह चबूतरे थे। जब कोई जानवर घूमते हुये जंगल से बाहर निकलता तो राक्षस एकदम झपट्टा मार कर उसे पकड़ लेते। जंगल में पानी नहीं था। उसके लिये जानवरों को मैदान में आना पड़ता था जहां पानी का कुण्ड था। इस लिये राक्षसों को उन्हें पकड़ने में काफी आसानी होती थी।


सिंदी ने यह सब कुछ देखा। उस ने उन चबूतरों को देखा जहां बैठे राक्षस भी उसे दिखे। उस ने सोचा कि वहां पर क्या तरकीब लगाना चाहिये। वह मैदान में निकल पड़ा। छड़ी उस के हाथ में थी। राक्षसों ने उसे देखा। वे सेाचने लगे, यह कौन सा जानवर है। उन्हों ने केवल चार पैर वाले जानवर ही देखे थे। उस टापू पर कभी कोई मनुष्य नहीं आया था इस लिये राक्षस इस दो पैर वाले जानवर को देख कर हैरान थे। वे सोच रहे थे कि इस जानवर का स्वाद कैसा होगा। इस के पास कौन सा हथियार लड़ने के लिये होगा। सींग या पंजे या और कुछ। यही सोचते सोचते समय बीत गया ओर सिंदी इस बीच मैदान के बीच में पहुंच गया। अब राक्षस चौंके और एकदम सिंदी को पकड़ने के लिये छलांग लगाई। सिंदी भी तैयार था। उस ने छड़ी ज़मीन पर टिकाई और एकदम बोला जल्दी बढ़। ओर वह एक दम काफी ऊपर हो गया। राक्षसों को कुछ नहीं मिला। बल्कि वह आपस में टकरा गये। अब राक्षसों ने देखा कि सिंदी तो काफी ऊपर बैठा है। उन्हों ने सेाचा कि उन से गल्ती हो गई। इस बार उन्हों ने ऊपर की ओर सिंदी को पकड़ने के लिये छलांग लगाई। सिंदी ने कहा जल्दी कम और एक दम जमीन पर आ गया। और भाग कर एक तरफ हो गया। राक्षसों ने जो छलांग लगाई थी, उस में वह एकदम जोर से आपस में ही टकरा गये और नीचे गिर पड़े। सभी को काफी जोर से एक दूसरे की टक्कर लगी थी। वह चिल्लाने लगे। उस के बाद जब कुछ आराम मिला तो फिर चारों ओर इस अनोखे जानवर को देखने की कोशिश की जिस ने इस प्रकार उन की मरम्मत की थी। देखा कि वह फिर आकाश में टिका खड़ा था। उस को पकड़ने के लिये दो राक्षसों ने तो ऊपर की तरफ छलांग लगाई। बाकी दो ने यह सोच कर कि वह नीचे आये गा, ज़मीन पर ही रहे। वह दो उसे पकड़ने को भागे। पर सिंदी ने बीच रास्ते में ही रुक कह दिया। नीचे वाले राक्षस आपस में टकरा गये। जब तक कुछ सम्भलते तब तक ऊपर वाले दोनों राक्षस आपस में टकराये और इन के ऊपर गिर गये। नीचे वाले राक्षस दब गये। उन्होंने यह समझ कर कि इस अनोखे जानवर ने उनकी पिटाई की है और वे उन से अधिक शक्तिशाली है, उसे पकड़ने का इरादा छोड़ दिया और अपने चबूतरों पर अपनी चोट को सहलाते हुये जा कर बैठ गये।

भाग छह

सिंदी आगे बढ़ा, मैदान पार किया और उस किले के पास पहुंच गया जिस में आठ चुड़ेलें रहती थी जो कि 4 सिर वाली आठ हाथ वाली थीं। चुड़ैलों से लड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं था। उस ने सोचा कि कोई नई तरकीब लगानी पड़ेगी। सिंदी को मोती की याद आई। उस ने देव को बुलाया। और उस से कहा, ” हे महाराज, अब आगे का रास्ता मुश्किल है। इन चुड़ेलों से तरे आप ही लड़ सकते हो। मेरे बस की बात नहीं है”। देव ने कहा, ''मैं तुम्हारे साथ हूं लेकिन मुश्किल यह है कि हमारी जाति में अपनी जात भाईयों तथा बहनों से यानि अपनी बिरादरी वालों से लड़ने की पूर्णता मनाई है। जिन को आप चुड़ैल कहते हो, वह वास्तव में देवी हैं और इस तरीके से देव और देवी एक ही जाति के हैं इसलिये मेरा उन से लड़ने का कोई सवाल ही नहीं है। हॉं, किसी और तरीके से तुम्हारी मदद हो सके तो बताया जाये। “। सिंदी ने बात को समझ कर देव को वापस कर दिया।


