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kewal sethi

अर्चित बत्रा

अर्चित बत्रा


मेरी दर्द भरी कहानी चन्द शब्दों में ही सिमट जाती है।

सच कहता हूॅं, जब भी याद आती है, बहुत रुलाती है।

जन्म मेरा हुआ इक बड़े से नगर मेे, एक सुखी परिवार था

तबियत मेरी आश्काना थी, संगीत और कविता से प्यार था

कालेज के दिनों तक मैं सब दोस्तों को गाने सुनाता रहा

उन से हमेशा अच्छी कविता की दाद भी मैं पाता रहा

पर ज़माना वह गुज़र गया, आखिर उसे तो जाना ही था

सब की तरह रोटी रोज़ी के चक्कर में मुझे आना ही था

दफतर में मेरे कोलीग सारे के सारे पुराने तजरबाकार थे

रोज़मर्रा की ज़िंदगी की मुश्किलात से रहते दो चार थे

किस को सुनाता कविता, कौन गाना सुनने का तैयार था

सब की अपनी अपनी वैतरनी, जाना उन को पार था

मिली अच्छी से नौकरी जब किस्मत ने खाया था पलटा,

पर कष्ट यही कि शहर छोटा से था मुझे जहॉं जाना पड़ा

कविता या गाना सुनने को था न कोई माहौल वहॉं का

न कल्ब था, न पार्क था न ही कोई सामान तफरीह का

फिर भी मेरा गाना सुनने को मिल गये थे आदमी दो चार

छोटे से शहर में जल्दी फैल गया यह रस भरा समाचार


भाग दो

अब यहॉं से इक और मोड़ लेती है यह मेरी कहानी

कालेज के सालाना जलसे में मुझे कविता पड़ी सुनानी

उसी समारोह में एक अच्छी गायिका ने भी लिया था भाग

क्या कशिश थी, क्या गला था क्या था उस का अन्दाज़

नाम था उस का अल्का दीक्षित, पर नाम से क्या काम था

आवाज़ के हो गये थे दीवाने बस यही असली अंजाम था

किस्मत ने दिया साथ आयोजकों ने दोगाना सुनाने को कहा

और उस दोगाने में उस प्यारी से अप्सरा का भी साथ रहा

कौन सा सुनाया जाये, इस के बारे में उस से हुई थी बात

उस से बात कर दिल पर हमारे जगे कई नये जज़बात

समारोह खत्म हुआ, लौट आये वापस अपने दरबा खाने में

आगे के ख्वाब थे तो बहुत दिल में पर अभी दूर ठिकाने थे

छोटा सा शहर, न कल्ब, न पार्क न ही कोई ऐसा स्थान

जहॉं दो प्रेमी मिल कर सकें अपनी हालत को बयान

पर यह क्या अभी तो मैं ज़रा आगे की बात कह गया

उस की कौन कहे, अभी तो यह इश्क इक तरफा था

उस से रू बरू होने का न कोई भी दिखता था रास्ता

वह कालेज में थी बंधी, और मैं दफतर का था बाशिंदा

दोनो कें मौहल्ले थे अलग, दोनों के थे रस्ते जुदा जुदा

अचानक आपस में टकराने का न था कोई सिलसिला

कैसे करे उस से इश्क का इज़हार, दरपेश यह सवाल था

छोटे से उस शहर में बदनाम होने का भी तो ख्याल था


भाग तीन

बैठा था दफतर में अपनेे, चपड़ासी ने आ कर था बताया

कोई दीक्षित जी आये हैं ले कर के कोई अपनी समस्या

दूसरों की किसी तरह मदद करना अपना यही तो था काम

इसी के तो वेतन मिलता था ,इसी में थी अपनी पहचान

कहा चपड़ासी से कि दीक्ष्ति जी को अन्दर आने को कहो

तुम्हारी ज़रूरत शायद पड़े सो द्वार के पास ही खड़े रहो।

दीक्षित जी सत्तर के तो हों गे, आये लाठी टिकाते हुये

पर यह क्या साथ में पोती भी थी उन को लाते हुये

सोचा न था कि इस तरह से हो गी अपनी मुलाकात

पता नहीं उस का भी था कि नहीं इस का आभास

छोटा सा ही काम था दाीक्षित जी का, न थी कोई कठिनाई

चार दिन में हो जाये गा तय मामला, बात उन को बताई

दरवाज़े तक छोड़ने उन को था मैं गया, यह सलीका था

बस एक ही शब्द बोला मैं ने अलका दीक्षित से - कहॉं

पता नहीं किस रौ में किस ख्याल में मैं था बह गया

वरना इस तरह इज़हार मुहब्बत थोड़े ही किया जाता

