top of page
kewal sethi

अपने प्रति कर्तव्य

अपने प्रति कर्तव्य

दो बातें मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करती हैं। एक शिक्षा पाने की योग्यता, दूसरे आगे बढ़ने की इच्छा। भले ही इस में रूकावटें हों तथा आप अपना लक्ष्य पाने में सफल न हो पायें किन्तु यह मौलिक विशेषतायें आप में विद्यमान हैं। इन्हीं से ही आप के अपने प्रति कर्तव्य का निर्धारण होता है। आप मानव मात्र के प्रतिनिधि हैं तथा मानवता में भी यही गुण हैं। दोनों के लिये एक ही ईश्वरीय विधान है। प्राचीन काल में भाग्य की बात की जाती थी पर सदैव इस के विरुद्ध मानव जाति ने आवाज़ उठाई है। गीता में भगवान कृष्ण के स्पष्ट आदेश हैं कि कर्म करना ही कर्तव्य है। धर्म पर अपना बलिदान देने वालों ने कभी यह नहीं सोचा कि जब भाग्य जागे गा तो धर्म की स्थापना हो जाये गी। आप कर्म करने के लिये स्वतन्त्र हैं तथा इस कारण अपना दायित्व समझते हैं। इस स्वतन्त्रता को बनाये रखना ही आप का अपने प्रति प्रथम कर्तव्य है। किसी को यह अधिकार नहीं है कि आप की स्वतन्त्रता को आप से छीन ले।

आप शिक्षा पाने की योग्यता रखते हैं। आप में से प्रत्येक में बौद्धिक पात्रता है। इस से आप अपनी प्रगति करने के लिये नई बातें सीखने का प्रयास कर सकते हैं। शिक्षा आत्मा का भोजन है। जिस प्रकार शरीर बिना खाने के बढ़ नहीं पाता वैसे ही आत्मा का विकास तभी हो पाये गा जब इसे शिक्षा से पोषित किया जाये गा। व्यक्ति समाज का ही अंग है तथा अपनी शक्ति वह समाज से ही पाता है। इस लिये आप को समाज के विचार, अनुराग तथा आकांक्षाओं के बारे में जानना हो गा तथा उन्हें आत्मसात करना हो गा। इस शक्ति को अर्जित करने का कार्य शिक्षा के माध्यम से ही होता है। शिक्षा अर्जित का कार्य सरलता से तथा गति से हो सके इसी कारण ईश्वर ने हमें सामाजिक प्राणी बनाया है। हर कदम पर हमें साथी की आवश्यकता होती है। अकेले हम कई पशुओं से कई अर्थों में कमज़ोर हैं परन्तु इकठ्ठे हो कर हम किसी से भी बढ़ कर हैं। संगठन ही हमारी शक्ति है। हमारा अस्तित्व ही संगठित हो कर जीने के लिये हुआ है। अत: हमारी प्रगति भी साथ साथ ही हो गी। ईश्वरीय विधान को हम मिल कर ही निभा पायें गे।

प्रगति मनुष्य का एक और गुण है। सामाजिक, राजनैतिक अथवा धार्मिक - तीनों ही परिवर्तनशील हैं। वैदिक काल में समाज एक था, फिर इस में चार वर्ण की कल्पना की गई जो आरम्भ में कार्य के आधार पर थे तथा बाद में जन्म के आधार पर माने जाने लगे। पर इस के विरुद्ध अन्दोलन भी चलते रहे तथा वर्तमान में इसे समाप्त करने का एक और प्रयास किया जा रहा है जो सफल होता प्रतीत होता है। यूनान में ईसा पूर्व की बात हो अथवा अमरीका में सत्रहवीं तथा अठारहवीं शताबिद की, गुलामी की प्रथा थी जिस के विरुद्ध अन्दोलन हुआ तथा उस का अन्त हुआ। इसी प्रकार युरोप में तथा अन्यत्र सामन्तवाद का युग आया तथा चला गया।

राजनैतिक तौर पर आरम्भ गणतन्त्र से हुआ। कबीले में सब लोग बराबर थे। मुखिया चुना जाता था तथा उस का कार्य कबीले को प्रतिनिधित्व करना था। महत्वपूर्ण निर्णय सामूहिक रूप से लिये जाते थे। फिर राज्यों का गठन हुआ। राजा ने धीरे धीरे सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये। पर फिर इस के विरुद्ध भी संघर्ष हुआ तथा विश्व के अधिकतर देशों में अब प्रजातन्त्र की स्थापना आ चुकी है तथा शेष में भी शीघ्र ही आ जाने की सम्भावना है।