वह खुद सोच में पड़ गया कि इन चुड़ेलों से मुकाबला कैसे किया जाये। एक तो उन की संख्या आठ थी। किसी भी तरफ से हमला कर सकती थी। ऊंचे नीचे होने से तो काबू में नहीं आएंगी क्योंकि एक तो उनकी संख्या अधिक है। दूसरे यह भी हो सकता है कि वे उड़ सकती हूं क्योंकि किताबों में लिखा है कि उन के पास जादुई झाड़ू होते हैं जिन पर बैठ कर वह उड़ती हैं। काफी समय तक सोचने के बाद उस ने एक बार फिर देव को बुलाया। देव ने कहा कि उस के लिये काम बताया जाये। सिंदी कहने लगा, ''क्या तुम हवा चला सकते हो''। देव ने कहा कि वह हवा तो नहीं चला सकता लेकिन हवा की तरह तेज उड़ सकता है जिस से कि हवा चलती हुई ही नजर आये गी। सिंदी ने कहा कि ''वह चुड़ेलों को ललकारेगा। जब वह मेरे पीछे आयें तो मैं घूम कहॅं गा। तब तुम मुझे उठा कर जोर जोर से गोलाकार रूप में घूमने लग जाना जैसे कि कई बार चक्रवात में होता है''। देव ने कहा ''ठीक है''।


ऐसा ही हुआ। सिंदी को जब चुड़ेलों ने देखा तो उसकी तरफ लपकी। सिंदी ने कहस — घूम। देव ने उसे उठा लिया और तेज़ी से चक्कर काटने लगा और चुड़ेलें भी उस को पकड़ने के लिये चक्कर लगाने लगी। काफी देर तक चक्कर काटते काटते वे थक कर बैठ गई। सिंदी में भी कुछ देर आराम किया और फिर से चुड़ैलों को ललकारा। फिर वही हाल हुआ। चक्कर लगाते लगाते चुड़ेलें बुरी तरह से थक गई जबकि देव को कुछ पता भी नहीं चला। सिंदी उस के ऊपर बैठा था। उस के थकने का सवाल ही नहीं था। चुड़ैलों में अब उठने की हिम्मत भी नहीं रही।


जब सिंदी ने देखा कि चुड़ेलें उठ नहीं पा रहे हैं तो उस ने छड़ी की मदद से ऊंचा हो कर उस आंगन को देखा जिसे में पिंजड़ा रखा हुआ था। उस ने देव को वापस किया और खुद जल्दी बढ़, जल्दी कम कर के उस आंगन में उतर गया और उस पिंजड़े को उठा कर उसी तरीके से बाहर आ गया। चुड़ेलें अभी भी थकी थकी हुई आराम ही कर रही थी। उन्हों ने सिंदी को जाते देखा पर वह पीछा नहीं कर पाई। देव की मदद से उस मैदान को पार कर लिया। राक्षस उसे देखते रहे पर उन्हें अपनी पिटाई याद थी, इस कारण उसे पकड़ने की कोशिश भी नहीं की। सिंदी ने देव को वापस किया और पहले की तरह उसी तरीके से छुपता छुपाता जंगल पार कर सागर के तट पर आ गया।


अब सवाल था मणी लेने का। उस के लिये क्या किया जाये। सिंदी इस बारे में विचार ही कर रहा था कि पिंजड़े में से तोते ने कहा - इतना सोचना क्या, मुझे मार कर मेरी पेट से मणी निकाल लो जिस के लिये तुम इतनी दूर से इतनी मुश्किल से आये हो। सिंदी ने कहा कि अगर किसी को मार कर मैं मणी को पाऊंगा तो इस का कोई मतलब ही नहीं हो गा। मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता पर मणी भी पाना चाहता हूं। इसी लिये मैं सोच में हूं।


