अहंकार
एक स्थान पर पढ़ा कि राम जब अयोध्या लौटे तो कौशल्या माता ने कहा, ‘‘रावण को मार आये’’। राम ने उत्तर दिया - उसे मैं ने नहीं मारा, उसे ''मैं'' ने मार दिया।
कहने का अर्थ यह है कि रावण को उस के अहंकार ने मारा। वह अपने को अति बलवान समझता था। उस ने अपने भाई तक को नाराज़ कर दिया, उस की बात नहीं मानी। और फिर उस ने उस भाई को शत्रु पक्ष में जाने से भी नहीं रोका क्योंकि उसे अभिमान था कि वह अजेय है तथा विभीषण के जाने से भी कोई लाभ शत्रु को होने वाला नहीं है।
यह ‘मैं’ केवल रावण के लिये ही नहीं, सभी के लिये लागू होता है। करण को अपनी दानवीरता का अभिमान था। जब कृष्ण ने उस से सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच की माँग की तो वह इंकार नहीं कर पाया यद्यपि उसे ज्ञात हो गया कि माँगने वाला शत्रु पक्ष का है तथा वस्तुतः दान का पात्र नहीं है।
यही बात बाली के लिये भी लागू होती है। जब वामन ने उस से तीन पग भूमि माँगी तो उस के गुरू शुक्राचार्य समझ गये कि इस के पीछे क्या चाल है। उन्हों ने बाली को समझाने का प्रयास किया किन्तु बाली की ज़िद थी कि वह दान देने के अपने वचन से नहीं हटे गा। फलस्वरूप उसे अपने राज्य से वंचित होना पड़़ा।
हरिशचन्द्र के साथ भी यही हुआ। सत्यवादिता का दम भरते हुए वह अपने राज्य से वंचित हुआ, अपनी पत्नि को दूसरे की दासी बनाना पड़ा।
अधिक आगे आयें तो पृथ्वीराज को अपनी वीरता का अहंकार था। इस कारण मोहम्मद गौरी को बन्दी बनाने के पश्चात भी छोड़ दिया तथा अपने राज्य में लौटने दिया।
जब औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहाँ के बीमार होने पर व्रिदोह कर दिया और दिल्ली की ओर कूच किया तो उस समय तक शाहजहाँ ठीक हो चुका था किन्तु दारा ने स्वयं को ही सक्षम मानते हुए उसे युद्ध में जाने से रोक दिया। परिणाम सामने है।
संसार की अधिकतर त्रासदियाँ (या सुखद घटनायें, दूसरे पक्ष की बात सोचें तो) अहंकार के कारण ही हुई हैं।
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