top of page

अथ श्री रावण कथा

  • kewal sethi
  • Aug 21, 2022
  • 10 min read

कहते हैं कि इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता हे जो कभी कभी वास्तविकता से इतना दूर होता है कि सोचा भी नहीं जा सकतां पर समय पा कर तथा बार बार उसे दौहरा कर उसे सच के तुल्य बना लिया जाता है तथा बहुमत उसे सत्य विवरण मान कर स्वीकार कर लेती है।

यहॉं मैं बात मुगलो की नहीं कर रहा जिन के बारे में तथा कथित उदारवादियों का अपना मत है। यहॉं मैं और अतीत में जा कर रामायण की बात पर पहुॅंच गया हूॅं।

मान लें कि रावण युद्ध में विजयी रहा होता तो आज हम क्या पढ़ते। इस का प्लाट प्रस्तुत हैं जो शायद कभी उपन्यास का रूप धारण करे।

अथ श्री रावण कथा

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।

भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्।


अथ श्री रावण कथा


महादेव नीलकण्ठ शिव तथा भवानी पार्वति की असीम कृपा से अभिभूत मैं शिवभक्त एक महान प्रतापी सम्राट, महावीर, महादानवीर, कृपालू, दशानन भूपति का जीवन वर्णन लिखने की धृष्ठता कर रहा हूॅं, यद्यपि मेरी लेखनी में उस महान आत्मा की स्तुति करने की क्षमता नहीं है। शिवकृपा का कुछ अंश मुझे भी प्राप्त हो, इस अभिप्राय से उस महा शिवभक्त महावीर का वर्णन करने का यह प्रयास उस महान प्रतापी सम्राट की आत्मा को समर्पित है।

भारत के विशाल भूखण्ड में एक महान जाति निवास करती थी। शॉंतिप्रिय, परिश्रमी, सर्वत्र मंगल कामना से अभिभूत व्यक्ति सुखपूर्वक जीवन यात्रा पूरी करते थे। सर्वत्र सम्पन्न व्यक्ति अपने नित प्रतिदिन के कार्य में व्यस्त रहते थे। उन की विस्तार की नीति नहीं थी। परन्तु अपने क्षेत्र की रक्षा उन का कर्तव्य था जिस में प्रत्येक सदस्य योगदान देता था। उन का मन्त्र व्यम् रक्षः था। वह किसी पर आक्रमण नहीं करते थे पर रक्षा के लिये तत्पर रहते थे। इस मूल सूत्र के अनुरूप उन को राक्षस जाति कहा गया।

परन्तु इस विशाल देश के एक भाग में एक कुटिल जाति भी निवास करती थी। यदा कदा इस जाति के लोग दूसरों की भूमि पर आक्रमण करते थे। वह विस्तारवादी थे तथा उन का मूल मन्त्र अपने आधिपत्य क्षेत्र को बढ़ाना रहता था। इस के लिये इन की रणनीति स्पष्ट थी। प्रथमतः वन में उन के प्रतिनिधि जिन्हें वह ऋषि कहते थे, पूजा अर्चना के लिये अपना आश्रम स्थापित करते थे। वह अपने आप को आर्य कहलाना पसन्द करते थे तथा मूल जाति के मूल मन्त्र को बिगाड़ कर उन्हें राक्षस कहते थे। आम तौर पर राक्षस जाति सहआस्तित्व में विश्वास करती थी तथा उन्हें इन आश्रमों की स्थापना में आपत्ति नहीं थी। परन्तु वास्तव में यह आश्रम तपस्या के लिये न हो कर विस्तार नीति का अंग थे। ऋषि कुछ समय बाद अपने शिष्य भी बनाते थे जिन के बारे में उन का कथन था कि वे उन्हें धर्म मार्ग में दीक्षा देते हैं। परन्तु इन के भरण पोषण के लिये वे कृषि भी करते थे तथा पशु पालन भी। जैसे जैसे श्ष्यिों की संख्या बढ़ती थी, उन का क्षेत्र भी बढ़ता था तथा वह राक्षस जाति की भमि पर अतिक्रमण करना आरम्भ कर देते थे। प्रतिकार करने पर वह अपने नायक से सशस्त्र व्यक्तियों को आमंत्रित करते थे। इस कारण राक्षस जाति को उन का विरोध करना पड़ता था। राक्षस जाति की शक्ति के कारण कुटिल आर्य जाति अपने प्रत्यनों में सफल नहीं हो पाती थी परन्तु उन का लालसा सदैव बनी रहती थी।