उस का इतना कहना था कि उस ने देखा कि ना वहां पिंजड़ा है और ना ही तोता। एक वृद्ध लंबी उम्र के लम्बी दाढ़ी वाले उस के सामने खड़े है। सिंदी ने उस से पूछा कि आप कौन हैं। उस वृद्ध ने बताया कि ''मैं एक स्थान पर राजा था। मेरा राज्य काफी बड़ा था पर मुझे चैन नहीं था। मैं इसे और बड़ा करना चाहता था। मैं ने इस के लिये कई युद्ध किये। उस में कई लोग मारे गये। उस समय मुझ में इतना घमंड में था कि जब मेरी जीत होती थी तो मैं उस के बाद भी कई लोगों का वध कर देता था''।


उस ने आगे बताया ''एक बार मुझे पता चला कि पड़ोस के राजा के पास एक करामाती मणी है जिसे खज़ाने में रखने से खज़ाना कभी खाली नहीं हो सकता, भले ही कितना भी खर्च किया जाये। मैं ने उस मणि को पाने के लिये उस राजा पर हमला किया और उसे हरा दिया। उस ने वह मणी भी मेरे सुपर्द कर दी। आदत के मुताबिक मैं ने वहां के नागरिकों की हत्या भी की। इस में साधु सन्यासी भी शामिल थे। इन में एक सन्यासी की पत्नि भी थी। वह उस समय बच्चे से थी। सन्यासी को इस पर बहुत क्रोध आया। तब उस ने मुझे श्राप दिया और मैं तोते में बदल गया । बह मणी जिस को मैं ने राजा से प्राप्त कर लिया था, मेरे पास ही थी और जब उस सन्यासी के शाप से मैं तोते में बदल गया, वह मेरे अंदर ही रही। मुझे बहुत पछतावा हुआ। उसी समय मैं ने उस सन्यासी से जो कि पहुंचे हुये संत थे, से क्षमा मांगी। मैं ने उन से कहा कि आगे से मैं कभी किसी का राज्य लेने की कोशिश नहीं करूॅं गा। और उन से शाप से मुक्ति देने का निवेदन किया। मैं ने उन से कहा कि वह राज्य को राजा को लौटा दूंगा और मणी भी उन्हें सौंप दूं गा।


उस मुनि ने कहा कि जो शाप दिया गया है उसे वापस तो नहीं लिया जा सकता लेकिन अगर कभी ऐसी स्थिति आये कि कोई व्यक्ति तुम को मारने की स्थिति में हो और फिर भी ना मारे तो तुम शाप से मुक्त हो जाओ गे। इसलिये तुम्हारी कृपा से मैं आज इस श्राप से मुक्त हुआ हूं। मैं कई सालों से यही पर इस किले में इस पिंजड़े में बंद था और आज तुम्हारी वजह से ही मैं अपने रूप में आ सका हूं यह मणी अभी भी मेरे पास है और अब यह तुम्हें सौंप कर अपने कर्तव्य की पूर्ति करता हूं।


भाग सात

सिंदी ने वह मणी ले ली और सागर किनारे पर आ कर उस ने अपनी दोस्त मछली को याद किया। पहले की तरह ही वह और वह बुजुर्ग टापू से वापस आये। इस बार जल मगरों ने उन्हें रोकने की कोशिश भी नहीं की। और फिर उसी छड़ी, थैली और देव की मदद से वे वापस पहुंच गये। पहले उन्हों ने स्वामी जी के पास जा कर उन को प्रणाम कर उन को धन्यवाद दिया। सिंदी ने उन की थैली, छड़ी और मोती को वापस किया। उन का आशीरवाद प्राप्त कर और मणी के इस्तेमाल की विधि समझ कर वे राजा के नगर में पहुंचे और उन्हें यह शुभ समाचार दिया।


मणी को पीस कर दोनों हिस्सों को मिला कर उस पर डाला गया और एक अति सुंदर राजकुमारी वहां पर थी। धूमधाम से सिंदी की शादी उस राजकुमारी से की गई। उस वृद्ध राजा ने भी अपना राज्य सिंदी को सौंप दिया और खुद वन में तपस्या के लिये प्रस्थान किया।


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