top of page
  • kewal sethi

अवकाश से लौटने पर

अवकाश से लौटने पर

(यह कविता कुछ सच्ची घटना पर आधारित है और राजनीति के अन्दर की कहानी भी बताती है)

जीवन सूना है तुम बिन हमारा

जी ए डी की आज्ञा का ही हम को सहारा

सुना है हम पहुंच रहे हैं कटनी

पर उस से पहले क्या हाल होगा हमारा

पचानवे दिन की छुÍी डयू थी ले लिये दिन ब्यासी

शासन ने मान लिया कि हम चले गये हैं काशी

सन्यास ले लिया संसार से लौट कर हम अब न आवें गे

हो गये कक्कू अन्तरधान खबर अब तो यह ही पावें गे

ग्यारह जुलार्इ को लौटना था करते रहे इंतज़ार

सात जुलार्इ तक पर आया न कोर्इ समाचार

तब आर्इ समझ में इन को नौकरी है अभी करना

जल्दी इन की जगह बतायें ऐसा बोले मिस्टर शर्मा

शर्मा ने झट फार्इल चला दी लिख दिया पूरा हाल

लौट कर सेठी आवें गे आर्डर मिले उन्हें तत्काल

यू एस ने भी दखसत कर दिये फार्इल दी ऊपर भेज

डी एस ने खाली जगह बता दी एक नहीं अनेक

सी एस ने अपनी राय दे दी कह दिया कटनी भेजो

समर सिंह गये प्रमोशन पर है जगह उपयुक्त सेठी को दे दो

पर होनी उस समय अपना रंग बदल कर आर्इ

डी एस सी एस ने पांच अन्य व्यकितयों से जोड़ बनार्इ

फार्इल चली छ: प्रस्ताव ले कर पहुंची सी एम पास

देख कर यह भीड़ हो गया चित उन का उदास

समय बड़ा नाज़ुक है आ रहा चुनाव अगले साल

बन गर्इ तो स्वर्ग मिले गा रह गये तो पाताल

सोच समझ कर कदम बढ़ाना, है अकलमंदों का दस्तूर

कुछ व्यकित सधे सधाये रहते कुछ अकल से दूर

कुछ अपनी धुन में रहते मस्त करते नहीं सत्कार

खौफ न खायें का्रग्रैस नेताओं का खुद को समझते हुशियार

ऐसे र्इमानदारों से दूर रखे हम को गोसार्इं

यह हुए तो हो जायें गे हम चुनाव में धराशायी

ऐसे व्यकितयों को चुन चुन कर दे दो ऐसे स्थान

कुछ न करें तो भी कांग्रैस जन न हों परेशान

इसी उधेड़बुन में बैठे रहे चिन्तामगन मुख्य मंत्री

और कक्कू भैया दिखलाते रहे ज्योतिशी को जंत्री

फार्इल को दाबे रहे करते रहे मन में विचार

और कक्कू जी के बाकी तेरह दिन भ्ी हो गये पार

फिर यात्रा दिल्ली की कर के मुख्य मंत्री वापिस आये

'चर्चा करो आते ही उन्हों ने फरमान लगाये

सी एस दिल्ली गये लेने कांफ्रैंस में भाग

डी एस दौरे से नहीं लौटे ऐसे हमारे भाग

फार्इल पड़ी रह गर्इ सचिवालय में जैसे हो थकी लुटी

और कक्कू जी को लेनी पड़ी अद्र्ध वेतन की छुÍी

(होशंगाबाद, जुलार्इ 1966)

1 view

Recent Posts

See All

लंगड़ का मरना (श्री लाल शुक्ल ने एक उपन्यास लिखा था -राग दरबारी। इस में एक पात्र था लंगड़। एक गरीब किसान जिस ने तहसील कार्यालय में नकल का आवेदन लगाया था। रिश्वत न देने के कारण नकल नहीं मिली, बस पेशियाँ

अदानी अदानी हिण्डनबर्ग ने अब यह क्या ज़ुल्म ढाया जो था खुला राज़ वह सब को बताया जानते हैं सभी बोगस कमपनियाॅं का खेल नार्म है यह व्यापार का चाहे जहाॅं तू देख टैक्स बचाने के लिये कई देश रहते तैयार देते हर

सफरनामा हर अंचल का अपना अपना तरीका था, अपना अपना रंग माॅंगने की सुविधा हर व्यक्ति को, था नहीं कोई किसी से कम कहें ऐसी ऐसी बात कि वहाॅं सारे सुनने वाले रह जायें दंग पर कभी काम की बात भी कह जायें हल्की

bottom of page