महान प्रतापी दशानन एक सुप्रसिद्ध परिवार से आते थे। उन के नाना पुलतस्य थे तथा पिता विश्रवा। यह दोनों प्रखण्ड विद्वान थे तथा उन का यह गुण महा सम्राट दशानन को भी प्राप्त हुआ था। इस के साथ ही वह महाबली भी थे। महाप्रतापी रावण का विवाह मन्दोदरी से हुआ। उन्हों ने श्रीलंका को अपना मुख्यालय बनाया तथा एक मज़बूत किला बना ककर उस की रक्षा का प्रबन्ध किया। इस में उस ने सुखपूर्वक अपने भाईयों तथा परिवार के साथ निवास किया। श्री लंका में सदैव सुख सम्पत्ति का वास रहा । उस की स्मृद्धि के कारण श्रीलंका को स्वर्ण लंका भी कहा जाता था।

जब आर्य लोागें का उत्पात अधिक बढ़ा तो महाराज दशानन ने उन के मुख्य स्थान पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। कुछ समय तक आर्य दबे रहे किन्तु उन के उग्र स्वभाव में दूसरे की भूमि हथियाना कूट कूट कर भरी हुई थी। जब आर्य लोग फिर से गुटबंदी कर उत्पात मचाने लगे तो रावण ने अपने बेटे मेघनन्द को उन को रास्ते पर लाने के लिये भेजा। बेटे ने आर्य राजा इन्द्र को परास्त कर विश्व में फिर से शॉंति स्थापित की। इस विजय के कारण उस का नाम इन्द्रजीत हो गया तथा वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुये। प्रतापी रावण का सदैव यह प्रयास रहा कि वह किसी की मृत्यु का कारण न बने। इस कारण इन्द्र इत्यादि की पराजय के पश्चात भी उन को जीवनदान दिया गया।

देश के उत्तर में अयोध्या नाम का स्थान था जहॉं पर दशरथ नाम का राजा था। उस ने आस पास के क्षेत्र को जो कुटिल आर्य जाति का ही था, को जीत कर बड़ा राज्य सथापित कर लिया था। विलासप्रिय दशरथ ने एक के बाद एक तीन विवाह किये। इन विवाह के पीछे अन्य राज्यों से संधि कर अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की ही मंशा थी। इन रानियों की आपस में बनती नहीं थी तथा सदैव क्लेश बना रहता था। उन के चार बेटे हुये जिन्हों ने अपनी माताओं के ही गुण प्राप्त किये अर्थात वह आपस में वैमनस्य ही रखते थे। राज्य के प्रभाव के विस्तार के लिये दशरथ ने अपने पुत्र राम का विवाह मिथिला राज्य के राज जनक की पुत्री सीता के साथ किया था। इसी प्रकार अन्य बेटों के विवाह भी हुये।

जब दशरथ मुत्यु शैया पर थे तो उन्हों ने बड़े बेटे राम को युवराज तथा अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का अभिप्राय व्यक्त किया। यह बात राजा की दूसरी रानियों को पसन्द नहीं आई। यद्यपि दशरथ ने सम्भावित क्लेश को देखते हुए अपने बेटों भरत तथा शत्रुघन को भरत की ननिहाल में अपना अभिपाय व्यक्त करने से पूर्व भेज दिया था किन्तु भरत की माता कैकई ने इस निर्णय का पुरज़ोर विरोध किया। उस ने अपने पिता को भी सहायता देने के लिये कहा। एक बड़े विद्रोह तथा युद्ध की आशंका देखते हुये दशरथ को अपना निर्णय बदलना पड़ा तथा भरत को राज्य देने का संकल्प व्यक्त किया। राम के विरोध तथा व्यवहार को देखते हुये दशरथ द्वारा उसे बनवास देने की भी घोषणा की गई। शुत्रुघन ने भरत की अधीनता स्वीकार कर ली किन्तु लक्षमण ने इसे मानने से इंकार कर दिया तथा राम के साथ बनवास में जाने को ही स्वीकार किया। इस के लिये उसे अपनी पत्नि उर्मिला को भी अयोध्या में ही छोड़ना पड़ा। सीता राम के साथ ही रही।

