अहिल्योद्धार
प्रथम दृश्य
(राम एवं लक्षमण का गौतम ऋषि के आश्रम में प्रवेश। शिष्यों द्वारा स्वागत)
शिष्य - स्वागत महात्मन। हमारे धन्य भाग जो आप हमारे यहाॅं पधारे। गुरूदेव आप की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। पधारिये।
(राम और लक्षमण शिष्यों के पीछे चलते हैं। अचानक वे एक ओर मुड़ जाते हैं)
शिष्य - गुरूदेव की कुटिया इस ओर है महात्मन।
राम - पर मैं पहले माता के दर्शन करना चाहता हूॅं।
शिष्य - महात्मन। उस ओर जाने पर प्रतिबन्ध है। कृपया आप गुरूदेव की कुटिया की ओर पधारें।
राम - परन्तु पहले माता के दर्शन करना अनिवार्य हैं। उस के पश्चात ही हम गुरूदेव के दर्शन करें गे।
लक्षमण - मनाही आप लोगों के लिये हो गी। राम तथा लक्षमण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
शिष्य - गुरूदेव की आज्ञा है कि उस ओर कोई भी नहीं जा सकता। जाना तो क्या, उधर कोई देख भी नहीं सकता।
(राम तथा लक्षमण उस राह पर चलते रहते हैं। शिष्य गौतम ऋषि की कुटिया की और मुड़ जाते हैं)
दृश्य दो
कुटिया। शिष्य प्रवेेश करते हैं।
गौतम - क्यों आप लोग यहाॅं। क्या राम तथा लक्षमण नहीं आये।
शिष्य - वे आये हैं गुरूदेव किन्तु वे उस मार्ग पर चले गये हैं जो वर्जित है।
गौतम - अर्थात?
शिष्य - वे कह रहे थे कि वे पहले माता के दर्शन करना चाहते हैं।
गौतम - क्या? तुम ने उन्हें बताया नहीं कि उस ओर जाना मना है।
शिष्य - हम ने पूरा प्रयास किया कि उन्हे वस्तुस्थिति से अवगत करायें परन्तु उन्हों ने हमारी बात पर ध्यान नहीं दिया।
गौतम - अपमान। घोर अपमान। मेंरे आश्रम में मेरी आज्ञा का उल्लंघन। मैं स्वयं जा कर उन्हें इस का दण्ड देता हूॅं।
दृश्य तीन
(माता अहिल्या की कुटिया के बाहर। गौतम ऋषि तथा शिष्यों का आगमन)
राम एवं लक्षमण - प्रणाम ऋषिवर।
गौतम - राम। क्या तुम्हें मेरी आज्ञा का ज्ञान नहीं था जो तुम इस ओर आये।
राम - ऋषिवर, माता के दर्शन बिना मैं कैसे आप के यहाॅं आ सकता था। यह तो आर्य संस्कारों का अपमान होता। यदि माता भी उसी कुटिया में होती तो मैं अवश्य उसी ओर आता, गुरूदेव।
गौतम - गुरूदेव कहते हो और उन की आज्ञा का पालन नहीं करते। यह कौन से संस्कार हैं।
लक्षमण - महात्मन। आप ने स्वयं भी तो अपनी आज्ञा को वापस ले लिया है अतः हमारा अपराध क्षमा करें।
गौतम - मैं ने अपनी आज्ञा को वापस ले लिया है?