धार्मिक क्षेत्र में मनुष्य ने प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं की पूजा अर्चना से जीवन आरम्भ किया परन्तु उसे इस से संतोष नहीं हुआ। अलग अलग समय पर अलग अलग विचार प्रकट हुए तथा यह सिलसिला निरन्तर जारी है। कभी भी कोई विचार अंतिम सिद्ध नहीं हुआ। जो लोग किसी एक व्यकित के दर्शन को सत्य मानते है, उन्हें भी याद रखना चाहिये कि ईसा मसीह ने कहा था कि ''मेरे पास तुम्हें बताने के लिये बहुत कुछ है किन्तु तुम अभी उन्हें नहीं जान सकते। परन्तु जब सत्य का देवता प्रकट हो गा, वह आप को सत्य की ओर ले जाये गा। यह सत्य के देवता एक बार ही आयें गे, ऐसा भी नहीं है। वह आते रहे हैं तथा आते रहें गे। सत्य कभी भी एक साथ तथा पूर्ण रूप से प्रकट नहीं होता है। यह प्रकि्रया निरन्तर चालू रहती है।

समाज एक ऐसे मनुष्य के समान है जो सदैव सीखता रहता है। इस कारण कोई ऐसा व्यकित नहीं हो सकता जो गल्ती न करता हो। ऐसा कोई व्यकित भी नहीं हो सकता जो शकित का अंतिम धारक हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता जो ईश्वरीय विधान की अंतिम व्याख्या करने के योग्य हो। केवल मानवता ही ईश्वर तथा व्यक्ति के बीच की कड़ी हो सकती है। हम ने देखा है कि अनेक बार विदेशियों ने आक्रमण कर सभ्यता को नष्ट करने का प्रयास किया है किन्तु उन का हर प्रयास असफल ही रहा है। नई सभ्यता अधिक शान व शौकत के साथ उभरी है। आज भी इसे अन्दर से तथा बाहर से आघात पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु इस में भी सफलता मिले गी, इस में संदेह है।

स्वर्ग तथा नरक की कल्पना की गई है। इन में कोई विरोध नहीं है। इसी संसार में ही यह दोनों स्थित हैं। यह संसार प्रायश्चित्त के लिये नहीं है, यह सत्य की, न्याय की खोज तथा पूर्णता की ओर अग्रसर होने के लिये है। पूर्णता तभी प्राप्त हो सकती है जब हम मानव समाज में ईश्वर का प्रतिबिम्ब देखें। हमारा प्रयास होना चाहिये कि पूरे मानव समाज को एक परिवार बनायें। इस में हर सदस्य दूसरों की भलाई को ही अपना नैतिक कर्तव्य समझे गा। इस भावना में पीढ़ी दर पीढ़ी वृद्धि होना चाहिये। यही प्रगति है तथा यही हमारा प्रत्येक का कर्तव्य है।

जैसा कि पूर्व में कहा गया है, मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इस नाते उसे एक दूसरे से सम्पर्क करने का अधिकार है तथा यह उस का कर्तव्य भी है। कोई भी व्यकित केवल अपने में जीवन का आनन्द नहीं पा सकता। इस के लिये संगठित होना आवश्यक है। स्वतन्त्रा हमें इस बात की है कि हम अच्छाई तथा बुराई में से किस को चुनते हैं। शिक्षा हमें इस चयन में सहायक होती है। संगठन हमें वह शकित देता है जो हमें अपने लक्ष्य को पाने के योग्य बनाता है। प्रगति हमारा लक्ष्य रहता है जो अपने द्वारा चयनित कार्य में करना है। इस कारण संगठित होने के अधिकार को पाना हमारा कर्तव्य है।