राम, लक्षमण तथा सीता को बन में भी सुख से रहना नसीब नहीं हुआ। उन्हों ने एक के बाद दूसरे ऋषि के आश्रम में शरण लेने की सोची किन्तु भरत के कोप के कारण कोई भी ऋषि उन्हें शरण देने का तैयार नहीं हुआ। दक्षिण की ओर जाना ही उन के लिये बचने का एक मात्र रास्ता था। रावण की सशक्त रक्षा पंक्ति के कारण भरत अथवा उस के साथियों का इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं हो सकता था। पंचवटी में राम, लक्षमण, सीता तथा उन के साथी कई वर्ष तक सुखपूर्वक रहे।

इस क्षेत्र में राक्षस जाति का ही आधिपत्य था तथा वह इस में स्वतन्त्रता से विचरण करते थे। एक बार राजकुमारी स्वरूपनखा, जो रावण की बहन थी, घूमते हुये इस क्षेत्र में आई। उस ने राम तथा लक्षमण को देखा और उन पर मोहित हो गई। उस ने राम के प्रति अपनी इच्छा व्यक्त की किन्तु राक्षस जाति की स्त्री से विवाह की बात उन्हें पसन्द नहीं आई। यद्यपि वह कई वर्षों से राक्षस जाति के क्षेत्र में रह रहे थे तथा उन के कारण ही वह भरत द्वारा प्रताड़ित किये जाने से बचे हुये थे किन्तु उन के मन से वह धारणा नहीं जा पाई कि वह राक्षस जाति से उच्च स्तर के हैं। यह नितान्त असत्य था क्योंकि वीरता में, धनध्नाढय में राक्षस जाति आर्य जाति से कहीं उच्च सतर पर थी तथा इसी कारण आर्यों की उन के प्रति डाह थी।

जो भी हो, न केवल उन्हों ने स्वरूपनखा का प्रस्ताव ठुकराया बल्कि उस का अपमान भी किया। स्वरूपनखा ने वापस आ कर महाप्रतापी रावण को यह बात बताई। महाप्रतापी रावण ने अपने सभासदों से परामर्श किया कि इस अपमान का बदला कैसे लिया जा सकता है। सभासदों का मद था कि राम लक्षमण उन के अपने भाई से ही सताये हुये हैं तथा वह एक प्रकार से राक्षस जाति के शरण में आये हुये हैं। इस कारण उन्हें मृत्यु दण्ड देना उचित नहीं हो गा। यदि वह अपने अपराध के लिये क्षमा मॉंग लें तो उन्हें क्षमा दी जा सकती है।

रावण ने अपने परामर्शदाता मारीच को राम लक्षमण को यह सन्देश देने के लिये भेजा। मारीच ने राम लक्षमण को समझाया कि महाप्रतापी रावण द्वारा कृपा करते हुये दण्ड देने के लिये नहीं कहा है वरन् केवल अपराध स्वीकार करने का कहा है। उस समय स्वाभिमानी लक्षमण ने न केवल इसे अस्वीकार किया बल्कि मारीच को अपशब्द भी कहे। मारीच ने उन्हें चेतावनी दी कि वह अने किसे का परिणाम भुगतने को तैयार रहें। इस पर राम ने स्नेहपूर्वक शब्द बोलते हुये मारीच से क्षमा मॉंगी किन्तु जब वह वापस जाने को हुआ तो धोके से उस की हत्या करने का प्रयास किया किन्तु मारीच ने उन की चाल असफल कर दी।

वापस आ कर मारीच ने रावण को सम्पूर्ध वृतान्त सुनाया। हत्या के प्रयास की बात सुन कर महाप्रतापी रावण अत्यन्त क्रुद्ध हुआ तथा उस ने सैना सहित राम लक्षमण को पकड़ने के लिये प्रस्थान किया। इस सैनिक शक्ति केां देख कर राम तथा लक्षमण अपना निवास स्थान छोड़ कर चले गये परन्तु सीता को वहीं पर छोड़ दिया। जब राम तथा लक्षमण नहीं मिल पाये तो महापतापी रावण सीता को अपने साथ लिवा लाये तथा यह सन्देश छोड़ दिया कि राम ओर लक्षमण स्वयं रावण के समक्ष उपस्थित हों। सीता के रहने के लिये श्रीलंका की अशोक वाटिका में प्रबन्ध किया गया।