अल्फाज़ तोले जाते हैं, कलेजा तब मुॅंह को है आता

होंठ थरथराते हैं, इक कंपकपी सी होती हे सारे बदन कोें

तब जा कर हाले दिल को बता पाते है अपने सनम को

छोटा सा मेरा सवात था, छोटा सा ही था उस का जवाब

आईस क्रीम, बस इतने में ही सिमट गये थे अलफ़ाज़

कितने नावल लिखे गये इस पर, कितनी रची गई कवितायें

देखा जाये तो व्यर्थ है यह सब, दो शब्दों में वायदे समायें


भाग चार

छोटा सा श्हर न कल्ब न पार्क जहॉं प्रेमी जोड़े दिख जाये

सड़क पर होे ज़रा बेअदबी तो सारा नगर फौरन जान जाये

वायदा कर के भी ऐसे में मिलना बड़े जोखिम का है काम

पर बिना मिले भी अब कहॉं था अपने दिल को आराम

जब किसी दिल में हिलौर उठे तो सारेी रूकावटें ढह जायें

मिलने का इरादा पक्का हो तो कोई कैसे दूर रह पायें

छोटा सा तो शहर, कितने हों गे आईसक्रीम पार्लर वहॉं

पार्लर की कौन कहें कितने बेचें गे कितने खरीदें गे यहॉं

पता तो मालूम नहीं था पर दिक्कत नहीं हुई थी कतई

दिख गई थी दुकान और साथ में वह भी दिख गई

उस ने खरीदी थी अपनी मैं ने अपने के दाम थे चुकाये

वरना पता नहीं बेचने वाला किस से क्या क्या बतियाये

पास पास खड़े थे हम चुप चाप अपनी अपनी कुलफी खाते

ऑंखों ऑंखों में ही हुई थी हमारी पहली मुलाकात की बातें

छोटा सा शहर न कल्ब न पार्क पर नदी का किनारा तो था

आते थे नहाने वहॉं पर नदी का घाट वहॉं पर प्यारा तो था

सुबह सुबह होती थी भेीड़ नहाने वालों की, थे सब जुट जाते

पर बाद दोपहर तो बस इक्के दुक्के ही उस राह पर थे आते

उसी घाट पर ही मिली थी हम दोनों की महुब्बत को पनाह

नदी का बहता पानी हमारे अहदो पैमान का एक मात्र गवाह


भाग पॉंच

क्या जानता था कि नदी का बहता पानी कभी रुक नहीं पाता

इसी भॉंति समय का पहिया भी हमेश आगे ही आगे को जाता

नदी का जीवन ही है बहते रहना उसे मतलब नहीं किनारे से

कितने बैठे, कौन बैठे, कितने तैर गये, कितने बहे मंझधारे में

किस किस का प्यार देखे जब उसे मिलना हो अपने सागर को

बाट देख रहा है कब से वह अपने बिछडे हुये मुसाफिर को

जब समा जाये गी अपने प्रीतम में तब उसे करार मिले गा

एक बार फिर उसे वर्षों से बिछुड़ा हुआ वह प्यार मिले गा

उस के लिये यह नियती है पर नहीं यह सब की किस्मत में

औरोें के लिये तोे कुछ गाम चले फिर बिछुड़ गये राही पथ में

प्यार हुआ हमारा पर अगला कदम तो दोनों ही उठा न सके

न वह घर पर बता सकी न हम बता पाये उन्हें अपने इरादे

हम दोंनों के इलावा सब ही तो अनजान रहे इस अफसाने से

भला फायदा भी क्या होता हमें इसे किसी को बताने से

भूल गये हम कि नदी की तरह समय को भी बह जाना है

हर सरकारी नौकर को आखिर तो तबादले पर ही जाना है।

आया आदेश तो चल दिये सपरिवार बेखबर हमारे प्यार से

और हम अपनी हसरतें छुपाये रहे अपने ही दिलो दिमाग में


भाग छह

मुद्दत बीत गई उस से बिछड़े हुये पर अब भी याद आती है

हर बार दिल में हूक से उठती है ज़बान पर न आ पाती है

हम पर क्या गुजरी उस छोटे से शहर में किस को बतायें

कैसे वक्त बहा ले गया हमारे वो वायदे वो हमारी तमन्नायें

था वह छोटा सा शहर न कल्ब न पार्क पर बड़ा सुहाना था

दे जाये गा वह हम को दगा इक दिन, हम ने न जाना था


कहें कक्कू कवि बस इतना, सब प्रेमियों को करते प्रणाम

शब्द अपने, कहानी किसी की, मन फिर भी है परेशान


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