संगठन धर्म का ही अंग है। हमारी धार्मिक पुस्तकों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि हम सब एक समान हैंं। विश्व कुटुम्बम में सब के एक परिवार होने का तथ्य स्वीकार किया गया है। एक परिवार के सदस्य एक दूसरे के सुख दुख के भागीदार हों गे। यदि कोई राज्य हमें इस प्रकार के संगठन से रोकता है तो वह हमारे अधिकार पर आघात है। उस का प्रतिरोध करना चाहिये तथा ऐसी सरकार को बदल दिया जाना चाहिये। ईश्वर के सम्मुख सब बराबर हैं अत: किसी को किसी के अधिकार में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। पर कई तथाकथित धार्मिक नेता इस के अनुरूप नहीं बरतते। इन का बहिष्कर करना भी हमारा कर्तव्य है। यह अधर्म नहीं है वरन उन्हें धर्म के मार्ग पर वापस लाने का प्रयास है। यह सही है कि इस अधिकार को पाने के लिये हमारे पूर्वजों को बलिदान देना पड़ा है। उन के बलिदान का ही फल है कि आज इस अधिकार को कोई चुनौती नहीं दी जा सकतीं। कम से कम प्रत्यक्ष रूप से ऐसा नहीं किया जाता यधपि परोक्ष रूप से इस के प्रयास होते रहते हैं। इन के प्रति भी हमें सजग रहना है तथा इन का प्रतिरोध करना है।

कुछ लोग यह मत व्यक्त करते हैं कि राष्ट्र ही एक मात्र संगठन है जिस की आवश्यकता है तथा शेष सब संगठन इस के अन्तर्गत आ जाते हैं। परन्तु राष्ट्र अथवा राज्य केवल एक पक्ष के लिये ही हमारा संगठन है। वह पक्ष सभी नागरिकों के लिये समान है तथा उन प्रयोजनों के लिये हैं जो कि सभी पर लागू होते हैं परन्तु जो सीमित संख्या में हैं। परन्तु इस के अतिरिक्त अन्य प्रयोजन हैं जिन में राज्य का कोई दखल नहीं है। यदि संगठन की अनुमति नहीं हो गी तो नये विचार पनप नहीं सकें गे। कोई नई वैज्ञानिक खोज नहीं हो सके गी। इस सत्य के प्रचार के लिये संगठन बनाये जाना आवश्यक है। आज कल इण्टरनैट पर फेसबुक, टविट्टर जैसे नये प्रोग्राम आ वुके हैं जो आपस मे सम्बन्ध बढ़ाने में सहायता करते हैं। इन में देशीय सीमा अथवा किसी अन्य प्रकार की सीमा नहीं है। इन के द्वारा राष्ट्र से आगे बढ़ कर अन्तराष्ट्रीय संगठन एवं सम्पर्क बनाने में सहायता दी जा रही है।

परन्तु संगठन बनाने की स्वतन्त्रता के साथ साथ इन की सीमायें भी हैं। किसी ऐसे कार्य के लिये संगठन बनाना जिसे मानवता में अपराध घोषित कर खा है, की अनुमति राज्य द्वारा नहीं दी जा सकती है। ऐसा करना अधिकार नहीं, अधिकार का दुर्पयोग है। संगठन का लक्ष्य हिंसात्मक होने की अनुमति भी नहीं दी जा सकती। न ही उसे राज्य के प्रदत्त अधिकारों का बलपूर्वक परिवर्तन करने की अनुमति देता है। संगठन को सार्वजनिक होना चहिये। गुप्त संगठन तभी सही ठहराये जा सकते हैं, जब वे राज्य द्वारा उत्पीडित किये जाने के विरुद्ध हों। साथ ही संगठनों को उन अधिकारों को मान्यता दी जाना चाहिये जो कि प्रकृति ने मानव को पद्रान किये हैंं तथा जिन का उल्लंघन नही किया जा सकता जैसे स्वतन्त्रता का अधिकार, प्रगति का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवन का अधिकार।

यह स्मरण रखने योग्य है कि समस्त अधिकार कर्तव्यों से ही उद्जनित हों गे। पर इस पर हम कभी अलग से बात करें गे।

3 views

Recent Posts

See All

science versus vedas

a very cogent explanation. must read. Does science contradict Hinduism? How do you deal with scientific discoveries that don't line up...

संख्या और ऋगवेद

संख्या और ऋगवेद ऋग्वेद की दस पुस्तकों, जिनमें एक हजार अट्ठाईस कविताएँ शामिल हैं, में संख्याओं के लगभग तीन हजार नाम बिखरे हुए हैं। उनमें...

भारत के गणितज्ञ एवं उन की रचनायें

भारत के गणितज्ञ एवं उन की रचनायें भारत में गणित एवे खगोल शास्त्र ज्ञान को तीन चरणों में देखा जा सकता है। 1. वैदिक काल जिस में सुलभशास्त्र...

Comments


bottom of page