पंचवटी को असुरक्षित जान राम तथा लक्षमण पुनः बव बन भटकने लगे। इस भटकने के दौरान ही उन की भेंट हनुमान से हुई। हनुमान सुग्रीव के सलाककार थे। सुग्रीव स्वयं अपने भाई बाली, जो उस क्षेत्र का नायक था, से जलते थे। महत्वाकॉंक्षी सुग्रीव स्वयं वह पद हथियाना चाहते थे। हनुमान तथा सुग्रीव ने राम तथा लक्षमण को शरण दी। यह उल्लेखनीय है कि बाली तथा रावण मित्र थे। उन का पूर्व में युद्ध हुआ था किन्तु अपनी नीति के अनुसार बाली द्वारा पराजय स्वीकार करने पर उसे राज्य करने के लिये अनुमति दे दी गई थी। उन की आपस में मित्रता थी।

राम तथा लक्षमण उस गुप्त स्थान में सुग्रीव एवं हनुमान के साथ रहने लगे किन्तु उन्हें इस बात का क्षोभ था कि सीता उन के साथ नहीं थी। उसे किस प्रकार वापस लाया जाये, यह विचार सदैव उन्हें कचौटता रहता था। उन्हों ने सुग्रीव की बाली से दुशमनी का लाभ उठाने की सोची और सुग्रीव से वचन लिया कि यदि वह उसे राज्य दिला देते है तो वह सीता को लौटाने में उस की सहायता करें गे।

बाली के राज्य में आपस में वीर योद्धा प्रतियोगिता करते रहते थे जिस में स्वयं बाली भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करता था। इसी प्रकार के एक समारोह में राम ने वृक्ष के पीछे रह कर घोके से बाली का वध कर दिया। सुग्रीव के साथियों ने इस अफरातफरी का लाभ उठाते हुये बाली के राजमहल पर अधिकार कर लिया तथा सुग्रीव को राजा घोषित कर दिया। अपने अधिकार को वैध ठहराने के लिये उस ने बाली की विधवा से विवाह भी कर लिया।

राजा बनने के पश्चात सुग्रीव का मन भी बदल गया तथा राम की सहायता का वचन भी भुला दिया किन्तु महावीर हनुमान को यह बात पसन्द नहीं आई। उस ने स्वयं ही बात को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। वह श्रीलंका गये जहॉं उस ने सीता से भेंट की। इस के पश्चात महाप्रतापी रावण को सन्देश भिजवाया कि वह राम लक्षमण के दूत के रूप मे श्रीलंका आया है। दरबार में उपस्थित होने पर उस ने सीता को लौटाने के लिये कहा जिस पर सम्राट रावण ने कहा कि जैसे ही राम लक्षमण अपने किये पर पछतावा ज़ाहिर करें गे, न केवल सीता को उन्हे सौंप दिया जाये गा बल्कि उन को अयोध्या का राज्य वापस दिलाने में भी सहायता करें गे।

राम लक्षमण ने इस बात को स्वीकार नहीं किया क्योंकि उन का विचार था कि इस से राक्षस जाति पूरे भारत में आधिपत्य में आ जाये गी। सुग्रीव को भी इस बात के लिये धमकी दे कर मनवा लिया गया कि वह युद्ध में उन की मदद करें गे।

इस प्रकार युद्ध निश्चित हो गया यद्यपि इस की घोषणा नहीं की गई तथा रावण को भेजे सन्देश में समय मॉंगा गया। सम्राट के दरबार में राम की पुरानी कुटिल नीति तथा आर्य जाति से सामान्य व्यवहार को देखते हुये परामर्शदाताओं ने समय देने का विरोध किया परन्तु एक मात्र रावण के भाई विभीषण ने उस का समर्थन किया। जब उन की बात बहुमत के सामने नहीं चली तो वह श्रीलंका त्याग कर राम के पक्ष में चले गये। राम ने उन का स्वागत किया तथा उन्हें लंकापति बनाने का वचन दिया। बॉंटो और राज करों का मन्त्र वहीं से आरम्भ हुआ।

यह बात पूर्व में बताई गई है कि राक्षस जाति भगवान शिव के प्रति आस्था रखती थी जबकि आर्य जाति भगवान विष्णु में। राजनीति करते हुये राम ने घोषणा की कि वह भगवान शिव को ही मानते हैं तथा उस की पूजा के पश्चात ही अगला कदम उठायें गे। दिक्कत यह थी कि शिव की आराधना करने के लिये कोई उपयुक्त व्यक्ति उन के साथ नहीं था। इस समय दयावान शिवभक्त रावण ने अपने पुरोहितों को भेजा ताकि भगवान शिव की अर्चना पूजा उचित प्रकार से हो सके।