लक्ष्मण - आप की आज्ञा थी कि इस ओर आना मना है पर आप स्वयं भी तथा आप के शिष्य भी इस ओर आये हैं। क्या इस से आप की आज्ञा निरस्त नहीं हो गई।
गौतम - तुम से तर्क करने हेतु मैं नहीं आया हूॅं। मेरी आज्ञा का उल्लंघन हुआ है, उस का दण्ड देने आया हूॅं।
राम - आप का दण्ड स्वीकार्य है ऋषिवर।
लक्ष्मण - महात्मन। आप को तो दण्ड देने का काफी अनुभव है सो हम दण्ड के लिये तैयार हैं परन्तु यह बताने की कृपा करें कि माता को दण्ड किस अपराध का दिया है।
गौतम - एक परपुरुष के साथ संभोग क्या अपराध नहीं है।
लक्ष्मण - अवश्य अपराध है, घोर अपराध है पर यह हुआ कैसे।
गौतम - इन्द्र ने मेरा रूप धारण कर यह अपराध किया।
लक्ष्मण - तब तो आप ने इन्द्र को भी कठोर दण्ड दिया हो गा। उन की कुटिया कहाॅं पर है, बताने की कृपा करें गे।
गौतम - इन्द्र देवेन्द्र है। उन को दण्ड कैसे दिया जा सकता है।
लक्ष्मण - तो वह शक्तिशाली है अतः उस को दण्ड नहीं दिया जा सकता। या आप के क्षेत्र से बाहर है इस कारण दण्ड नहीं दिया जा सकता। दण्ड केवल उसे दिया जा सकता है जो आप के क्षेत्र में हो और जो आप से कमज़ोर हो। क्या यह न्याय है?
गौतम - न्याय अन्याय की बात करने का तुम्हें अधिकार नहीं है। क्या उसे इस बात का ज्ञान नहीं था जो उस ने इन्द्र को इस का अवसर दिया।
राम - ऋषिवर। आप तो त्रिकाल दर्शी हैं। आप को तो इस घटना का पूर्वाभास हो गा। आप ने इसे रोकने का प्रयास नहीं किया।
गौतम - रोकने का प्रयास? जो घटित होना होता है, वह घटित होता ही है।
राम - तो यह पूर्व में तय घटना थी जिस को रोका नहीं जा सकता था, आप जैसे महान व्यक्ति द्वारा भी। फिर माता इस घटना को कैसे रोक सकती थीं। और यदि नहीं रोक सकती थीं तो फिर यह अपराध कैसे हुआ।
गौतम - तुम्हारे तर्क विचित्र हैं।
लक्ष्मण - पर सत्य हैं। अकाटृय हैं।
गौतम - मुझे इस पर पुनः विचार करना हो गा।
लक्ष्मण - विचार नहीं ऋषिवर, प्रायश्चित करना होगा।
राम - तो हमें अनुमति है। हम कुटिया में प्रवेेश करें।
दृश्य चार
(कुटिया के भीतर। अहिल्या जड़वत बैठी है। आंखें एक टक शून्यवत निहार रही हैं। मानो पत्थर की मूरत हो)
राम लक्ष्मण - प्रणाम माते।
अहिल्या - कौन? किस ने मुझे प्रणाम किया? किस ने गुरूवर की आज्ञा का उल्लंघन किया। क्या तुम्हें दण्ड का भय नहीं है।
राम - माते। गुरूवर ने अपनी आज्ञा वापस ले ली है। वह स्वयं भी पधारे हैं।
गौतम - हाॅं। मुझे आना ही पड़ा। मेेरे से अपराध हुआ है। उस की क्षमा माॅंगने आया हूॅं।
अहिल्या - नहीं नहीं। अपराध तो मैं ने किया है। मैं दण्ड की भागी हूॅं।
राम - माते। आप से कोई अपराध नहीं हुआ। आप सदैव निर्दोष थीं और निर्दोष रहें गी।
लक्ष्मण - माते। आप धन्य हैं। आप को अकारण दण्ड दिया गया किन्तु आप ने प्रतिकार नहीं किया। आप चाहती तो अकारण दोषरोपण के लिये श्राप दे सकती थीं। पर आप ने ऐसा नहीं किया। आप महान हैं।
गौतम - हाॅं अहिल्या। तुम्हें श्राप देने का पूरा अधिकार था और अब भी दण्ड देने का पूरा अधिकार है।
अहिल्या - ऐसा न कहिये। जो होना होता है, वह घटित होता ही है। इस में किसी का अपराध नहीं है सिवाये धोका देने वाले का। वह आज देवेन्द्र हैं किन्तु भविष्य में साधारण देवता ही रहें गे। राम जिन के अवतार हैं, वही परम परमेेश्वर हैं।
गौतम - आप धन्य है। ऐसा ही हो गा। अब हम लौट चलें।
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