महाप्रतापी रावण की सैना के समक्ष सुग्रीव की सैना, जिन में आधे व्यक्ति बाली की हत्या कारण क्षुब्ध थे, कुछ विशेष नहीं कर पाई। तब राम ने पुनः चाल चलते हुये द्वन्द्व के लिये चुनौती दी। महाप्रतापी रावण ने यह चुनौती भी स्वीकार कर ली ताकि अनावश्यक रक्तपात से बचा जा सके। उस ने अपने मुत्र मेघनाद को लक्ष्माण का मुकाबला करने के लिये नामित किया। लक्ष्मण अधिक देर तक मेघनाद के समक्ष टिक नहीं पाये। उन्हें घायल मुर्छित अवस्था में शिविर में लाया गया। महाकृपालू रावण जिन्हों ने कभी किसी का अनिष्ट नहीं चाहा था, ने अपने विशेष चिकित्सक सुषेण का लक्षमण के उपचार के लिये भेजा जो अपने उद्देश्य में सफल रहे एवं लक्षमण में पुनः जीवन संचार हो गया।

आशा थाी कि इस से सबक ग्रहण करते हुये राम अपनी पराजय स्वीकार कर क्षमा प्रार्थना करें गे किन्तु हठी राम ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उन्हें अभी भी अपने आर्य जाति का होने का घमण्ड था। उन्हों ने पुनः द्वन्द के लिये रावण को ललकारा। परिणाम स्पष्ट था और जब राम की पराजय दिखने लगी तो लक्षमण ने नियमों की अवहेलना करते हुये स्वयं भी रावण पर आक्रमण कर दिया। दो दो व्यक्तियों से एक साथ युद्ध करते हुये भी महावीर क्षुब्ध नहीं हुये तथा दोनों को ही नागपाश से बॉंध दिया एवं उन्हें अशक्त कर दिया। हनुमान की अनुनय विनय पर उन्हों ने दोनों भाईयों को छोड़ दिया। इस के पश्चात राम ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली तथा ऐसी धृष्ठता करने के लिये क्षमा मॉंगी। सदैव दयावान रावण ने उन्हें ने केवल क्षमा किया बल्कि भरत के विरुद्ध उन की सहायता का भी वचन दिया।

उधर अयोध्या में भरत ने गद्दी तो सम्भल ली किन्तु वह राज्य को सम्भाल नहीं पाये। इस से अधिकॉंश जनता उन से नाराज़ रहने लगी थी। जब रावण की सैना सहित राम लक्षमण सीता लौटे तो अयोध्या वासियों ने उन का गर्मजोशी से स्वागत किया। भरत ने भी अपने किये पर क्षमा मॉंगी तथा राज्य को राम को सौंप दिया। राम ने अपने वरिष्ठ महाप्रतापी रावण की नीति अपनाते हुये भरत को क्षमादान दिया तथा उन्हें अपना सहयोगी नियुक्त किया।

महाप्रतापी, महावीर रावण कई वर्षों तक श्रीलंका में राज करते रहे तथा उन के पश्चात मेघनाद लंकापति बने। पूरे भरतखण्ड में वह एक मात्र छत्रपति राजा रहे। विभीषण शर्म के कारण श्री लंका लौट नहीं पाये तथा जीवन के अन्त तक अयोध्या में गुमनाम जीवन बिताते रहे।


Recent Posts

See All
पहचान बनी रहे

पहचान बनी रहे राज अपने पड़ौसी प्रकाश के साथ बैठक में प्रतीक्षा कर रहा था। उन का प्रोग्राम पिक्चर देखने जाना था और राज की पत्नि तैयार हो...

 
 
 
खामोश

खामोश जब से उस की पत्नि की मृत्यु हई है, वह बिल्कुल चुप है। उस की ऑंखें कहीं दूर देखती है पर वह कुछ देख रही हैं या नहीं, वह नहीं जानता।...

 
 
 
 the grand mongol religious debate

the grand mongol religious debate held under the orders of mongke khan, grandson of chengis khan who now occupied the seat of great khan....

 
 
 

Commentaires


bottom of page